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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कविता:सुन री, चिड़कली

कविता:सुन री, चिड़कली
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डॉ. निशा माथुर

सुन री, चिड़कली हो के विदा, आइयो रे,
घर की है सूनी देहरी, निरखत जाइयो रे।
 
शगुन के चावल, झोली बिखराइयो,
भीगी-भीगी आंखें, हमें तक जाइयो रे।
मुंडेर की बुलबुल, हंसके उड़ जाइयो,
नेह से सारे रिश्तों की रस्म निभाइयो रे।
सुन री, चिड़कली हो के विदा, आइयो रे
घर की है सूनी देहरी, निरखत जाइयो रे 
 
बाबुल के दिल की तू पीर समझइयो,
भैया की खामोशी को, ना बिसराइयो रे,
मां के कलेजे की कोर, अब ना पुकारियो, 
नैहर है छूटा, पीहर हठ ना किजो रे, 
सुन री, चिड़कली हो के विदा, आइयो रे,
घर की है सूनी देहरी, निरखत जाइयो रे।
 
साजन के घर की रीत निभाइयो, 
सजा मांग टीका, मुख नूर लाइयो रे, 
सासरे की फुलवारी, तू महकाइयो, 
भाग्य खोल धन लक्ष्मी बरसाइयो रे,
सुन री, चिड़कली हो के विदा, आइयो रे
घर की है सूनी देहरी, निरखत जाइयो रे। 

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