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हनुमानजी को जब वानर द्वीत बना लेता है बंधक

ram vanara sena

अनिरुद्ध जोशी

, मंगलवार, 8 जून 2021 (19:10 IST)
पौंड्र नगरी का राजा पौंड्रक नकली श्रीकृष्ण बनकर खुद को वासुदेव कहता था। पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। कृष्ण तो ग्वाला है। बहुत समय तक श्रीकृष्ण उसकी बातों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे, बाद में उसकी ये सब बातें अधिक सहन नहीं हुईं तो श्रीकृष्ण की आज्ञा से हनुमानजी ने अपनी लीला का प्रदर्शन किया पौंड्र नगरी में। 
 
वे पौंड्र नगरी में पहुंचकर उत्पात मचाते हैं और पौंड्रक के खास महाबली दूर्धर का वध कर देते हैं। हनुमानजी पौंड्रक की सभा में पहुंचकर पौंड्रक को चेतावनी देकर कहते हैं कि पौंड्रक मैं जा रहा हूं और यदि तुम शीघ्र ही धर्म के मार्ग पर नहीं लौटे तो मैं लौटकर आऊंगा। फिर हनुमानजी हाथ जोड़कर जय श्रीराम बोलकर अदृश्‍य हो जाते हैं।
 
 
हनुमानजी से परेशान होकर पौंड्रक ने अपने मित्र वानर द्वीत का आह्‍वान करता है। फिर पौंड्रक गैलरी के आकाश में देखकर कहता है- मित्र द्वीत हम वासुदेव पौंड्रक तुम्हें प्रकट होने की आज्ञा देते हैं, प्रकट हो द्वीत प्रकट हो। तभी आसमान से हनुमानजी जैसा ही एक विशालकाय वानर प्रकट हो जाता है और कहता है- प्रणाम वासुदेव।
 
पौंड्रक अपने मित्र वानर द्वीत को श्रीकृष्‍ण और हनुमाजी के बारे में बताता है तो वह कहता है कि वह तो मेरे बहुत पुराना शत्रु है। अब वक्त आया है उसका वध करने का। कहां छुपा है वह दुष्ट।
 
वानर द्वीत सबसे पहले तो द्वारिका जाकर वहां खुब उत्पात मचाता है। बलरामजी से उसका सामना होता है तो वह कहता है कि पौंड्रक ही है असली वासुदेव श्रीकृष्‍ण। यह सुनकर बलरामजी चौंक जाते हैं। वानर द्वीत वहां से चला जाता है। 
 
हनुमानजी को ढूंढते ढूंढते वानर द्वीत गंधमादन पर्वत पर पहुंच जाता है। वहां हनुमाजी और वानर द्वीत में घमासान युद्ध होता है। हनुमानजी उसे बुरी तरह धो देते हैं तब वह अंत में एक मायावी अस्त्र निकालता है। वह भी निष्फल हो जाता है तब हनुमानजी उसकी छाती पर पैर रखकर उसका वध करने वाले रहते हैं तो वह कहता है- रुक जाओ हनुमान, रुक जाओ..तुम्हें श्रीराम की सौगंध हैं। यह सुनकर हनुमानजी चौंक जाते तब श्रीकृष्‍ण संकेतों से हनुमानजी को उसका वध करने से रोक देते हैं और मानसिक रूप से हनुमानजी कहते हैं कि ये अच्छा अवसर है। आपके संकेत के अनुसार मैं इसे छोड़ देता हूं। ये पाखंडी अवश्य मेरे साथ धोखा करेगा और मुझे बंदी बनाएगा। इस बहाने मैं इसके साथ चला जाऊंगा और पौंड्रक के पास पहुंचकर उसे अंतिम चेतावनी दूंगा कि यदि उसने अपने आप को वासुदेव समझना नहीं छोड़ा तो फिर मेरे प्रभु उसका वध कर देंगे। मुझे आज्ञा दीजिये। तब श्रीकृष्‍ण आशीर्वाद देते हैं।
 
फिर जैसे ही हनुमानजी उस द्वीत को छोड़ते हैं वह अपनी माया से हनुमानजी को बंदी बना लेता है और हनुमानजी को पौंड्रक की सभा में ले जाता है। तब पौंड्रक कहता है कि हम भरे दरबार में उस हनुमान का भांडा फोड़ना चाहते हैं और महारानी तारा को यह बताना चाहते हैं कि जिसे तुम हनुमान समझ रही थी वह तो एक बहुरूपिया है। इस तरह दोनों में वाद विवाद होता है। 
 
तब हनुमानजी कहते हैं- पौंड्रक तुम मूर्ख हो। तुम इतना भी नहीं जानते की हनुमान को कोई बंदी नहीं बना सकता। मैं पवनपुत्र हूं और पवन और हनुमान को कोई अपनी मुट्ठी में बंद नहीं कर सकता।...यह सुनकर पौंड्रक कहता है- अब तो तुम मेरी मुठ्ठी में आ गए हो और अब हम तुम्हें चुटकी में मसल देंगे किसी मच्छर की भांति।...फिर सभी वहां पर वासुदेव पौंड्रक की जय-जयकार करते हैं।
 
तब हनुमानजी कहते हैं- पौंड्रक मैंने तुम्हें चेतावनी दी थी कि तुम धर्म के रास्ते पर आ जाओ और श्रीकृष्ण को भगवान मान लो परंतु तुमने मेरी बात नहीं मानी। मैंने तुम्हें सीधे रास्ते पर आने का अवसार दिया था परंतु तुमने उसका लाभ नहीं उठाया और अब तुम दंड के पात्र बन गए हो। ऐसा कहने के बाद हनुमानजी पौंड्रक के महल को उजाड़ देते हैं उसी तरह जिस तरह उन्होंने रावण की लंका को उजाड़ा था।
 
फिर हनुमानजी कहते हैं कि पौंड्रक तू भगवान श्रीकृष्ण का अपराधी है और तेरा अंत उन्हीं के हाथों निश्चित है। मैं चाहूं तो तुझे और तेरे इस वानर द्वीत का अभी वध कर सकता हूं परंतु मेरे प्रभु की आज्ञा नहीं है। ऐसा कहकर हनुमानजी अदृश्य हो जाते हैं।
 
फिर एक दिन वानर द्वीप द्वारिका पहुंच जाता है और उसका सामना बलरामजी से होता है। बलरामजी उसका वध कर देते हैं। 
 
इसके बाद बहुत समय तक श्रीकृष्ण पौंड्रक की हरकतों को नजरअंदाज करने के बाद में उन्होंने पौंड्रक की युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली। युद्ध के मैदान में नाटकीय ढंग से युद्धभूमि में प्रविष्ट हुए इस 'नकली कृष्ण' को देखकर भगवान कृष्ण को अत्यंत हंसी आई। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।

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