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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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प्राचीन भारत की 10 रहस्यमयी किताबें, जानिए..

प्राचीन भारत की 10 रहस्यमयी किताबें, जानिए..

अनिरुद्ध जोशी

हिमाचल के निरमंड क्षेत्र से अढ़ाई सौ वर्ष पुरानी 'पारद विज्ञान नामक' पुस्तक मिली है। प्रदेश के निरमंड क्षेत्र से खोजी गई 1052 पन्नों की पुस्तक में क्या रहस्य छिपा है, इसके बारे में राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ही बता सकता है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन को पुस्तक सौंपने के बाद इस पर शोध कार्य किया जा रहा है। पारद विज्ञान यानी कैमेस्ट्री की ऐसी प्राचीन पुस्तक है, जिसमें आयुर्वेद तंत्र विज्ञान, ज्योतिष की वह तमाम जानकारियां उपलब्ध होंगी, जिससे हिमाचल में इलाज की नई विद्या का पता चल पाएगा और हिमाचल के पुरातत्व इतिहास का नया पन्ना खुलेगा। पुस्तक मिलने की पुष्टि भाषा अकादमी ने की है।
पारद विज्ञान पुस्तक की आयु सीमा अभी अनुमानित अढ़ाई सौ वर्ष लगाई है, लेकिन संभावना जताई जा रही है कि यह पुस्तक 400 वर्ष पुरानी भी हो सकती है। फिलहाल हिमाचल में करीब ऐसी ही बीस हजार पांडुलिपियां मिल चुकी हैं। इसी तरह देश के अन्य राज्यों से सैंकड़ों और कहीं कहीं तो हजारों वर्ष पुरानी पां‍डुलिपियां पाई गई है जो राष्ट्रीय पांडुलिपि संग्रहालय में संवरक्षित की गई है। 
 
दुनिया की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है ऋग्वेद को। भारत में अध्यात्म और रहस्यमयी ज्ञान की खोज ऋग्वेद काल से ही हो रही है जिसके चलते यहां ऐसे संत, दार्शनिक और लेखक हुए हैं जिनके लिखे हुए का तोड़ दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा। उन्होंने जो लिख दिया वह अमर हो गया। उनकी ही लिखी हुई बातों को 2री और 12वीं शताब्दी के बीच अरब, यूनान, रोम और चीन ले जाया गया, रूपांतरण किया गया और फिर उसे दुनिया के सामने नए सिरे से प्रस्तुत कर दिया गया।
 
संस्कृत महाकाव्य में महाभारत, रघुवंश, रामायण, पद्मगुप्त, भट्टिकाव्य, बुद्धचरित, कुमारसम्भव, शिशुपाल वध, नैषधीय चरित, किरातार्जुनीयम, हर्षचरित। अपभ्रंश महाकाव्य में रावण वही, लीलाबई, सिरिचिन्हकव्वं, उसाणिरुद्म, कंस वही, पद्मचरित, रिट्थणेमिचरिउ, नागकुमार चरित, यशोधरा चरित।

हिन्दी महाकाव्य में पृथ्वीराज रासो, पद्मावत, रामचरितमानस, रामचंद्रिका, साकेत, प्रियप्रवास, कृष्णायन, कामायनी, उर्वशी, उर्मिला, तारक वध और तमिल महाकाव्य में शिलप्पादिकारम, जीवक चिन्तामणि, कुण्डलकेशी, वलयपति, तोल्काप्पियम, मणिमेखलै आदि महान ग्रंथ लिखे गए लेकिन हम यहां इन महाकाव्यों की बात नहीं कर रहे हैं। 
 
हम यहां, पुराण, मनु स्मृति, पंचतंत्र, जातक कथाएं, सिंहासन बत्तीसी, हितोपदेश, कथासरित्सागर, तेनालीराम की कहानियां, शुकसप्तति, कामसूत्र, संस्कृत सुभाषित, नाट्य शास्त्र, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, पंच पक्षी विज्ञान, अंगूठा विज्ञान, हस्तरेखा ज्योतिष, प्रश्न कुंडली विज्ञान, नंदी नड़ी ज्योतिष विज्ञान, परमाणु शास्त्र, शुल्ब सूत्र, श्रौतसूत्र, सिद्धांतशिरोमणि, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, च्यवन संहिता, शरीर शास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र, रस रत्नाकर, रसेन्द्र मंगल, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक, अष्टाध्यायी, त्रिपिटक, अगस्त्य संहिता, जिन सूत्र, समयसार, लीलावती, करण कुतूहल, चाणक्य का नीति एवं अर्थशास्त्र आदि किताबों की बात भी नहीं करेंगे।
 
8वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य लिखे गए ग्रंथ इनमें से प्रमुख हैं-वाग्भट्ट की अष्टांग हृदय, गोविंद भगवत्पाद की रस हृदयतंत्र एवं रसार्णव, सोमदेव की रसार्णवकल्प एवं रसेंद्र चूणामणि तथा गोपालभट्ट की रसेंद्रसार संग्रह आदि की भी बात नहीं करेंगे। कुछ अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों में-रसकल्प, रसरत्नसमुच्चय, रसजलनिधि, रसप्रकाश सुधाकर, रसेंद्रकल्पद्रुम, रसप्रदीप तथा रसमंगल आदि की बात भी नहीं। अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक और विशाखदत्त की पुस्तकों की बात भी नहीं। प्रसिद्ध तिलिस्म उमन्यास चंद्रकांता की चर्चा भी नहीं।
 
उक्त सभी को छोड़कर हम आपको बताएंगे भारत की ऐसी 10 रहस्यमयी किताबों के बारे में जिनके बारे में आपने शायद ही सुना होगा। सुना होगा तो उसे निश्चित ही पढ़ा नहीं होगा। यदि आपने उसे पढ़ लिया है तो सच मानिए फिर आप की जिंदगी भी बदल ही गई होगी, क्योंकि उन रहस्यमयी किताबों को पढ़कर आदमी का दिमाग बदल जाता है। अब यह तय नहीं किया जा सकता कि दिमाग कैसा हो जाता है। आओ जानते हैं ऐसी ही 10 किताबों के बारे में...
 
अगले पन्ने पर पहली रहस्यमी किताब...
 

1. लाल किताब : भृगु संहिता से कहीं अधिक रहस्यमी ज्ञान है लाल किताब का। आप मानें या न मानें, लेकिन इसे पढ़कर यदि आप इसे समझ गए तो निश्‍चित ही आपका दिमाग पहले जैसा नहीं रहेगा। माना जाता है कि लाल किताब के ज्ञान को सबसे पहले अरुणदेव ने खोजा था जिसे रुण संहिता कहा जाता है। फिर इस ज्ञान को रावण ने खोजा और इसके बारे में रावण ने लिखा था। फिर यह ज्ञान खो गया, लेकिन यह ज्ञान लोकपरंपराओं में जीवित रहा। 
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कहते हैं कि आकाश से आकाशवाणी होती थी कि ऐसा करो तो जीवन में खुशहाली होगी। बुरा करोगे तो तुम्हारे लिए सजा तैयार करके रख दी गई है। हमने तुम्हारा सब कुछ अगला-पिछला हिसाब करके रखा है। उक्त तरह की आकाशवाणी को लोग मुखाग्र याद करके पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाते थे। इस रहस्यमय विद्या को कुछ लोगों ने लिपिबद्ध कर लिया। जब 1939 को रूपचंद जोशी ने इसे लिखा था तो कहते हैं कि उनके पास हिमाचल से एक प्राचीन पांडुलिपि प्राप्त हुई थी तब उक्त पांडुलिपि का उन्होंने अनुवाद किया था। 
 
लाल किताब ज्योतिष की पारम्परिक प्राचीतम विद्या का ग्रंथ है। उक्त विद्या उत्तरांचल और हिमाचल क्षेत्र से हिमालय के सुदूर इलाके तक फैली थी। बाद में इसका प्रचलन पंजाब से अफगानिस्तान के इलाके तक फैल गया। उक्त विद्या के जानकार लोगों ने इसे पीढ़ी दर पीढ़ी सम्भाल कर रखा था। बाद में अंग्रेजों के काल में इस विद्या के बिखरे सूत्रों को इकट्ठा कर जालंधर निवासी पंडित रूपचंद जोशी ने सन् 1939 को 'लाल किताब के फरमान' नाम से एक किताब प्रकाशित की। इस किताब के कुल 383 पृष्ठ थे। 
 
बाद में इस किताब का नया संस्करण 1940 में 156 पृष्ठों का प्रकाशित हुआ, जिसमें कुछ खास सूत्रों को ही शामिल किया गया माना जाता है। फिर 1941 में अगले-‍पिछले सारे सूत्रों को मिलाते हुए 428 पृष्ठों की किताब प्रकाशित ‍की गई। इस तरह क्रमश: 1942 में 383 पृष्ठ और 1952 में 1171 पृष्ठों का संस्करण प्रकाशित हुआ। 1952 के संस्करण को अंतिम माना जाता है।
 
इस किताब को मूल रूप से प्रारंभ में उर्दू और फारसी भाषा में लिखा गया था। इस कारण ज्योतिष के कई प्रचलित और स्थानीय शब्दों की जगह इसमें उर्दू-फारसी के शब्द शामिल हैं, जिससे इस किताब को समझने में आसानी नहीं होती। उर्दू में इसलिए लिखा गया क्योंकि उक्त काल में पंजाब में उर्दू और फारसी भाषा का ही ज्यादा प्रचलन था। 
 
'लाल किताब के फरमान' नाम से जो भी किताबें बाजार में उपलब्ध हैं उनमें से ज्यादातर ऐसी किताबें हैं जो व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से लिखी गई हैं, जिसमें प्रचलित फलित ज्योतिष और लाल किताब के सूत्रों को मिक्स कर दिया गया है जो कि प्राचीन विद्या के साथ किया गया अन्याय ही माना जाएगा। जिस ज्योतिष ने लाल किताब को जैसा समझा उसने वैसा लिखकर उसके उपाय लिख दिए जो कि कितने सही और कितने गलत हैं, यह तो वे ही जानते होंगे। अब जब कोई ज्योतिष लाल किताब के मर्म को जाने बगैर उसके उपाय बताने लगता है तो यह उसी तरह है कि डॉक्टर हुए बगैर कोई व्यक्ति गंभीर बीमारी का इलाज करने लगे।
 
इस किताब को मूल रूप से प्रारंभ में उर्दू और फारसी भाषा में लिखा गया था। इस कारण ज्योतिष के कई प्रचलित और स्थानीय शब्दों की जगह इसमें उर्दू-फारसी के शब्द शामिल हैं, जिससे इस किताब को समझने में आसानी नहीं होती। उर्दू में इसलिए लिखा गया क्योंकि उक्त काल में पंजाब में उर्दू और फारसी भाषा का ही ज्यादा प्रचलन था। 
 
'लाल किताब के फरमान' नाम से जो भी किताबें बाजार में उपलब्ध हैं उनमें से ज्यादातर ऐसी किताबें हैं जो व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से लिखी गई हैं, जिसमें प्रचलित फलित ज्योतिष और लाल किताब के सूत्रों को मिक्स कर दिया गया है जो कि प्राचीन विद्या के साथ किया गया अन्याय ही माना जाएगा। जिस ज्योतिष ने लाल किताब को जैसा समझा उसने वैसा लिखकर उसके उपाय लिख दिए जो कि कितने सही और कितने गलत हैं, यह तो वे ही जानते होंगे। अब जब कोई ज्योतिष लाल किताब के मर्म को जाने बगैर उसके उपाय बताने लगता है तो यह उसी तरह है कि डॉक्टर हुए बगैर कोई व्यक्ति गंभीर बीमारी का इलाज करने लगे।
 
रावण संहिता : रावण द्वारा रचित रावण संहिता के बारे में कहा जाता है कि इसमें ज्योति, आयुर्वेद और तंत्र से जुड़ी तमाम ऐसी जानकारी है जो कि अचूक मानी गई है। हालांकि असली रावण संहिता के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। जिस तरह लाल किताब के नाम पर नकली किताबें मिलती है उसी तरह रावण संहिता के नाम पर नकली रावण संहिता मिलती है।
 
माना जाता है कि रावण संहिता की एक प्रति देवनागरी लिपि में देवरिया जिले के गांव गुरुनलिया में सुरक्षित रखी है। गुरुनिया कुशीनगर के पास स्थित है। कुशीनगर उत्तर प्रदेश का एक जिला है। कहते हैं कि यहां पंडित कामाख्‍या प्रकाश पाठक के यहां असली रावण संहिता रखी है जो बहुत ही प्राचीनकालीन है। यह पांडुलिपि उनको उनके पिता बागीश्वर पाठक ने दी थी। बागीश्वर को यह पांडुलिपि उनके अग्रज भ्राता नानू पाठक से मिली थी। इस तरह यह पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे को हस्तांतरित होती रही।  
 
वैसे रावण जिन ग्रंथों की रचना की थी उनमें शिव तांडव स्त्रोत और रावण संहिता प्रमुख है। रावण ने इसमें सूर्य के सारथी अरुण से यह ज्ञान प्राप्त किया था। अरुण ने यह ज्ञान उनके मित्र रावण को दिया था। रावण ने इस ज्ञान को रावण संहित नाम से लिखा था।
 
अगले पन्ने पर दूसरी रहस्यमयी किताब...
 
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अष्टाध्यायी और योगसूत्र  : पाणिनि द्वारा रचित यह दुनिया की प्रथम भाषा का प्रथम व्याकरण ग्रंथ अष्टाध्यायी (500 ई पू) है। इसमें आठ अध्याय हैं इसीलिए इसे अष्टाध्यायी कहा गया है। इस ग्रंथ का दुनिया की हर भाषा पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। अष्टाध्यायी में कुल सूत्रों की संख्या 3996 है। इन सभी सूत्रों को समझने के बाद आप को जिस ज्ञान की प्राप्त होगी वह दुनिया की अन्य किसी व्याकरण की किताब में नहीं मिलेगा। यह शुद्ध ज्ञान है।
 
पाणिनि के इस ग्रंथ पर महामुनि कात्यायन का विस्तृत वार्तिक ग्रन्थ है। इसी तरह पतंजलि ने इस ग्रंथ पर विशद विवरणात्मक ग्रन्थ महाभाष्य लिखा है। पतं‍जलि का योगसूत्र (150 ईसापूर्व) में पढ़ने लायक ग्रंथ है जिसमें योगासन की मान मात्र की चर्चा है। संपूर्ण ग्रंथ योग के रहस्य को उजागर करता है।
 
योग सूत्र में ही अष्टांग योग की चर्चा की गई है। यह अष्टांग योग दुनिया के सभी धर्मों के ग्रंथों और दुनिया के सभी तरह के दर्शन का निचोड़ या कहें की सार होने के साथ-साथ संपूर्ण धार्मिक और धार्मिक नियम ज्ञान का श्रेणिकरण और स्टेप-बाइ-स्टेप मोक्ष तक पहुंचने का सरल मार्ग है। मात्र इन दो ग्रंथों को पढ़ने और इन्हें विस्तृत रूप से समझने के बाद आपके दिमाग की दशा पहले जैसी नहीं रहेगी।
 
अगले पन्ने पर तीसरी रहस्यमी किताब...
 

3. उपनिषद : उपनिषदों को वेदों का सार या निचोड़ कहा गया है। उपनिषदों में कई रोचक और शिक्षाप्रद कहानियों के अलावा कई ऐसी रहस्यमयी बातें भी हैं जिन्हें जानकार समझकर आप हैरान रह जाएंगे। इनको पढ़ने और समझने के बाद आपना संसार को देखने का नजरिया बदल जाएगा।
 
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उपनिषद लगभग 1008 से भी अधिक हैं। उनमें से भी 108 महत्वपूर्ण हैं और उनमें से भी सबसे महत्वपूर्ण के नाम यहां प्रस्तुत हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. वृहदारण्यक, 11. नृसिंह पर्व तापनी।
 
उपनिषदों का रचनाकाल : उपनिषद की कथाओं का संकलन वर्तमान में कई लेखकों ने किया है। उन्हें सर्च कर आप उन लेखकों की किताबें खरीद सकते हैं। प्रारंभिक उपनिषदों का रचनाकाल 1000 ईस्वी पूर्व से लेकर 300 ईस्वी पूर्व तक माना गया है। कुछ परवर्ती उपनिषद, जिन पर शंकर ने भाष्य किया, बौद्धकाल के पीछे के हैं और उनका रचनाकाल 400 या 300 ईपू का है। सबसे पुराने उपनिषद वे हैं, जो गद्य में हैं।
 
अगले पन्ने पर चौथी रहस्यमयी किताब..
 

4.बेताल या वेताल पच्चीसी : संस्कृत में लिखी गई 25 कथाओं का एक संग्रह है वेताल पच्चीसी। इसे विक्रम वेताल के नाम से जाना जाता है। विक्रम-बेताल की कहानी हम सब ने बचपन में सुनी है। इसके रचयिता भवभूति ऊर्फ बेताल भट्ट बताए जाते हैं, जो न्याय के लिए प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। इस किताब में लेखक ने एक वेताल (भूत समान) के माध्यम से राजा विक्रम की न्यायप्रियता को प्रदर्शित किया है। इसे भारत की पहली घोस्ट स्टोरी माना जाता है।
 
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भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति, पद्मपुर में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। पद्मपुर महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। भवभूति ने विक्रम यानी उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को वेताल नामक भूत की कथाओं का एक पात्र बनाया था।
 
विक्रम संवत के अनुसार विक्रमादित्य आज से 2285 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।
 
विक्रमादित्य के पराक्रम के कारण ही उनके नाम पर बाद के राजाओं को विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा जाता था। यथा श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।
 
वेताल पच्चीसी के बारे में : वेताल पच्चीसी की कहानियां भारत की सबसे लोकप्रिय कथाओं में से हैं। ये कथाएं राजा विक्रम की न्याय शक्ति का बोध कराती हैं। वेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अंत में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा, लेकिन यह जानते हुए भी कि सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता।
 
वेताल पच्चीसी का रचनाकाल : माना जाता है कि वेताल पच्चीसी कहानियों का स्रोत राजा सातवाहन के मंत्री 'गुणाढ्य' द्वारा रचित 'बड़कहा' (संस्कृत : बृहत्कथा) नामक ग्रंथ को दिया जाता है जिसकी रचना ईसा पूर्व 495 में हुई थी। कहा जाता है कि यह किसी पुरानी प्राकृत भाषा में लिखा गया था और इसमे 7 लाख छंद थे। आज इसका कोई भी अंश कहीं भी प्राप्त नहीं है। कश्मीर के कवि सोमदेव ने इसको फिर से संस्कृत में लिखा और 'कथासरित्सागर' नाम दिया। बड़कहा की अधिकतम कहानियों को कथा सरित्सागर में संकलित कर दिए जाने के कारण ये आज भी हमारे पास हैं। 'वेताल पन्चविन्शति' यानी बेताल पच्चीसी 'कथासरित्सागर' का ही भाग है। समय के साथ इन कथाओं की प्रसिद्धि अनेक देशों में पहुंची और इन कथाओं का बहुत सी भाषाओं में अनुवाद हुआ।
 
अगले पन्ने पर पांचवीं रहस्यमी किताब...
 

5.विमान शास्त्र : यह एक रहस्यमी किताब है जिसके रचनकार ऋषि भारद्वाज हैं। उन्होंने अपनी किताब में विमान बनाने की जिस तकनीक का उल्लेख किया है उसका प्रचलन आधुनिक युग में होने लगा है।
 
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वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।
 
ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे।
 
ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
 
अगले पन्ने पर छठी रहस्यमी किताब...
 

6.कामशास्त्र : कामशास्त्र और काम सूत्र दोनों ही ग्रंथ रहस्य और विवादों से भरे हैं। हिन्दू धर्म के चार सिद्धांत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से काम के कई अर्थ है। काम का अर्थ कार्य, इच्छा और आनंद से है। प्रत्येक हिन्दू को सर्वप्रथम धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ब्रह्मचर्य आश्रम इसी से संबंधित है। धर्म और संसार का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अर्थ का चिंतन करना चाहिए। सभी तरह के सांसारिक सुख प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होना चाहिए।
 
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प्राचीन काल में चार वेदों के साथ ही चार अन्य शास्त्र लिखे गए थे- धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र। चारों शास्त्र ही मनुष्य जीवन का आधार है। चारों से अलग मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं कही जा सकती। कामशास्त्र पर आधारित ही बहुत बाद में वात्स्यायन ने कामसूत्र लिखा।
 
कहते हैं कि नंदी ने भगवान शंकर और पार्वती के पवित्र प्रेम के संवादों को सुनकर कामशास्त्र लिखा। नंदी नाम का बैल भगवान शंकर का वाहन माना जाता है। क्या कोई बैल एक हजार अध्यायों का शास्त्र लिख सकता है? हमारे जो तंत्र के जानकार हैं उनका मानना है कि सिद्ध आत्मा के लिए शरीर के आकार का महत्व नहीं रह जाता।
 
कामशास्त्र तो प्रारंभ में अर्थशास्त्र और आचार शास्त्र का हिस्सा था। पुराण, स्मृतियों अनुसार प्रारंभ में ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों का एक विशालकाय ग्रंथ बनाया। उस ग्रंथ का मंथन कर मनु ने एक पृथक आचार शास्त्र बनाया, जो मनुसंहिता या धर्मशास्त्र के नाम से विख्यात हुआ।
 
ब्रह्मा के ग्रंथ के आधार पर बृहस्पति ने ब्रार्हस्पत्यम् अर्थशास्त्र की रचना की। ब्रह्मा के ग्रंथ के आधार पर ही भगवान शंकर के अनुचर नंदी ने एक हजार अध्यायों के कामशास्त्र की रचना की।
 
कामशास्त्र के अधिक विस्तृत होने के कारण आचार्य श्वेतकेतु ने इसको संक्षिप्त रूप में लिखा। माना जाता है कि कामशास्त्र के आधार पर श्वेतकेतु ने पांच सौ अध्यायों का संक्षिप्त संस्करण तैयार किया। लेकिन पांच सौ अध्यायों वाला यह ग्रंथ भी काफी बड़ा था अतः महर्षि ब्राभव्य ने ग्रन्थ का पुनः संक्षिप्तिकरण कर उसे एक सौ पचास अध्यायों में सीमित एवं व्यवस्थित कर दिया। ब्राभव्य के पहले कामशास्त्र वाचिक परंपरा का अंग था। ब्राभव्य  ने ही उसे शास्त्र का रूप दिया। कालान्तर में ब्राभव्य के कामशास्त्र में अनेक चीजें जोड़ी गईं और अनेक अध्यायों को स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया गया। यही वजह है कामसूत्र ग्रंथ न होकर संग्रह है।
 
इसके अलावा कामशास्त्र पर संस्कृत में अनंगरंग, कंदर्प चूड़ामणि, कुट्टिनीमत, नागर सर्वस्व, पंचसायक, रतिकेलि कुतूहल, रति मंजरी, रति रहस्य, रतिरत्न प्रदीपिका, स्मरदीपिका, श्रंगारमंजरी, आदि कई ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्ति कुचिमार मं‍त्र, कामकलावाद तंत्र, काम प्रकाश, काम प्रदीप, काम कला विधि, काम प्रबोध, कामरत्न, कामसार, काम कौतुक, काम मंजरी, मदन संजीवनी, मदनार्णव, मनोदय, रति सर्वस्व, रतिसार, वाजीकरण तंत्र आदि संबंधित ग्रंथ हैं।
 
कामसूत्र : महर्षि वात्स्यायन ने कामसूत्र की रचना की। इसे विश्व का प्रथम यौन शिक्षा ग्रंथ माना जाता है। कामसूत्र के रचनाकार का मानना है कि दाम्पत्य उल्लास एवं संतृप्ति के लिए यौन-क्रीड़ा आवश्यक है। वास्तव में सेक्स ही दाम्पत्य सुख-शांति की आधारशिला है। काम के सम्मोहन के कारण ही स्त्री-पुरुष विवाह सूत्र में बंधने का तय करते हैं। अतः विवाहित जीवन में काम के आनन्द की निरन्तर अनुभूति होते रहना ही कामसूत्र का उद्देश्य है। जानकार लोग यह सलाह देते हैं कि विवाह पूर्व कामशास्त्र और कामसूत्र को नि:संकोच पढ़ना चाहिए।
 
संदर्भ ग्रंथ : संस्कृताचार्य कोक्कोकृत 'रतिरहस्यम्'। प्रकाशन चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी।, हिन्दी व्याख्याकार डॉ. श्रीरामानन्द शर्मा।
 
अगले पन्ने पर सातवीं रहस्यमयी किताब...
 

7.विज्ञान भैरव तंत्र : तंत्र शास्त्र पर भारत में हजारों प्राचीन किताबें मिल जाएगी, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा विज्ञान भैरव तंत्र की होती है। विज्ञान भैरव तंत्र किसने लिखा यह ज्ञात नहीं है लेकिन इसमें शिव और पार्वती के बीच हुआ संवाद है उसी तरह का जिस तरह अष्टावक्रव और जनक के बीच हुआ था और जिस तह श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ था।
 
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विज्ञान भैरव तंत्र देवी पार्वती के प्रश्नों से शुरू होता है और उन प्रश्नों का उत्तर भगवान शंकर देते हैं। उन रहस्यमयी और गुप्त विद्याओं से संबंधित उत्तरों को पढ़कर हर कोई आवाक् रह जाता है। यह किताब सचमुच रहस्यमयी ज्ञान से भरी हुई है। ओशो रजनीश ने इस पवित्र किताब में अपने अद्भुत प्रवचन दिए हैं।
 
अगले पन्ने पर आठवीं प्राचीन रहस्यमी पुस्तक....
 

8.सामुद्रिक शास्त्र : सामुद्रिक शास्त्र मुख, मुखमण्डल तथा सम्पूर्ण शरीर के अध्ययन की विद्या है। भारत में यह यह वैदिक काल से ही प्रचलित है। गरुड़ पुराण में सामुद्रिक शास्त्र का वर्णन है। यह एक रहस्यमयी शास्त्र है जो व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र और भविष्य को खोलकर रख देता है। हस्तरेखा विज्ञान तो सामुद्रिक विद्या की वह शाखा मात्र है। 
 
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सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञान प्राचीनकाल से ही भारत में प्रचलित रहा है। मूलत: यह ज्ञान दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित रहा। इसके जानकार दक्षिण भारत में ज्यादा पाए जाते हैं। इस विज्ञान का उल्लेख प्राचीनकालीन ज्योतिष शास्त्र में भी मिलता है। 
 
ज्योतिष शास्त्र की भांति सामुद्रिक शास्त्र का उद्भव भी 5000 वर्ष पूर्व भारत में ही हुआ था। पराशर, व्यास, सूर्य, भारद्वाज, भृगु, कश्यप, बृहस्पति, कात्यायन आदि महर्षियों ने इस विद्या की खोज की। 
 
इस शास्त्र का उल्लेख वेदों और स्कंद पुराण, बाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों के साथ-साथ जैन तथा बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है। इसका प्रचार प्रसार सर्वप्रथम ऋषि समुद्र ने किया इसलिए उन्हीं के नाम पर सामुद्रिक शास्त्र हो गया। भारत से यह विद्या चीन, यूनान, रोम और इसराइल तक पहुंची और आगे चलकर यह संपूर्ण योरप में फैल गई।
 
कहते हैं कि ईसा पूर्व 423 में यूनानी विद्वान अनेक्सागोरस यह शास्त्र पढ़ाया करते थे। इतिहासकारों अनुसार हिपांजस को हर्गल की वेदी पर सुनहरे अक्षरों में लिखी सामुद्रिक ज्ञान की एक पुस्तक मिली जो सिकंदर महान को भेंट की गई थी। प्लेटो, अरिस्टॉटल, मेगनस, अगस्टस, पैराक्लीज तथा यूनान के अन्य दार्शनिक भारत के ज्योतिष और सामुद्रिक ज्ञान से परिचित थे। 
 
अगले पन्ने पर नौवीं प्राचीन रहस्यमयी पुस्तक...
 

9.'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' : प्राचीन भारत में नागार्जुन नाम के महान रसायन शास्त्री हुए हैं। इनकी जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। रसायन शास्त्र में उनकी दो पुस्तकें 'रस रत्नाकर' और 'रसेन्द्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध है। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें 'कक्षपुटतंत्र', 'आरोग्य मंजरी', 'योग सार' और 'योगाष्टक' हैं।
 
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रसरत्नाकर में इन्होंने रसायन के बारे में बहुत ही गुड़ रहस्यों को उजागर किया है। इसमें उन्होंने अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन विधि, रजत के धातुकर्म का वर्णन तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं। इसके अतिरिक्त रसरत्नाकर में रस (पारे के योगिक) बनाने के प्रयोग दिए गए हैं। इसमें देश में धातुकर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था। इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताए गए हैं। सबसे रहस्यमयी बात यह कि इसमें सोना बनाने की विधि का भी वर्णन है।
 
पुस्तक में विस्तारपूर्ण दिया गया है कि अन्य धातुएं सोने में कैसे बदल सकती हैं। यदि सोना न भी बने रसागम विशमन द्वारा ऐसी धातुएं बनाई जा सकती हैं जिनकी पीली चमक सोने जैसी ही होती थी। इसमें हिंगुल और टिन जैसे केलमाइन से पारे जैसी वस्तु बनाने का तरीका दिया गया है। आज भी भारत के सुदूर प्रान्तों में कुछ ज्ञानी जानकार, योगी साधक हो सकते हैं जो नागार्जुन द्वारा बताई गई विधि से सोने का निर्माण करने में सक्षम है।
 
इस किताब में एक जगह शालिवाहन और वट यक्षिणी के बीच रोचक संवाद है। शालिवाहन यक्षिणी से कहता है- 'हे देवी, मैंने ये स्वर्ण और रत्न तुझ पर निछावर किए, अब मुझे आदेश दो।' शालिवाहन की बात सुनकर यक्षिणी कहती है- 'मैं तुझसे प्रसन्न हूं। मैं तुझे वे विधियां बताऊंगी, जिनको मांडव्य ने सिद्ध किया है। मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे योग बताऊंगी, जिनसे सिद्ध किए हुए पारे से तांबा और सीसा जैसी धातुएं सोने में बदल जाती हैं।'
 
अगले पन्ने पर दसवीं प्राचीन रहस्यमयी किताब...
 

10.अथर्ववेद : अथर्वा ऋषि प्रणीत अथर्ववेद सचमुच रहस्यमयी है। इसके सूत्रों को समझना बहुत ही मुश्‍किल है। इस वेद में तरह-तरह की विद्याओं का वर्णन मिलता है। इन विद्याओं में कुछ के नाम हैं- प्राण विद्या, मधु विद्या, सम्मोहन विद्या, विकर्षण विद्या एवं संवर्ग विद्या आदि। वर्तमान में प्रचलित रेकी विद्या का उद्गम भी यह वेद ही है। दरअसल, इस विद्या का जिक्र हमें अथर्ववेद के तेरहवें अध्याय में मिलता है।
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अथर्ववेद कहता है कि किसी षड्यंत्रकारी ने यदि उत्कोच अर्थात घूस देकर अथवा फिर किसी अन्य उपाय से आपका अहित किया है तो आप किसी यक्ष का स्मरण कर ध्यानावस्था में रहते हुए यह आभास पा सकते हैं कि आपके खिलाफ कहां कौन-सा कुचक्र हो रहा है। कुछ इसी तरह की विधायक विद्या है संवर्ग-विद्या जो उपनिषद् युगीन गाड़ीवान को आती थी। यह गाड़ीवान ही रैक्व ऋषि थे। उनका नाम गाड़ीवान इसलिए की वे अपनी गाड़ी में ही सोते रहते थे। रैक्व ऋषि ने विराट से झरती ऊर्जा को सीधे-सीधे ग्रहण करने की विधि अपनाई थी। उनकी ही इस विद्या को जापान में रेकी कहा गया। भारतीय लोग इसके पीछे का इतिहास नहीं जानते इसलिए वे रेकी को जापानी विद्या मानते हैं।
 
इसके अलावा अथर्ववेद में उल्लेखित सम्मोहन विद्या भारतवर्ष की प्राचीनतम और सर्वश्रेष्ठ विद्या है। सम्मोहन विद्या को ही प्राचीन समय से 'प्राण विद्या' या 'त्रिकालविद्या' के नाम से पुकारा जाता रहा है। कुछ लोग इसे मोहिनी और वशीकरण विद्या भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसे हिप्नोटिज्म कहते हैं। हिप्नोटिज्म मेस्मेरिज्म का ही सुधरा रूप है। यूनानी भाषा हिप्नॉज से बना है हिप्नोटिज्म जिसका अर्थ होता है निद्रा। 'सम्मोहन' शब्द 'हिप्नोटिज्म' से कहीं ज्यादा व्यापक और सूक्ष्म है। 
 
पहले इस विद्या का इस्तेमाल भारतीय साधु-संत सिद्धियां और मोक्ष प्राप्त करने के लिए करते थे। जब यह विद्या गलत लोगों के हाथ लगी तो उन्होंने इसके माध्यम से काला जादू और लोगों को वश में करने का रास्ता अपनाया। मध्यकाल में इस विद्या का भयानक रूप देखने को मिला। फिर यह विद्या खो-सी गई थी।
 
अंत में एक और किताब के बारे में जान ही लीजिए..
 

कौटिल्य का अर्थशास्त्र : दुनिया में इस अर्थशास्त्र की मिसाल दी जाती है। इसे चाणक्य ने कौटिल्य नाम से लिखा था। चाणक्य को तो सभी जानते हैं कि वे चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक को सिंहासन पर बिठाने वाले थे। दरअसल चाणक्य चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे।  इनका असली नाम 'विष्णुगुप्त' था।

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चाणक्य के लिखे नीतिशस्त्र और अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की आज भी विश्‍व प्रसिद्धि है। इसके अलावा उन्होंने ज्योतिष पर विष्णुगुप्त सिद्धांत और आयुर्वेद पर वैद्य जीवन नामक ग्रंथ भी लिखे हैं। कहते हैं कि चाणक्य ने वात्स्यायन नाम से कामसूत्र लिखा था लेकिन अधिकतर विद्वान इसे सत्य नहीं मानते हैं। इसके लिए वे हेमचंद के लिखे एक श्लोक का हवाला देते हैं- 
 
वात्स्यायन मल्लनागः, कौटिल्यश्चणकात्मजः।
द्रामिलः पक्षिलस्वामी विष्णु गुप्तोऽङ्गुलश्च सः।।

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