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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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स्त्री जीवन की मार्मिक कहानी : दूसरी पारी

स्त्री जीवन की मार्मिक कहानी : दूसरी पारी
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देवयानी एस.के.

'दिन में पचासों सौ बार कौन फोन करता है मम्मी??'। दनदनाते तूफान की तरह निधि घर में दाखिल हुई और अपना पर्स सोफे पर पटक कर मम्मी को शिकायत भरी नजरों से घूरने लगी।
 
निधि, मेरी प्यारी बेटी.. मां सोच रही थी वक्त न जाने पंख लगा कर कहां उड़ गया। अभी-अभी तो मम्मी-मम्मी कह कर मेरे आगे पीछे चहकती थी। स्कूल से आती थी तो घर ख़ुशियों से झूमने लगता था। मम्मी ये, मम्मी वो, मम्मी स्कूल में ये हुआ, इससे लड़ाई हुई, टीचर ने ये कहा… उफ, अपनी बातों में सांस लेने तक की फुरसत नहीं लेती थी ये लड़की। मेरी गुड़िया मेरी निधिया। 
 
मां अपने खयालों में खोई मंद-मंद मुस्कुरा रही थी और मां को देख निधि का ग़ुस्सा उछाल खाने लगा था। 'पूरी टीम मीटिंग में थी, मम्मी मेरा फोन घनघनाने लगा तो बॉस की भौएं चढ़ गई। कितना इम्बैरेसिंग था मेरे लिए जानती हो? और काम क्या था? बेटा लंच का टाइम हो गया खाना खा लो… ये था आपका काम? ये थी आपकी इमर्जेन्सी? आप भी न...
 
आलोक भी ऑफिस से अब आ चुके थे, घर में मां बेटी की महाभारत देख कर वो खीज गए। 'तुम भी हद करती हो शोभा, क्या अच्छा लगता बार-बार ऑफिस में फोन करना? बच्ची नहीं रही वो अब। बड़ी हो गई है। और तुम दोनों कि क्या ये रोज की खिटपिट लेकर बैठ जाती हो? है? तंग आ चुका हूं भाई। बक्श दो मुझे। 'घर का तापमान ऊंचाइयां छूने लगा तो मां चुप हो गई।
 
जब से ब्याह कर ससुराल की दहलीज पार की थी, अपना अस्तित्व भूल ही गई थी मां। दूध में शकर घुलती है ना, उसी प्रकार से अपने घर-संसार में रम गई मां। सबके खाने-पीने का खूब खयाल रखती, दिनभर घर के कामों में मगन रहती।

कभी अम्माजी के लिए उनकी मनपसंद गुजिया बनाती, कभी पति के लिए स्वेटर बुनती। शाम को बच्चों की होमवर्क कराने बैठ जाती और कभी बाबूजी दवाइयां खत्म हो जाए तो उन्हें लाने अपनी स्कूटी पर निकल पड़ती। हवा के शीतल झोंके सी घर आंगन में डोलती थी मा। 
 
अम्माजी तो ऐसी बहु पाकर अपने भाग्य पर इतरातीं, कहतीं 'हमारी बहुरियां तो साक्षात लक्ष्मी है लक्ष्मी'
 
बिटिया कहती, 'माई मॉम इज द बेस्ट मॉम इन द वर्ल्ड' और पतिदेव, वे तो आंखों से ही बोल जाते थे कि 'तुम न होते सरकार तो क्या होता हमारा?'
 
खैर, समय अपनी गति से चल रहा था। अम्मा और बाबूजी अपना ढेर सारा आशीष बहु पर बरसा कर परलोक सिधार ग़ए। निधि अपनी पढ़ाई खत्म करके अच्छी नौकरी पर लग गई। अब वो अपने काम में और आलोक अपने काम में मसरूफ हो चुके थे। दोनों अपनी-अपनी दुनियां में मस्त और मां के लिए…। मां की तो पूरी दुनिया ही ये दोनों थे। 
 
अब निधि कहती थी 'मम्मी दिन भर तो घर में बैठी रहती हो, अब आप ना कही जॉब कर लो। आपका दिल लगा रहेगा। अब आप अपनी पसंद की चीजें करो, नए दोस्त बनाओ, घूमने जाओ' बात तो ग़लत नही थी। अब कोई जिम्मेदारियां नहीं थी, तो क्यों न अब जिंदगी खुल कर जी जाए? है न? पर इसमें एक दिक्कत थी। दिक्कत ये, की इतने साल अपने आप को भूलाकर परिवार के लिए करती रही। अब अपने लिए कुछ करने की बारी आई तो सोच रही हूं कि मुझे चाहिए क्या? 
 
तुमने तो कह दिया बेटा, कि जा मां जा, जी ले अपनी जिंदगी… जॉब करने की बात करती हो गुडिया? 25 सालों से अपना मनपसंद जॉब ही तो करती आ रही थी। वो क्या कहते है तुम बच्चे… जॉब सैटिस्फैक्शन है ना? भई, अपने करियर में मुझे तो भर-भर के सैटिस्फैक्शन मिली। घर-परिवार का प्यार, बच्चों का दुलार, बड़ों का स्नेह, आशीर्वाद, मेरी वो पूंजी है जो केवल नसीब वालों को मिलती है। 
 
'और आज मेरे सब काम से ही मुझे रिटायर कर दिया बेटा??'
 
ऐसा नहीं है की वो निधि की भावनाएं समझ नहीं रही थी। मां का मन दुखे या उसका अपमान हो, ऐसा निधि का इरादा कतई नही था। मां के घर-परिवार के प्रति समर्पण भावनाओं को निधि भलीभांति जानती थी और मानती भी थी। वो तो बस ये चाहती थी कि मम्मी घर में बैठे-बैठे उकता न जाए, उनका दिल लगा रहे। मां समझ तो रही थी बात को पर अपना ही बनाया दायरा लांघने से हिचकिचा रही थी। अपने प्यारे से पिंजरे से बाहर निकलने से घबरा रही थी।
 
अब तो वक्त ही वक्त है, पर करूं तो क्या करूं? कुछ सूझ ना रहा, मां अपने खयालों में उलझने लग गई, असमंजस से जूंझने लगी। क्या है ऐसा जो मुझे अच्छा लगता था कभी? क्या है ऐसा जिसे करने में मुझे खुशी मिलती थी?

मां सोचने लगी... हां याद आया।। कभी-कभार कुछ लिख लिया करती थी। कविताएं, कहानियां।। सहेलियों को लिखकर सुनाती तो सहेलियां वाहवाही करती। चित्रकारी भी अच्छी-खांसी कर लेती थी शायद। कॉपी में पेंसिल से स्केच बनाती थी…मजा आता था।। और? और क्या?...अरे हा, कभी दादी को भजन गा कर सुनाती, तो दादी खुश हो जाती, बोलती 'सुर है तेरे गले में गुड़िया इसे सहज के रख'। यादों का अलबम मां ने खोला, तो सारी तस्वीरें रंगीन दिखने लगी। हौसले कि जरा-सी हरारत क्या मिल गई, सपनों को नए कोंपलें फूटने लगे। एक सरसराहाट सी दिल में उठी।
 
कितना कुछ तो है जीवन में करने जैसा। कितना कुछ है सीखने जैसा, कितने काम है जो करने है, ...एक ढूंढो तो हजार मिलेंगे। मन करें तो जॉब भी कर लूंगी, कोई कमी थोड़ी ही है मुझमें। पढ़ीं-लिखी हूं, हां, डिग्री पर थोड़ी धूल जमी है, उसे बस झटकने की देरी है। मां सोचे जा रही थी। एक लंबे अरसे से दिल पर उदासी की परत सी जमी थी वो हट गई थी अब।
 
उनकी सहेलियां कब से पीछे पड़ी थी कि चल न कही कॉफी पीने चलते हैं, शॉपिंग पर चलते है, गप्पें लड़ाते हैं। पर ना। मां थी कि घर के कामों से फुर्सत निकाल कर कभी सहेलियों से मिलती तक नहीं थी।
 
पर आज उन्होंने फोन उठाया और अपने ग्रुप पर मैसेज किया 'एक घंटे में मैं सिटी माल पहुंच रही हूं लड़कियों, आ जाओ…'
 
अपना फेवरेट गुलाबी रंग का सूट पहन कर मां तैयार हो गई। आंखों में काजल, होठों पर हल्की सी लिपस्टिक लगाएं वे बड़ी प्यारी लग रही थी। आज उनके चेहरे पर दमक थी, जो किसी मेकअप या किसी कपड़े की मोहताज नही थी। बल्कि मन के अंदर उपजा आत्मविश्वास चमक बनकर चेहरे पर छलक रहा था।
 
जीवन की पहली पारी मां ने बड़े प्रेम और आत्मविश्वास के साथ खेली थी। अब उनकी दूसरी पारी शुरू होने को थी, जिसे खेलने के लिए वे बेहद उत्सुक थी... बिलकुल तैयार थी। 
 
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