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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कृषि को लाभप्रद बनाना अपरिहार्य

कृषि को लाभप्रद बनाना अपरिहार्य
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विवेक त्रिपाठी

भारत में किसानों को अन्नदाता की उपाधि दी गई, पर आज वह निराश नजर आ रहा है। कृषि से उसका लागत मूल्य न मिलने से परेशान हो रहा है। किसानी के नए तरीके तो इस देश में रोज इजाद हो रहे, पर उन पर क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। इसलिए कृषि में जो मुनाफा मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा है। किसानों को कर्ज लेना पड़ रहा है। वही उनके लिए जानलेवा साबित होता जा रहा है। किसानों की आत्महत्याओं पर दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। आंकड़ों पर नजर डालें तो आंखें फटी रह जाती हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानों की आत्महत्या एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है।  
 
भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या करने की रिपोर्ट दर्ज की गई है। 1995 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। सरकारी आंकड़े भी कम भयावह नहीं हैं। इनके मुताबिक, भी हर साल भारत में हजारों किसान आत्महत्या करते हैं। सरकार के आकंड़ों के मुताबिक, 2011 में करीब 14 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। 
 
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, किसान आत्महत्याओं में 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में सामने आए। 30 दिसंबर 2016 को जारी एनसीआरबी के रिपोर्ट ’एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015’ के मुताबिक साल 2015 में 12,602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की है। एनसीआरबी की इस रिपोर्ट को देखें तो साल 2014 में 12,360 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने खुदकुशी कर ली। ये संख्या 2015 में बढ़कर 12,602 हो गई। 2014 के मुकाबले 2015 में किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों के आत्महत्या में 2 फीसदी बढ़ोतरी हुई।
 
किसानों की आत्महत्या के मामले में सबसे बुरे हालात महाराष्ट्र के हैं। सूखे की वजह से साल 2014 और 2015 खेती के लिए बेहद खराब साबित हुआ। इसका सबसे ज्यादा असर महाराष्ट्र में दिखा। साल 2015 में महाराष्ट्र में 4,291 किसानों ने आत्महत्या की। किसानों के आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र के बाद कर्नाटक का नंबर आता है। कर्नाटक में साल 2015 में 1,569 किसानों ने आत्महत्या कर ली। तेलंगाना (1400), मध्य प्रदेश (1290), छत्तीसगढ़ (954), आंध्र प्रदेश (916) और तमिलनाडु (606) भी इसमें शामिल है।
 
2004 से लेकर 2012 के बीच एक लाख 42 हजार 373 किसानों ने आत्महत्या की है यानी सालाना 16 हजार 263 किसानों ने आत्महत्या की है और इस तरह रोजाना 45 किसानों ने जान दी है और इस तरह हर 32 मिनट में एक किसान अपनी जान दे रहा है। 19 दिसंबर, 2011 को राज्यसभा में तत्कालीन मंत्री ने यह बयान दिया था कि 1999 से लेकर 2011 के बीच में 2 लाख 90 हजार 740 किसानों ने आत्महत्या की है।
 
अभी हाल हुई किसानों की मौतों पर नजर डालें तो मध्य प्रदेश में कर्ज से परेशान किसानों ने आत्महत्या का रास्ता चुना है। आठ जून से लेकर अब तक सबसे अधिक आत्महत्या हुई हैं। एमपी के छतरपुर, सागर छिंदवाड़ा से भी ऐसी ही खबरें मिली हैं। जो सच में भयावह है। केरल में तो किसान ने जमीन का कर ना चुका पाने के कारण ग्राम प्रशासनिक कार्यालय के बाहर ही फांसी लगा ली। इसी प्रकार महाराष्ट्र के नासिक में भी कुछ ऐसे हालत देखने को मिले। महाराष्ट्र में किसान आन्दोलरत हैं। ठाणे के बदलापुर में किसानों की जमीन के अधिग्रहण का मामला सामने आया है। पंजाब को हमारे देश का अनाज का कटोरा भी कहा जाता है, फिर भी वहां के किसान कर्ज़ में डूबे हुए हैं। गेहूं और धान का उत्पादन पंजाब में बहुत ज्यादा मात्रा में होता है।
 
पंजाब में प्रति हेक्टेयर गेहूं का उत्पादन 4,500 किलो के आसपास है जो कि अमेरिका में प्रति हेक्टेयर गेहूं के उत्पादन के बराबर है, जबकि धान उगाने के मामले में पंजाब के किसान चीन को टक्कर देते हैं, लेकिन फिर भी ये किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। पंजाब विवि के एक सर्वे के मुताबिक, पंजाब के किसानों पर 69 हज़ार 355 करोड़ रुपए का कर्ज़ है। खेती के मामले में एक समृद्ध राज्य होते हुए भी पंजाब के किसान कर्ज़ में इसलिए डूब रहे हैं क्योंकि वहां ज़मीन के नीचे का पानी कम होता जा रहा है, सिंचाई के लिए पंजाब के किसान कर्ज़ लेते हैं और फिर कम उत्पादन की वजह से इस कर्ज़ को वक्त पर नहीं चुका पाते।
 
ज्यादातर छोटे किसान कर्ज लेकर खेती करते हैं। कर्ज वापस करने के लिए यह जरुरी है कि फसल अच्छी हो। हमारे देश में सिंचाई की सुविधा बहुत कम किसानों को उपलब्ध होती है। ज्यादातर किसान खेती के लिए वर्षा पर निर्भर रहते हैं। अब ऐसे में यदि मानसून ठीक से न बरसे तो फसल पूरी तरह बरबाद हो जाती है। किसान की सारी मेहनत बेकार हो जाती है। वर्षभर खाने के लिए भी कुछ नहीं रहता, साथ में कर्ज चुकाने का बोझ अलग से। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियां किसानों के लिए समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। किसान बेहाल हैं। जोत छोटी होती जा रही है। फसल अच्छी हो तो बिचौलियों को लाभ मिलता है। खराब हो तो किसान परेशान होता है। वह हर तरह से परेशान है। 60 प्रतिशत खेती असिंचित है। अधिकांश गांव बाजार सुविधा से वंचित हैं, लेकिन इस बात पर भी विचार करना होगा कि किसानों की आत्महत्या का यह एकमात्र कारण नहीं है। इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।
 
आजादी के बाद से कृषि पर जितना ध्यान देना चाहिए, उतना नहीं दिया गया, जबकि 70 प्रतिशत आबादी इसी पर निर्भर है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का महत्वपूर्ण योगदान था। उसके कई फायदे थे। उस समय के नौजवान रोजगार में लगे थे। सिंचाई, उन्नत बीज आसानी से खाद भण्डारण और बाजार गांव से जुड़े होते थे। गांव और किसान की इतनी दुर्दशा न थी। प्राचीनकाल में भी कृषि के साथ पशुपालन अनिवार्य रूप से जुड़ा था। पशुपालन, ईंधन, खाद, पौष्टिकता के लिए जरूरी था। कृषि खराब होने की दशा में पशुपालन से उपयोगी होता था। इससे गांव भी स्वावलम्बी बनते थे। पहले तो इस व्यवस्था को अंग्रेजो ने भी नष्ट किया, लेकिन उसके बाद आई सरकारों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। 70 साल बाद भी किसान सिंचाई के लिए परेशान है। उसे खाद के लिए भटकना पड़ता है।
 
बीते कुछ दिनों में जो किसानों के हालात बने हैं। वह सरकार और समाज दोनों के लिए चिंताजनक हैं। हालांकि आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं हो सकता है, लेकिन फिर जो घटनाएं हो रही हैं। उस पर सरकार को ध्यान देने की जरूरत है। किसानों की घटनाएं संवेदनशील हैं। इन पर कुछ कड़े कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। कृषि को फायदे का सौदा बनाने की जरूरत है। राज्य और केन्द्र सरकार को मिलकर कुछ ऐसा उपाय निकालना होगा, जिससे ऐसी घटनाओं पर रोक लगाई जा सके। इन मामलों को नियंत्रित करने के लिए सरकार को प्रभावी कदम उठाने चाहिए।
 
किसानों की खुदकुशी रोकने के लिए कारगर उपाय करने चाहिए। सीड एक्ट लागू किया जाए। किसानों को मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया जाए। किसान, फसल और पशुओं का मुफ्त बीमा हो। किसानों को 4 फीसदी की दर पर लोन मिले, साथ ही प्राकृतिक आपदा की स्थिति में बैंक कर्ज माफ हो। राज्यों में स्टेट फार्मर कमीशन बनाए जाने की आवश्यकता है। स्वामीनाथन की सिफारिशों को सरकार को लागू करना चाहिए। तो शायद कुछ आंकड़ों पर कमी आए। 
 
किसानों का मुनाफा बढ़ाने के लिए सस्ती दरों की फसलों को बढ़ावा देना चाहिए। 'कम खर्चे, अधिक मुनाफे' की खेती पर सरकार को बढ़ावा देना चाहिए। कृषि के साथ पशुपालन व स्थानीय सुविधाओं के कुटीर उद्योग को बढ़ाने हेतु अभियान चलाना होगा। सिंचाई और बाजार की सुविधाएं बढ़ानी होंगी। बेमौसम खेती को नहीं करना चाहिए। गांव के सारे विकास पर ध्यान देने की जरूरत है। आधुनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षक भेजने की आवश्यकता है, जिससे ऐसे आंकड़ों में कमी आ सके। 

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