Rules of Shraddha Karma: श्राद्ध कर्म में तर्पण, पिंडदान, दान, ब्राह्मण भोज और पंचबलि कर्म किया जाता है। इस कर्म से पितरों की तृप्ति होती है और उक्त कर्म से उन्हें सद्गति भी मिलती है। इससे श्राद्धकर्ता को पितृ ऋण और पितृ दोष से मुक्ति भी मिलती है। श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। हालांकि श्राद्ध करते समय जातक को 20 बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
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1. श्राद्धकर्म में गाय के का घी, दूध या दही का ही उपयोग करना चाहिए। यदि गाय को हाल ही में कोई बच्चा हुआ है तो उसके दूध का उपयोग नहीं करना चाहिए।
2. श्राद्ध में अर्घ्य, पिण्ड और भोजन आदि कर्म हेतु चांदी के बर्तनों का उपयोग पुण्यदायक है और असुरो नाशक है। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी देने से अक्षय तृप्तिकारक होता है।
3. श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन यदि एक हाथ से ला रहे हैं तो उसे राक्षस छील लेते हैं। इसलिए भोजन को दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए।
4. ब्राह्मण को मौन रहकर भोजन करना चाहिए और भोजन की प्रशंसा नहीं करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करते हैं।
5. जो पितृ किसी शस्त्र या आयुध आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे उन्हें मुक्ति मिलती है। इस श्राद्ध को गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पहने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।
6. श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जिसके कई कारण है। जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते और श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मणहीन श्राद्ध से श्राद्ध का फल न पितरों को और न ही श्राद्धकर्ता को मिलता है।
7. श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा राक्षसों से बचाते हैं। श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल।
8. दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। अपवित्र भूमि, श्मशान और देव स्थान पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
9. देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय नहीं सोचा जाता परंतु पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है। यदि कोई योग्य ब्राह्मण नहीं हो तो बटुकों को भोजन कराएं।
10. यदि कोई जातक एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता है तो उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते हैं।
11. श्राद्ध का भोजन करते समय यदि कोई भूखा या भिखारी द्वार पर आ जाए तो उसे आदरपूर्वक बैठाकर भोजन करवाना चाहिए। घर आए याचक को भगा देने से श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।
12. शुक्लपक्ष में, रात्रि में, एक ही दिन दो तिथियों के योग में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। सायंकाल का समय असुर और राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
13. दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है। इसके अलावा रोहिणी में, मध्याह्न काल में और अभिजीत मुहूर्त में श्राद्ध कर सकते हैं।
14. तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।
15. रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
18. चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।
19. यदि श्राद्ध कर्म करने की क्षमता नहीं है या इसके लिए धन नहीं है तो केवल शाक (हरी सब्ज़ी) से श्राद्ध कर्म कर सकते हैं। जल अर्पण करके भी श्राद्ध कर सकते हैं।
20. यदि शाक के द्वारा भी श्राद्ध संपन्न करने का सामर्थ्य ना हो तो शाक के अभाव में दक्षिणाभिमुख होकर आकाश में दोनों भुजाओं को उठाकर निम्न प्रार्थना करने मात्र से भी श्राद्ध की संपन्नता शास्त्रों द्वारा बताई गई है।
'न मेऽस्ति वित्तं धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्न्तोऽस्मि।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य।।'
(विष्णु पुराण)
- हे मेरे पितृगण..! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है। मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं। आप तृप्त हों। मैंने शास्त्र के निर्देशानुसार दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।
हमारे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्धकर्म संपन्न करना चाहिए। सामर्थ्य ना होने पर ही उपर्युक्त व्यवस्था का अनुपालन करना चाहिए। आलस एवं समयाभाव के कारण उपर्युक्त व्यवस्था का सहारा लेना दोषपूर्ण है।