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काफ़ी दिलचस्प है न्यूज़ीलैंड के खोजे जाने की कहानी

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गुरुवार, 29 नवंबर 2018 (11:33 IST)
- एल्फ़ी शॉ (बीबीसी अर्थ)
 
अगर किसी से ये सवाल किया जाए कि न्यूज़ीलैंड की खोज किसने की तो कई लोग बिना पलक झपकाए जवाब देंगे- कैप्टन जेम्स कुक। यूरोपीय इतिहासकारों के इस नज़रिये ने लोगों के दिमाग़ में इतनी गहरी पैठ बना ली है कि उसे हक़ीक़त की ठोकर से हिला पाना भी मुमकिन नहीं।
 
यूरोपीय इतिहासकारों की बात करें तो न्यूज़ीलैंड को सबसे पहले डच नाविक एबेल तस्मान ने 13 दिसंबर 1642 को देखा था। और पहली बार इस पर क़दम रखे ब्रिटेन के कैप्टन जेम्स कुक ने 1769 में।
 
 
लेकिन पूरी कहानी ये नहीं है। न्यूज़ीलैंड की शुरुआती खोज का श्रेय माओरी लोगों को दिया जाना चाहिए। ये लोग पॉलीनेशिया के द्वीपों पर रहने वाले आदिवासी हैं। न्यूज़ीलैंड पर माओरी लोगों ने 1250 से 1300 ईस्वी के बीच पहली बार डेरा जमाया था।
 
 
कौन थे माओरी लोग?
न्यूज़ीलैंड, ओशियानिया नाम के भौगोलिक क्षेत्र में सबसे नीचे स्थित है। ओशियानिया छोटे-बड़े हज़ारों जज़ीरों का समूह है जो दक्षिणी प्रशांत महासागर के अपार विस्तार में फैले हुए हैं। इन द्वीपों को प्रशांत महासागर के बाशिंदों ने यूरोपीय अन्वेषकों के खोजने से बहुत पहले तलाश कर इन पर अपना आशियाना बना लिया था।
 
 
प्रशांत महासागर के इन आदिम वासियों के समुद्री सफ़र, नए ठिकानों की खोज और संस्कृति पर लंदन की रॉयल एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स ने ओशियानिया के नाम से शो बनाया है। इस शो में जो तमाम चीज़ें रखी गई हैं, उनमें से एक है टैंगोंगे। ये लकड़ी की एक मूर्ति होती है जो किसी पुरखे या भगवान की मानी जाती है।
 
 
इसे 1920 में कैताइया नाम के एक क़स्बे के पास खोजा गया था। ये टैंगोंगे चौदहवीं सदी की मानी जाती हैं। लेकिन, उस दौर के माओरी लोगों की बनाई चीज़ों से इसकी बनावट अलग है बल्कि ये ताहिती शिल्पकला से ज़्यादा मिलती-जुलती है।
 
 
यूरोपीय लोगों और माओरियों की बीच जंग
जब यूरोपीय लोग पहली बार न्यूज़ीलैंड पहुंचे थे तो उनकी माओरी मूल निवासियों से भिड़ंत हो गई थी। जेम्स कुक की टोली के साथ हुई इस हिंसक झड़प में कई माओरी मारे गए थे। बाहरी दुनिया के लोगों से पहली बार जो ये साबक़ा पड़ा था, उसका असर माओरी सभ्यता पर आज तक देखा जा सकता है।
 
 
गिसबोर्न में लगी जेम्स कुक की मूर्ति को कई बार बदरंग किया जा चुका है। इस पर माओरी लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति के चित्र उकेर देते हैं। माओरी कलाकार लिज़ा रिहाना की बनाई हुई एक डॉक्युमेंट्री-परसूट ऑफ वीनस में कैप्टन जेम्स कुक के प्रशांत महासागर के अभियान को बड़े शानदार ढंग से दर्शाया गया है।
 
 
32 मिनट के इस वीडियो को भी लंदन के रॉयल एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स में दिखाया गया। इसमें यूरोपीय अन्वेषकों और प्रशांत महासागर के आदिवासियों का आमना-सामना होने की दास्तान तस्वीरों के ज़रिए दिखाई गई है।

 
ऑक्टोपस वाली कहानी
माओरी समाज की पौराणिक कहानी के मुताबिक़ न्यूज़ीलैंड, जिसे माओरी लोग एओटियारोआ कहते हैं कि तलाश कुपे नाम के एक मछुआरे ने रंगातिरा नाम के जनजातीय मुखिया के साथ मिलकर की थी। ये लोग हवाईकी के रहने वाले थे। कुपे के मछली मारने के ठिकानों पर ऑक्टोपस हमला कर रहे थे। वो मछलियों को फंसाने के लिए डाला गया चारा खा जाते थे।
 
मछुआरों ने इसका ये मतलब निकाला कि ये ऑक्टोपस एक और जनजाति के मुखिया मुतुरांगी के हैं। तब कुपे ने मुतुरांगी से कहा कि वो अपने पालतू जानवर को उसका मछलियों को फांसने के लिए डाला जाने वाला चारा खाने से रोके। जब मुतुरांगी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, तो कुपे ने उस ऑक्टोपस को मार डालने की क़सम खाई।
 
 
वो अपना घर-बार छोड़कर ऑक्टोपस की तलाश में निकल पड़ा। प्रशांत महासागर में ऑक्टोपस की तलाश के दौरान ही कुपे न्यूज़ीलैंड के द्वीपों पर जा पहुंचा। वहां कुपे और रंगातिरा उतरे और अपनी नाव पर खान-पान की चीज़ें रखीं। इसके बाद ऑक्टोपस से कुपे और रंगातिरा की भयंकर समुद्री लड़ाई हुई।
 
 
माओरी क़िस्से के मुताबिक़ ये लड़ाई रौकाला यानी आज की कुक जलसंधि पर हुई थी। यहां पर आख़िरकार कुपे ने मुतुरांगी के पालतू ऑक्टोपस को मारने में कामयाबी हासिल की। इस जीत के बाद कुपे ने न्यूज़ीलैड के उत्तरी द्वीप का चक्कर लगाया और कई ठिकाने का नामकरण किया।
 
 
कुपे ने क़सम खाई कि वो अपनी तलाश की हुई इस नई ज़मीन पर दोबारा क़दम नहीं रखेगा। इस क़िस्से से साफ़ है कि न्यूज़ीलैंड पर क़दम रखने वाला पहला इंसान कुपे था।
 
 
जब पहाड़ को समझा गया व्हेल
अब चूंकि ये पौराणिक कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी ज़बानी तौर पर सुनाई जाती रही है। नतीजा ये हुआ है कि हर द्वीप पर इसमें कुछ न कुछ हेर-फेर भी सुनने को मिलता है।
 
 
माओरियों के इवी यानी क़बीलों के क़िस्से अलग-अलग हैं। जैसे कि जब कुपे ने पहली बार न्यूज़ीलैंड को देखा तो नगाति कुरी के क़िस्से के मुताबिक़, उसने हौहोरा पहाड़ को व्हेल समझ लिया था। वहीं नगाति काहू की कहानी के मुताबिक़, वो ज्वार की वजह से होकियांगा बंदरगाह पर जा पहुंचा था।...शायद इसकी वजह ये है कि तमाम आदिवासी क़बीले अपनी-अपनी तरह से ख़ुद को कुपे के सब से क़रीबी वंशज बताना चाहते हैं।
 
 

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