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विरोध की कमजोर नींव पर खड़ी विपक्षी एकता

डॉ. नीलम महेंद्र
देश के वर्तमान राजनीतिक पटल पर लगातार तेजी से बदलते घटनाक्रमों के अंतर्गत ताजा घटना आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे पर वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान को आधार बनाकर तेलुगूदेशम पार्टी के दो केंद्रीय मंत्रियों का एनडीए सरकार से उनका इस्तीफा है। एक आर्थिक मामले को किस प्रकार राजनीतिक रंग देकर फायदा उठाया जा सकता है, यह चन्द्रबाबू नायडू ने अपने इस कदम से इसका एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है, क्योंकि जब केन्द्र सरकार आन्ध्र प्रदेश को विशेष पैकेज के तहत हरसंभव मदद और धनराशि दे रही थी तो 'विशेष राज्य' के दर्जे की जिद राजनीतिक स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ और क्या हो सकती है।


कहना गलत नहीं होगा कि पूर्वोत्तर की जीत के साथ देश के 21 राज्यों में फैलते जा रहे भगवा रंग की चकाचौंध के आगे बाकी सभी रंगों की फीकी पड़ती चमक से देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों को अपने वजूद पर संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे हैं। मोदी नाम की तूफानी बारिश ने जहां एक तरफ पतझड़ में भी केसरिया की बहार खिला दी, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस जैसे बरगद की जड़ें भी हिला दीं।

आज की स्थिति यह है कि जहां तमाम क्षेत्रीय पार्टियां अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए एक-दूसरे में सहारा ढूंढ रही हैं तो कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी इसी का जवाब ढूंढने की जद्दोजहद में लगा है। जो उम्मीद की किरण उसे और समूचे विपक्ष को मध्य प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों के परिणामों में दिखाई दी थी वो पूर्वोत्तर के नतीजों की आंधी में कब की बुझ गई।

यही कारण है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्दशेखर राव ने हाल ही में कहा कि देश में एक गैर भाजपा और गैर कांग्रेस मोर्चे की जरूरत है और उनके इस बयान को तुरंत ही बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और ओवैसी जैसे नेताओं का समर्थन मिल गया। शिवसेना पहले ही भाजपा से अलग होने का ऐलान कर चुकी है। इससे पहले, इसी साल के आरंभ में शरद पवार भी तीसरे मोर्चे के गठन की ऐसी ही एक नाकाम कोशिश कर चुके हैं।

उधर मायावती ने भी उत्तर प्रदेश के दोनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी को समर्थन देने की घोषणा करके अपनी राजनीतिक असुरक्षा की भावना से उपजी बेचैनी जाहिर कर दी है। राज्य दर राज्य भाजपा की जीत से हताश विपक्ष साम दाम दंड भेद से उसके विजय रथ को रोकने की रणनीति पर कार्य करने के लिए विवश है, लेकिन कटु सत्य यह है कि दुर्भाग्य से भाजपा का मुकाबला करने के लिए इन सभी गैर भाजपा राजनीतिक दलों की एकमात्र ताकत इनका वो वोटबैंक है जो इनकी उन नीतियों के कारण बना जो आज तक इनके द्वारा केवल अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती रही हैं, न कि राष्ट्रहित को।

हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि 'पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक' वोट बैंक वाली ये सभी पार्टियां यदि मिल जाएं तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती हैं, लेकिन एक सत्य यह भी है कि जाति आधारित राजनीतिक जमीन पर खड़े होकर अपने वोट बैंक को राजनीतिक सत्ता में परिवर्तित करने के लिए, जनता को अपनी ओर आकर्षित करना पड़ता है, जिसके लिए इनके पास देश के विकास का कोई ठोस प्रपोजल या आकर्षण नहीं है। आज की जनता भी इस बात को समझ रही है कि अपने-अपने इसी वोट बैंक और संकीर्ण राजनीतिक जमीन के बल पर इन सभी दलों के एकजुट होने का एकमात्र लक्ष्य अपनी राजनीतिक सत्ता बचाना है।

इनके संयुक्त होने के एजेंडे का मूल देश का विकास करना नहीं अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते 'बीजेपी को हराना' है। एक ओर भाजपा अपने राष्ट्रव्यापी लक्ष्यों का विस्तार करती जा रही है तो दूसरी ओर तमाम विरोधी दल अभी तक 'मोदी विरोध' के अलावा अपना कोई 'सांझा लक्ष्य' न तो ढूंढ पा रहे हैं और न ही देश के सामने स्वयं को भाजपा के एक बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर पा रहे हैं। विपक्ष की मानसिक स्थिति की दयनीयता इसी बात से जाहिर हो रही है कि वो यह नहीं समझ पा रहा कि भाजपा को हराने के लिए आवश्यक है कि जब इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की 'योजनाओं' और 'विचारधारा' के मूल में देश के आम आदमी को अपना भविष्य दिखाई देगा, तभी वो इसे चुनेगा, लेकिन आज की हकीकत यह है कि इनकी एकता की 'योजनाओं' में देश का बच्चा भी इनका खुद का स्वार्थ देख पा रहा है।

एक तरफ इन कथित सेक्यूलर पार्टियों के लिए आज अपने ही वोट बैंक में अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने का संकट है तो दूसरी तरफ भाजपा अपने हिन्दू एजेंडे के साथ आगे बढ़ते हुए पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्य के लोगों के दिलों को जीतने में भी कामयाब रही। वो इन राज्यों में यह संदेश देने में सफल रही कि 'गोरक्षा और बीफ' दो अलग-अलग मुद्दे हैं जिन्हें एक-दूसरे के बीच नहीं आने दिया जाएगा। विपक्ष समझ ही नहीं पाया कि कब मोदी की 'सबका साथ सबका विकास' के नारे की वजह से उनका 'वोट बैंक' उनका नहीं रहा।

इससे पहले जब ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल अपने-अपने वोट बैंक के मद्देनजर इस मसले पर फूंक-फूंककर कदम रख रहे थे, तो वहीं बीजेपी खुलकर इसके खिलाफ खड़ी थी जिसके परिणामस्‍वरूप  यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों में पूरे देश ने सभी विपक्षी दलों के अल्पसंख्यक वोट बैंक के गणित की धज्जियां उड़ती देखीं। और अब मोदी सरकार ने जो 'विकास' का घोड़ा उज्ज्वला योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत अभियान के तहत घर-घर में शौचालय निर्माण, स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाओं के नाम पर दौड़ाया है, उसके कदमों की धूल में विपक्ष का बचाखुचा वोट बैंक भी धराशायी होने को है।

जरूरत इस बात की है कि विपक्ष इस बात को समझे कि 'संकीर्ण सोच और संकरे रास्ते (शार्टकट्स) बड़ी सफलताओं तक नहीं पहुंचाते। वैसे कहते हैं कि हर बात में कोई अच्छाई छुपी होती है। हो सकता कि वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद केवल बीजेपी को हराने और खुद चुनाव जीतने के उद्देश्य से उपजी विपक्ष की यह एकता देश के सामने इनकी असलियत लाए और देशवासी यह समझे कि उन्हें जाति और धर्म के नाम पर बांटने वाले अपनी मतभिन्नताओं के बावजूद स्वार्थवश एक हो सकते हैं तो विकास के नाम पर देशहित में देशवासी भी जाति और धर्म को भुलाकर एक हो सकते है।

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