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shree krishna : कान्हा, तेरे होंठों की बंसी बना ले मुझे, मेरा जन्म सफल हो जाए

डॉ. छाया मंगल मिश्र
भारतीय सनातन परम्परा में ईश्वर को ‘कर्तुम् अ कर्तुम्, अन्यथा कर्तुम् समर्थः’अर्थात होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी करने में समर्थ बताया गया है। इसी आधार पर यदि भगवान मुझे अंग्रेजी उपन्यास ‘द टाइम मशीन’ की तर्ज पर ‘टाइम ट्रेवल’ की अनुमति दे दे और मुझे द्वापर युग के अंत में ले जा कर श्रीकृष्ण की किसी एक प्रिय वस्तु के रूप में पुनर्जन्म का अवसर दे, तो मैं बनना चाहूंगी श्री कृष्ण की अतिप्रिया बांसुरी। 
 
और कहती श्री कृष्ण से-कान्हा तेरे होंठों की बंसी बना ले मुझे, मेरा जन्म सफल हो जाए। वही बांसुरी जो शिव जी ने भेंट की थी तुम्हें। महान त्यागी महर्षि दधीच की अस्थियों की बनी। जिसमें तुम्हारे ही साथ नाद या शब्द ब्रह्म का पूर्ण अवतार तुम्हारी वंशी के रूप में हुआ। 
 
इसी शब्दरूपी नाद को अपनी वंशी-ध्वनि द्वारा वृन्दावन के स्थावर-जंगम सभी प्राणियों में, पशु-पक्षियों में, पत्ते-पत्ते में, कण-कण में और अणु-अणु में भर दिया।

मैं वही बांसुरी बनूं जिसकी  ध्वनि कामबीज है, यह काम भगवत्-काम है इसलिए साक्षात् भगवत्स्वरूप ही है। वही बांसुरी जबकामदेव का गर्व चूर करने वाले मनमोहन, भक्तों में इस कामबीज का वितरण कर उन्हें अपनी ओर खींच लेते हैं। अपनी आह्लादिनी सुधा के आनन्द को ही वंशीध्वनि द्वारा व्रज के उन लोगों में वितरित किया जो तप और वैराग्य द्वारा कामविजयी थे। भगवान तुम जो  उनसे सर्वस्व का मोह छुड़ाकर उन्हें सहसा आकर्षित कर लेते हो वही पुण्य बांसुरी। 
 
हे माधव, तुम्हारे हाथों में बेहद नजाकत और गर्व से इठलाती, क्योंकि शायद तब मैं मानती कि मैने बड़े तप किए हैं, जीवन भर मैंने शीत का कंपन, वर्षा के प्रहार और ग्रीष्म की ज्वाला में अपने तन को तपाया, काटी गयी, शरीर को सात/नौ/बारह छिद्रों में छिदवाया, हृदय में कोई गांठ न रखकर हृदय को शून्य कर दिया। जो मन को शान्त रखकर दु:ख सहन करता है, वही तो तुम्हें बहुत को बहुत भाता है, उस जीव पर तुम जल्दी कृपा करते हो। 
 
इसलिए तुमने मुझे अपनाया। मेरे कोई भी नाम होते.बांसुरी, वंसी, वेणु, वंशिका आदि कोई भी सुंदर नाम, पर पहचानी तो मनमोहना से ही जाती। 
 
कहते हैं कि तुम, हे माखन चोर, रास रचैय्या, गोपाला, त्रिलोकी स्वामी तीन प्रकार की बांसुरी अपने पास रखते थे। ‘मुरली’जो सात छेदों की होती थी। जब भी उसे बजाते तो ये सारा भौतिक संसार और गायें आकर्षित हो तुम्हारे पास चली आतीं थीं।‘वेणु’-जो नौ छेदों की होती जिसकी धुन पर तुम गोपियों और राधारानी को मुग्ध कर देते। 
 
जिसकी धुन से वो सम्मोहित हो अपनी अष्ट सखियों के साथ रास रचाने के लिए, सुध-बुध खो कर दौड़ी चली आतीं। वंशी -जिसमें बारह छेद होते जिसकी शक्ति से पेड़, नदी, जंगलों, वायु आदि तक को स्थिर कर दिया करते। 
 
हे कमल नयन, मेरे सांवरे चाहे बांसुरी शिव की भेंट वाली रखते या बांस की बनी हुई। वो मैं ही होती। यही मेरी अंतिम अभिलाषा है। क्योंकि मैं कभी अकेली नहीं बोलती, तुम्हें जो पसन्द है,  तुम जो ध्वनि निकालना चाहते, वही बोलती, क्योंकि तुम तो ठहरे जादूगर, चित-चोर. जब तुम फूंकते मुझे और तब मैं ऐसा बोलती कि सुनने वाला डोल उठता मेरा शब्द सुनकर। नाग भी डोलने लगता और हिरण भी तन्मय हो जाता अर्थात् सज्जन दुर्जन सभी को सुख मिलता। 
 
करील के सघन कुंजों मेंआनन्दविह्वल उन्माद में जब रागिनी छेड़कर नाचते, तो एक साथ ही पैंजनी, करधनी और मुरली एक दिव्य लास्य में बज उठती, घुंघराली केशराशि हवा के झोंके में लहराकर कभी कुण्डल को ढक लेती और कभी वंशी को छू लेती। कभी पीतपट की फहरान तो कभी सुकोमल चरणों के तलवों की प्यारी-प्यारी लाली प्राणों को चुरा ले जाती।  
 
तकरार होने पर राधा जी नाराज हो, तुमसे मुझे चुरा कर जब छुपा ले जातीं और तुम चिरौरी करते राधाजी की, उनको मनाते, पूछते रहते ‘राधिके तूने बंसुरी चुराई.... और मैं देखती तुम्हे कि कैसे तुम राधा रानी के संग होते हुए भी मुझे नहीं छोड़ पा रहे, नहीं भूल पा रहे। तभी तो सूरदास जी ने मेरे लिए ही कहा होता -
 
‘जब हरि मुरली अधर धरत, थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं, जमुना जल न बहत’
-(सूरसागर-1/1238).
 
मुरली के रूप में मैं और तुम एक दूसरे के पर्याय होते... मेरे बिना तुम मुरलीधर हो ही नहीं पाते। मेरे बिना तुम्हारे बालजीवन से लेकर मथुरा जाने तक की लीला अधूरी होती। मेरे बिना तुम्हारी कल्पना भी नहीं हो पाती। मैं ही नाद रूपी ब्रह्म से सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित करती। हे नन्दनन्दनानंद, यशोदानन्द, आनंदकंद, मैं इठलाती क्योंकि भले ही तुमने सबसे छोटी उंगली के नखाग्र पर सात दिन/रात पर्वत उठा लिया था लेकिन हे गिरिराज धरण तुम्हें मुरलीधर बनने के लिए मुझे उठाने के लिए और मेरे शरीर से सम्मोहन के सात सुर निकालने के लिए दोनों हाथों की जरुरत पड़ती। 
 
छिद्रों से विदीर्ण मेरे हृदय में जब तुम अपनी नाजुक, सुंदर, सुकोमल ऊंगलियां स्पर्श करते हुए मधुर रागिनी छेड़ते तो मैं उस दर्द को भूल, अमृत पान सा आनंद पा स्वर्गिक सुख भोगती। जब लोग मेरी इस उपलब्धि का मुकाबला नहीं कर पाते तो अंत में मेरी ही शरण में आते हैं और आज तक यही गाते कि -सांवरे की बंसी को बजने से काम, कौन नहीं बंसी की धुन का गुलाम....अजर अमर हो जाती... भले ही महादेव ने अपनी जटाओं से अमृत बहाया हो लेकिन मैं दिखने में निर्जीव होते हुए भी तुम्हारी प्राणवायु से ऐसी स्वर गंगा बहाती कि स्वयं आदिशक्ति स्वरुपा राधा की गति भी ऐसी हो जाती कि ‘बंसी बाजेगी, राधा नाचेगी... 
 
मैं ही एक ऐसी होती जिसे न संगत की जरुरत होती न पंगत की। न जीव की जरुरत होती न जगत की क्योंकि जुड़ा होता मेरा नाता तो केवल उस परमब्रह्म के मुख से जिसकी किलकारियों ने कभी गोकुल को निहाल कर दिया, तो उसी मुख में जसोदा मां को सारा ब्रह्माण्ड दर्शा दिया  था। जिसके गीता ज्ञान ने आज तक विश्व को धन्य कर  रखा है। मुझमें पार्थसारथी की वही फूंक बसती जो बाद में पांचजन्य के माध्यम से गूंजी थी। फिर भी वह पांचजन्य फूंकने वाला, उद्धव के सामने मेरी ही याद करता...और मैं ही वह सौभाग्यशालिनी होती, बड़भागिनी होती जो मोर, मुकुट के साथ साक्षात् परमेश्वर का का प्रतीक बन जाती. यदि मैं बंसी/बांसुरी/वेणु/वंसी/वंशिका होती....
मैं प्रेम में निमग्न हो जाती हूं जब एक बंगाली गीत में गोपी के मुख से सुनती हूं- 'अपने आंगन में कांटे बिखेरकर मैं उसके ऊपर चलने की आदत बना रही हूं। क्योंकि उसकी मुरली सुनकर मुझे दौड़ना पड़ता है और यदि मार्ग में कांटे हों तो शायद एकाध बार मुझे रुकना पड़ेगा। यदि आदत हो तो अच्छा रहेगा।'
 
'अपने आंगन में पानी डालकर मैं खूब कीच बना देती हूं और मैं उस कीच में चलने का अभ्यास करती हूं। क्योंकि उसकी मुरली सुनते ही मुझे जाना पड़ता है और यदि मार्ग में कीचड़ हुआ तो परेशानी होगी, लेकिन यदि आदत हुई तो भाग निकलूंगी।'

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