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जीत की प्रचंडता में कहीं गुम न हो जाए विपक्ष

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मंगलवार, 28 मई 2019 (11:37 IST)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एकतरफा जीत ने विपक्ष को गहरा आघात दिया है. दुर्बल विपक्ष के सामने अपना वजूद ही नहीं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाने की भी सघन चुनौती है. वह आखिर किस बूते खुद को बदलेगा?
 
 
सभी विपक्षी दलों को नई संसद में सत्ताधारी एनडीए गठबंधन से करीब आधी सीटें ही मिल पाई हैं। कांग्रेस की 52 सीटें हैं और वाम की पांच। पुराने क्षेत्रीय दलों में डीएमके ही अपना असर बचा पाई। नए में जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस उभर कर आई है। बीजू जनता दल को छोड़ आरजेडी, सपा, बसपा, तृणमूल, एनसीपी आदि पुराने क्षेत्रीय दल ढह गए। एक ओर अधिकांश क्षेत्रीय ताकतों का दमखम कम हुआ तो दूसरी ओर नई क्षेत्रीय ताकतों के उभार ने यह संकेत भी दिया कि भारत में अब भी क्षेत्रीय राजनीति की स्पेस कम नहीं हुई है। ये बात अलग है कि केंद्र की सत्ता बनाने या बिगाड़ने में उनकी भूमिका पहले से कम हुई है।
 
 
ज्यादातर पार्टियां पारिवारिक दायरे या उत्तराधिकार या एक व्यक्ति की छत्रछाया में चल रही हैं। 2019 के चुनावों में बेशक कई राज्यों में क्षेत्रीय दल बीजेपी और नरेंद्र मोदी के सामने टिक नहीं पाए लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी को हिंदी पट्टी के अधिकतर राज्य, बंगाल और कर्नाटक छोड़ दें तो कुछ वैसी स्थितियों में भी लाभ हुआ है, जहां उसने क्षेत्रीय दलों से गठबंधन किए हैं जैसे बिहार और महाराष्ट्र।
 
 
असल में इन चुनावों में ये तो और अधिक साफ हुआ है कि परिवारवाद के खोल से बाहर आए बगैर राजनीतिक दल बने नहीं रह पाएंगें। जयललिता के निधन के बाद एआईएडीएमके की स्थिति देखी जा सकती है। टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडु भी परिवार के मोह से नहीं निकल पाए। जेल की सजा काट रहे आरजेडी संस्थापक लालूप्रसाद यादव जैसे प्रखर नेता के बिना पार्टी में आज जो सन्नाटा पसरा हुआ है, वह दरअसल परिणति की तरह है- काश लालू भी इसे समझते और पार्टी की कमान यादव परिवार के बाहर किसी नेता को सौंप पाते। या यूपी में सपा जिस स्थिति से गुजर रही है, वो मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश और अब तक सांसद बनते आ रहे उनके परिवार के अन्य लोगों के लिए इतनी स्तब्धकारी न होती। बसपा और तृणमूल जैसे दलों की सेकंड लाइन कहां हैं, कोई नहीं जानता।
 
 
नरेंद्र मोदी ने इन दलों की इस कमजोर नस पर जोर से हाथ रखा है। इस मामले में कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल भी नहीं बच पाया जिस पर गांधी परिवार की मिल्कियत होने का आरोप ठप्पे की तरह लगा है। हां, वामदल जरूर ऐसे आरोपों की आंधी से बचकर खड़े रह सकते थे लेकिन शायद वे यही क्या किसी भी तरह की आंधी से लड़ने की तैयारी में भी नहीं थे, वरना नैतिक तौर पर बीजेपी जैसे दल को सबसे सशक्त चुनौती देने में आगे रह सकते थे।
 
 
हालांकि ये सवाल भी अपनी जगह है कि क्या आज कोई पार्टी, समस्त संसाधनों से संपन्न और आर्थिक रूप से सबसे सशक्त और मीडिया और प्रचार में समस्त ताकत झोंक देने वाली पार्टी का मुकाबला अपने सीमित और निरीह संसाधनों से कर सके। अभिभूत होकर जिसे आज प्रधानमंत्री का बड़ा करिश्मा बताया जा रहा है, उस माहौल में हमें ये बात भी याद रखनी चाहिए। दूसरी ओर, राजनीति में वंशवाद से सत्ताधारी एनडीए को परहेज रहा हो- ऐसा नहीं है वरना लोजपा नेता रामविलास पासवान और उनके बेटे आज बीजेपी लहर पर सवार न हुए होते या महाराष्ट्र में बीजेपी शिवसेना के साथ और पंजाब में अकाली दल के साथ न होती।
 
 
विपक्ष की चुनौतियों की बात करें तो हमें ये भी देखना होगा कि कौनसा विपक्ष। क्या कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय लेकिन एक परिवार की अध्यक्षता में चल रही पार्टी वाला विपक्ष, या क्षेत्रीय स्तरों पर पुश्तैनी राजनीतिक दलों का विपक्ष या फिर वामपंथी दलों का विपक्ष जो एक दशक बाद संसद से लगभग समाप्त हो चुका है। कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती यही है जिससे वो अभी जूझ रही है। राहुल गांधी अध्यक्षता छोड़ने पर अड़े हैं और उन्हें मनाया जा रहा है- जैसी कि खबरे आ रही हैं। यह राहुल का देर से ही सही उचित कदम है। मीडिया खबरों के मुताबिक वे नया अध्यक्ष ढूंढे जाने तक पद पर रहने को राजी हुए हैं। दूसरी बात कांग्रेस के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी बुनियादी विचारधारा से कभी अलग नहीं जा सकती। वह बीजेपी के हार्ड हिंदुत्व के जवाब में सॉफ्ट हिंदुत्व नहीं अपना सकती।
 
जातीय समीकरणों और सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पुराने पड़ चुके हैं। जनता अब जाति के अलावा उपस्थिति भी देखेगी। बीजेपी ने तमाम संसाधनों के सहारे अपनी उपस्थिति का आभास खूब कराया और फायदा भी उठाया लेकिन जिन राजनीतिक दलों के पास वैसे संसाधन नहीं हैं, उनके पास मेहनत और वर्कर और समर्पित काडर तो होना ही चाहिए कि वो खुद को झोंक दे। इन परिणामों के जरिए यह भी पता चलता है कि परिवारवादी राजनीति की मियाद और असर दूरगामी और स्थायी नहीं है। राजनीतिक विरासत पैतृक संपत्ति की तरह नहीं हो सकती कि पिता के बात वह पुत्र को मिल जाए। राजनीतिक जीवन के लिए महत्वाकांक्षा के साथ संघर्ष और अथक परिश्रम की जरूरत भी है। तभी कोई विरासत बन सकती है। आज विपक्ष के अधिकांश नेताओं को सबसे पहले इसी बात पर आत्मचिंतन करना चाहिए।
 
 
गांधी परिवार के इर्दगिर्द सिमट जाने और नाकाम रह जाने से कांग्रेस को यह सोचने का शायद अवसर मिले कि उसका आगामी रास्ता एक नए नेतृत्व और नई इच्छाशक्ति से होकर गुजरता है। लेकिन कांग्रेस को लेकर यह सोचकर खुश नहीं हुआ जा सकता कि चलो अच्छा हुआ सबक मिला। हमें चिंता भी करनी चाहिए कि कहीं कांग्रेस का आलस्य और उसका फायदा उठाकर दक्षिणपंथी उग्रता, देश की संवैधानिक मर्यादाओं और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को दूषित और बर्बाद न कर दे। दूसरी ओर दक्षिणपंथी राजनीतिक उभार के बीच वामपंथ के लिए भी यह एक निर्णायक इम्तहान का अवसर है। अगले पांच साल अगर सत्ता पक्ष के लिए नतीजे देने की चुनौती से भरे हैं तो विपक्षी दलों की चुनौती यही है कि उन्हें अपनी खोई जमीन वापस पानी होगी और खुद को पुनर्निमित करना होगा।
 
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
 

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