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जब चौराहों पर रखे होते थे मुदगल

अपना इंदौर
इंदौर में व्यायाम के शौकीनों के लिए चौराहों पर ही साधन उपलब्ध कराए गए थे, जहां व्यायाम के शौकीन अपनी समय सुविधानुसार व्यायाम किया करते थे। वैसे उन दिनों व्यायाम के शौकीनों तथा सैनिकों को सुबह-शाम नियमित व्यायाम करते देखना कोई अचरज की बात नहीं थी। उन दिनों ब्रजलाल उस्ताद का अखाड़ा काफी प्रसिद्ध था, जहां अंदर तो नियमित सदस्यों, जिन्हें पहलवान कहा जाता था, के लिए सभी साधन तथा सुविधाएं निःशुल्क थीं। साथ ही शौकीनों के लिए बाहर मुदगल रखी होती थी जिन्हें आने-जाने वाले एक-एक, दो-दो हाथ घुमाते हुए आगे बढ़ते थे।
 
वैसे उन दिनों कई घरों में भी मुदगलें हुआ करती थीं। इसी प्रकार मल्हारगंज के पास गोराकुंड की बावड़ी पर पत्थर की हसली रखी होती थी जिसे गले में डालकर उठक-बैठक लगाई जाती थी जिससे गर्दन में मजबूती तथा कसाव आता था। राजबाड़े के चारों बुर्जों के नीचे तो सभी सुविधाएं उपलब्ध रहती थीं जिसका उद्देश्य ही प्रजा को व्यायाम के प्रति प्रोत्साहित कर स्वस्थ एवं निरोगी रखना होता था।
 
प्रजा द्वारा भी इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग किया जाता था। बाहर से आने वाले यात्री, खरीद-फरोख्त के उद्देश्य से आए व्यापारी तथा छात्रों को वहां उपलब्ध मुदगल, जोड़ और हसलियों का उपयोग करते देखा जा सकता था। वैसे यदि कोई संकोची स्वभाव के व्यक्ति इस तरह सार्वजनिक रूप से व्यायाम नहीं करना चाहते तब उनके लिए कड़ावघाट पर मांगीलाल उस्ताद का अखाड़ा हुआ करता था, जहां व्यायाम के पश्चात अखाड़े में उतरकर दंगल में एक-दो हाथ करने की भी सुविधा उपलब्ध होती थी।
 
इंदौर में व्यायाम के शौकीन लोगों के कारण ही अखाड़ों की बड़ी धूम हुआ करती थी जिनका शौर्यपूर्ण प्रदर्शन देखने तथा दिखाने के लिए इंदौर में बाहर के प्रसिद्ध पहलवानों को बुलाकर दंगल का आयोजन किया जाता था। इन्हें प्रारंभ में कुश्ती के शौकीन राजाओं का यथेष्ट प्रोत्साहन मिला था जिनके रहते इन्हें गणेश उत्सव पर निकलने वाली झांकियों में आगे-आगे अपने कला, हुनर का दलबल के साथ शौर्य प्रदर्शन करने का अवसर मिलता।
 
सभी युवा, बुजुर्ग एवं बच्चे अपनी-अपनी श्रेष्ठता तथा कला चातुर्य का प्रदर्शन करते जिनके आधार पर इन्हें प्रथम, द्वितीय पुरस्कार प्रदान करने का भी प्रचलन रहा, जो आज भी उसी परंपरानुसार प्रचलित है। उन दिनों इन व्यायाम के शौकीनों एवं पहलवानों के कारण ही सराफे में भी काफी चहल-पहल हुआ करती थी, क्योंकि व्यायाम करने के बाद थकान होना स्वाभाविक था। अत: व्यायाम के पश्चात सराफे में जाकर दूध पीना भी इनकी दिनचर्या में शामिल होता था। तब सराफे में मिठाइयों के अतिरिक्त हलवाइयों के कड़ाहे भी इनका इंतजार कर रहे होते थे, जो रोज सुबह सूर्योदय के साथ तथा शाम को सूर्यास्त के बाद भट्टी पर चढ़ाकर दूध उबालने के काम में लाए जाते थे।

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