धर्मग्रंथ नहीं पढ़ पाने या बच्चों को बचपन में धार्मिक शिक्षा नहीं दे पाने के कारण वे हिन्दू धर्म को अच्छे से समझ नहीं पाते और जिंदगीभर वे गफलत में जीते हैं जिसके चलते उनके मन में बहुत सारे सवाल उत्पन्न होते हैं तथा हकीकत यह है कि उन सवालों के उन्हें उत्तर भी अलग-अलग मिलते हैं, क्योंकि सभी लोग उनके जैसे ही हैं, जो मनमाने या मन से उत्तर देने में निपुण हैं।
हमने यहां आपके मन में उत्पन्न हो रहे सभी सवालों में से 10 सवालों को प्रमुख रूप से लेकर उसके उत्तर को शास्त्र पढ़कर प्रस्तुत किया है। आप उनके बारे में अधिक से अधिक जानने का प्रयास करेंगे तो ज्ञानवर्धन होगा, क्योंकि यहां संक्षिप्त रूप में उत्तर दिए जा रहे हैं।
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पहला प्रश्न : क्या ईश्वर एक है या अनेक हैं? एक है तो क्या वह साकार है या निराकार है? यदि ऐसा है तो फिर देवी और देवता कौन हैं? फिर मंदिर में ईश्वर की प्रार्थना क्यों नहीं होती?
उत्तर : ईश्वर एक है और वह निराकार है। 'एकम् ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते किंचन' अर्थात ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं है, नहीं है, नहीं है, जरा भी नहीं है। -ब्रह्म सूत्र
ईश्वर के प्रतिनिधि देवी, देवता और भगवान हैं। देवताओं की मुख्य संख्या 33 बताई गई है, लेकिन उनके गण सैकड़ों हैं। राम और कृष्ण आदि देवता नहीं हैं, ये सभी भगवान हैं।
मंदिर, देवालय, द्वारा और शिवालय ये सभी अलग-अलग होते हैं, लेकिन आजकल सभी को मंदिर माना जाता है। ईश्वर या परब्रह्म को पुराणों में शिव या सदाशिव के नाम से जाना गया है। मंदिर में जाकर भी निराकार ईश्वर के प्रति संध्यावंदन की जाती है।
ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ईश्वर एक ही है, अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं, वे सभी ईश्वर नहीं हैं।
'न तस्य प्रतिमा अस्ति' अर्थात उसकी कोई मूर्ति (पिक्चर, फोटो, छवि, मूर्ति आदि) नहीं हो सकती। 'न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम' अर्थात उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आंखों से देखा नहीं जा सकता। -छांदोग्य और श्वेताश्वेतारा उपनिषद।
'जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं, वह ईश्वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों द्वारा कोई सुन नहीं सकता किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राणशक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है उसे तू ईश्वर जान। प्राणशक्ति से चेष्टावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है।' 4, 5, 6, 7, 8। -केनोपनिषद।
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प्रश्न दूसरा : मूर्ति या देव पूजा करनी चाहिए या नहीं?
उत्तर : सृष्टि की सबसे पुरानी पुस्तक वेद में एक निराकार ईश्वर की उपासना का ही विधान है। चारों वेदों के 20,589 मंत्रों में कोई ऐसा मंत्र नहीं है, जो मूर्ति पूजा का पक्षधर हो।
न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस:। -(यजुर्वेद अध्याय 32, मंत्र 3)
अर्थात उस ईश्वर की कोई मूर्ति अर्थात प्रतिमा नहीं जिसका महान यश है।
अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते।
ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता:।। -(यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 9)
अर्थ : जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं, वे लोग घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं।
हालांकि उपरोक्त बातें ईश्वर संबंधी हैं, देव संबंधी नहीं। प्राचीनकाल में कलयुग के प्रारंभ में देवी और देवताओं के विग्रह रूप की पूजा होती थी। फिर श्रमण धर्म के प्रभाव के चलते 2,000 वर्ष पूर्व 33 देवता और देवियों सहित राम एवं कृष्ण आदि की मूर्तियां बनाकर पूजने का प्रचलन चला।
ओशो कहते हैं कि मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए। संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्चित ही वह सेतु मूर्त ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे।
मूर्तिपूजा का पक्ष : मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्तिपूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्तिपूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ही जीवन में सफलता का आधार है।
प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिरों के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि ये मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।
मूर्तिपूजा के पक्ष में पं. दीनानाथ शर्मा लिखते हैं- 'जड़ (मूल) ही सबका आधार हुआ करती है। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतापूर्वक उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है। परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रयस्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है। हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्तिपूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्याप्त चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं। आप जिस बुद्धि या मन को आधारभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं, क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है?
वैसे तो पूरा विश्व ही मूर्तिपूजक है। पंचभूतों से निर्मित किसी आकार पर श्रद्धा स्थिर करना मूर्तिपूजा है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, पुस्तक, आकाश इत्यादि सभी मूर्तिपूजा के अंतर्गत हैं। कौन मूर्तिपूजक नहीं है?
यह एक निर्विवाद सत्य यह है कि भारत में सबसे अधिक मूर्तियां हैं, मंदिर हैं किंतु भारत मूर्तिपूजक नहीं है। ये मंदिर व मूर्तियां आध्यात्मिक देश भारत में अध्यात्म की शिशु कक्षाएं हैं।
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प्रश्न तीसरा : धर्मग्रंथ वेद है या पुराण? वेदों की मानें या पुराण की?
उत्तर : हिन्दू धर्म के एकमात्र धर्मग्रंथ है वेद। वेदों के 4 भाग हैं- ऋग, यजु, साम और अथर्व। इन वेदों के अंतिम भाग या तत्वज्ञान को उपनिषद और वेदांत कहते हैं। इसमें ईश्वर संबंधी बातों का उल्लेख मिलता है। उपनिषद या वेदांत को ही भगवान कृष्ण ने संक्षिप्त रूप में अर्जुन को कहा जिसे गीता कहते हैं।
आम जनता द्वारा वेदों को पढ़ना और समझना संभव नहीं हो पाता इसलिए प्रत्येक हिन्दू को गीता पर आधारित ज्ञान या नियम को ही मानना चाहिए। गीता वेदों का संपूर्ण निचोड़ है।
वाल्मीकि रामायण, पुराण और स्मृति ग्रंथ को धर्मग्रंथ नहीं माना जाता है। ये सभी इतिहास और व्यवस्था के ग्रंथ हैं। महर्षि वेदव्यासजी ने कहा है कि जहां पुराणों की बातों में विरोधाभास या संशय नजर आता है या जो वेदसम्मत नहीं है, तो ऐसे में वेदों की बातों को ही मानना चाहिए।
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प्रश्न चौथा : क्या वर्ण व्यवस्था को मानना चाहिए या नहीं?
उत्तर : नहीं। वर्णाश्रम को गलत ही माना जाएगा, क्योंकि किसी भी काल में हिन्दू अपने धर्मग्रंथ पढ़कर इस व्यवस्था के सच को कभी नहीं समझा तो आगे भी इसकी कोई गारंटी नहीं। हर काल में इस व्यवस्था को आधार बनाकर राजनीति की जाती रही है।
व्यवस्था का धर्म से कोई संबंध नहीं। हम ऊपर पहले लिख आए हैं कि पुराण, रामायण और स्मृति ग्रंथ को हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं माना जाता जा सकता। गीता ही एकमात्र धर्मग्रंथ है।
वर्णाश्रम किसी काल में अपने सही रूप में था, लेकिन अब इसने जाति और समाज का रूप ले लिया है, जो कि अनुचित है। प्राचीनकाल में किसी भी जाति, समूह या समाज का व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास बन सकता था। पहले रंग, फिर कर्म पर आधारित यह व्यवस्था थी, लेकिन जाति में बदलने के बाद यह विकृत हो चली है।
उदाहरणत:, चार मंजिल के भवन में रहने वाले लोग ऊपर-नीचे आया-जाया करते थे। जो ऊपर रहता था वह नीचे आना चाहे तो आ जाता था और जो नीचे रहता था वह अपनी योग्यतानुसार ऊपर जाना चाहे, तो जा सकता था। लेकिन जबसे ऊपर और नीचे आने-जाने की सीढ़ियां टूट गई हैं, तब से ऊपर का व्यक्ति ऊपर और नीचे का नीचे ही रहकर विकृत मानसिकता का हो गया है।
।।जन्मना जायते शूद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते। -मनुस्मृति
अर्थात मनुष्य शूद्र के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज (ब्राह्मण) बनता है।
मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यत:।' अर्थात ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।
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प्रश्न पांचवां : सैकड़ों त्योहार, पर्व, उत्सव और व्रतों में से कौन-सा धर्मसम्मत है?
उत्तर : त्योहार, पर्व, उत्सव, उपवास और व्रत सभी का अर्थ अलग-अलग है। उक्त सभी में से हम 2 को चुनते हैं- उत्सव और व्रत। हिन्दू धर्म के सभी उत्सव और व्रत का संबंध सौर मास, चन्द्र मास और नक्षत्र मास से है। इसके अलावा किसी की जयंती होती।
उत्तरायन सूर्य : सौर मास के अनुसार जब सूर्य उत्तरायन होता है, तब अच्छे दिन शुरू होते हैं। सूर्य जब धनु राशि से मकर में जाता है, तब उत्तरायन होता है इसलिए उत्सवों में मकर संक्रांति को सर्वोपरि माना गया है।
सूर्य के राशि परिवर्तन को संक्रांति कहते हैं। वर्ष में 12 संक्रांतियां होती हैं उनमें से 4 का महत्व है- मेष, कर्क, तुला और मकर संक्रांति। वृषभ, सिंह, वृश्चिक, कुंभ, संक्रांति विष्णुपद संज्ञक हैं। मिथुन, कन्या, धनु, मीन संक्रांति को षडशीति संज्ञक कहा गया है। मेष, तुला को विषुव संक्रांति संज्ञक तथा कर्क, मकर संक्रांति को अयन संज्ञक कहा गया है।
उत्तरायन का समय देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन का समय देवताओं की रात्रि होती है। वैदिक काल में उत्तरायन को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। मकर संक्रांति के बाद माघ मास में उत्तरायन में सभी शुभ कार्य किए जाते हैं। दक्षिणायन में सभी शुभ कार्य रोककर व्रत किए जाते हैं।
दक्षिणायन सूर्य : सूर्य जब दक्षिणायन होता है, तब व्रतों का समय शुरू होता है। व्रत का समय 4 माह रहता है जिसे चातुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में प्रथम श्रावण मास को सर्वोपरि माना गया है।
सौर मास 365 दिन का और चन्द्र मास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अंतर आ जाता है। इन 10 दिनों को चन्द्र मास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिकमास' कहते हैं। जिन्हें हम राशियां मानते हैं वे सभी सौर मास के माह के नाम हैं।
चन्द्रमास के नाम पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है:
1. चैत्र : चित्रा, स्वाति।
2. वैशाख : विशाखा, अनुराधा।
3. ज्येष्ठ : ज्येष्ठा, मूल।
4. आषाढ़ : पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा।
5. श्रावण : श्रवण, धनिष्ठा।
6. भाद्रपद : पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र।
7. आश्विन : आश्विन, रेवती, भरणी।
8. कार्तिक : कृतिका, रोहिणी।
9. मार्गशीर्ष : मृगशिरा, उत्तरा।
10. पौष : पुनर्वसु, पुष्य।
11. माघ : मघा, आश्लेषा।
12. फाल्गुन : पूर्वाफाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त।
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प्रश्न छठा : पूजा करना चाहिए या नहीं? मंदिर और घर में पूजा करने का फर्क क्या है?
उत्तर : पूजा और आरती शब्द से पहले संध्यावंदन और संध्योपासना शब्द प्रचलन में था। संधिकाल में ही संध्यावंदन करने का विधान है। वैसे संधि 8 वक्त की होती है जिसे 8 प्रहर कहते हैं। 8 प्रहर के नाम : दिन के 4 प्रहर- पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न और सायंकाल। रात के 4 प्रहर- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। उषाकाल और सायंकाल में संध्यावंदन की जाती है।
संध्यावंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। वेदज्ञ और ईश्वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ कि संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के 4 प्रकार हो गए हैं- 1. प्रार्थना-स्तुति, 2. ध्यान-साधना, 3. कीर्तन-भजन और 4. पूजा-आरती। व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा ही करता है।
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि घर में पूजा का प्रचलन मध्यकाल में शुरू हुआ, जबकि हिन्दुओं को मंदिरों में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालांकि घर में पूजा करने से किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं। घर में पूजा नित्य-प्रतिदिन की जाती है और मंदिर में पूजा या आरती में शामिल होने के विशेष दिन नियुक्त हैं, उसमें भी प्रति गुरुवार को मंदिर की पूजा में शामिल होना चाहिए। घर में पूजा करते वक्त कोई पुजारी नहीं होता जबकि मंदिर में पुजारी होता है। मंदिर में पूजा के सभी विधान और नियमों का पालन किया जाता है, जबकि घर में व्यक्ति अपनी भक्ति को प्रकट करने के लिए और अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए पूजा करता है। लाल किताब के अनुसार घर में मंदिर बनाना आपके लिए अहितकारी भी हो सकता है। घर में यदि पूजा का स्थान है तो सिर्फ किसी एक ही देवी या देवता की पूजा करें जिसे आप अपना ईष्ट मानते हैं।
गृहे लिंगद्वयं नाच्यं गणेशत्रितयं तथा।
शंखद्वयं तथा सूर्यो नार्च्यो शक्तित्रयं तथा।।
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्राम शिलाद्वयम्।
तेषां तु पुजनेनैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही।।
अर्थ- घर में 2 शिवलिंग, 3 गणेश, 2 शंख, 2 सूर्य, 3 दुर्गा मूर्ति, 2 गोमती चक्र और 2 शालिग्राम की पूजा करने से गृहस्थ मनुष्य को अशांति होती है।
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प्रश्न सातवां : भगवान राम और भगवान कृष्ण कब हुए थे?
उत्तर : अक्सर यह कहा जाता है कि भगवान राम तो लाखों वर्ष पहले हुए थे, लेकिन शोधार्थी और प्रमाण कहते हैं कि वे ईसा पूर्व 5114 वर्ष पूर्व हुए थे। इसका मतलब ये कि वे 5114+2016=7130 वर्ष पूर्व हुए थे। यह शोध वाल्मीकि रामायण में उल्लेखित ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति और संपूर्ण भारतवर्ष में बिखरे पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर हुआ।
लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। इस आधार पर ही यह समय निकाला जा सकता है। श्रीराम की ऐतिहासिकता पर यह शोध वैज्ञानिक शोध संस्थान आई सर्व ने किया। इस शोध की अगुवाई सरोज बाला, अशोक भटनागर और कुलभूषण मिश्र ने की थी। नए शोध के अनुसार 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ था।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म : भगवान श्रीकृष्ण ने विष्णु के 8वें अवतार के रूप में जन्म लिया था। 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के जब 7 मुहूर्त निकल गए और 8वां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न में देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज जनवरी 2016 से 5128 वर्ष पूर्व) श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। ज्योतिषियों के अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था।
आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी तभी से कलियुग का आरंभ माना जाता है। उनकी मृत्यु एक बहेलिए का तीर लगने से हुई थी। तब उनकी उम्र 119 वर्ष थी।
शोधकर्ताओं ने खगोलीय घटनाओं, पुरातात्विक तथ्यों आदि के आधार पर कृष्ण जन्म और महाभारत युद्ध के समय का सटीक वर्णन किया है। ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलीय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था। उस वक्त भगवान कृष्ण 55-56 वर्ष के थे। उन्होंने अपनी खोज के लिए टेनेसी के मेम्फिन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. नरहरि अचर द्वारा 2004-05 में किए गए शोध का हवाला भी दिया।
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आठवां प्रश्न : हजारों तीर्थ या धार्मिक स्थान हैं, उनमें से एकमात्र या प्रमुख तीर्थ कौन-सा है?
उत्तर : हिन्दुओं के लिए अयोध्या, मथुरा और काशी ही प्रमुख धार्मिक पवित्र स्थल हैं। उसमें से काशी तीर्थ स्थल है, तो अयोध्या राम का जन्म स्थल एवं मथुरा श्रीकृष्ण का जन्म स्थल है। उक्त 3 जगहों के दर्शन करना अतिमहत्वपूर्ण है।
जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थ से ही वैराग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थ में जाने का समय और नियम होता है।
तीर्थ हेतु चार धाम की यात्रा का विधान है। ये चार धाम हैं- बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी। उक्त चारों धामों की यात्रा के मार्ग में ही सप्तपुरी (काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति), द्वादश ज्योतिर्लिंग (सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर, बैद्यनाथ) और 51 शक्तिपीठों के दर्शन हो जाते हैं।
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नौवां प्रश्न : ज्योतिष को माने या नहीं माने?
उत्तर : ज्योतिष अद्वैत का विज्ञान है। प्राचीनकाल में यह खगोल विज्ञान, वास्तु विज्ञान और ग्रह-नक्षत्रों की गणना से जुड़ा था। उक्त काल में नक्षत्र के आधार पर धरती का मौसम और मानव पर उसके प्रभाव की गणना की जाती थी। नक्षत्र पर आधारित ही मानव का भविष्य जाना जाता था।
वर्तमान में ज्योतिष विद्या के कई भिन्न-भिन्न रूप प्रचलित हो गए हैं। अब इस विद्या के जानकार कम और इस विद्या से धनलाभ प्राप्त करने वाले बहुत मिल जाएंगे तो मनमाने उपाय बताकर लोगों को भटकाने और डराने का कार्य ज्यादा करते हैं। जो व्यक्ति इस तरह के ज्योतिष को मानता है वह कभी भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकता और वह अविश्वासी होकर संशय और गफलत में जीवन जीता है। ऐसे व्यक्ति में विश्वास और निर्णय लेने की क्षमता नहीं होती। वर्तमान का ज्योतिष ग्रह नक्षत्रों से डराने वाला ज्योतिष है। जो लोग वेद, ईश्वर और कर्म पर भरोसा करते हैं वे किसी से भी डरते नहीं है।
ऋग्वेद में ज्योतिष से संबंधित 30 श्लोक हैं, यजुर्वेद में 44 तथा अथर्ववेद में 162 श्लोक हैं। यूरेनस को एक राशि में आने के लिए 84 वर्ष, नेप्चुन को 1648 वर्ष तथा प्लुटो को 2844 वर्षों का समय लगता है। हमारे सौर मंडल में सभी ग्रहों के मिलाकर 64 चंद्रमा खोजे गए हैं और असंख्य उल्काएं सौर्य पथ पर भ्रमण कर रही हैं। अभी खोज जारी है, संभवत: चंद्रमा और उल्काओं की संख्याएं बढ़ेंगी।
वेदों में ज्योतिष के जो श्लोक हैं उनका संबंध मानव भविष्य बताने से नहीं वरन ब्रह्मांडीय गणित और समय बताने से है। ज्यादातर नक्षत्रों पर आधारित और उनकी शक्ति की महिमा से है। इससे मानव के वर्तमान और भविष्य पर क्या फर्क पड़ता है, यह स्पष्ट नहीं।
वेदों के उक्त श्लोकों पर आधारित आज का ज्योतिष पूर्णत: बदलकर भटक गया है। कुंडली पर आधारित फलित ज्योतिष का संबंध वेदों से नहीं है। भविष्य कथन के संबंध में वेद कहते हैं कि आपके विचार, आपकी ऊर्जा, आपकी योग्यता और आपकी प्रार्थना से ही आपके भविष्य का निर्माण होता है। इसीलिए वैदिक ऋषि उस एक परम शक्ति ब्रह्म (ईश्वर) के अलावा प्रकृति के पांच तत्वों की भिन्न-भिन्न रूप में विशेष समय, स्थान तथा रीति से स्तुति करते थे।
जो भी ज्योतिष या ज्योतिष विद्या नकारात्मक विचारों को बढ़ावा देकर भयभीत करने का कार्य करते हैं, उनका वेदों से कोई संबंध नहीं और जिनका वेदों से कोई संबंध नहीं उनका हिंदू धर्म से भी कोई संबंध नहीं। इसीलिए वर्तमान ज्योतिष विद्या पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है।
ज्योतिष अद्वैत का विज्ञान है। इस विज्ञान को सही और सकारात्मक दिशा में विकसित किए जाने की आवश्यकता है। यदि आप ज्योतिष विद्या के माध्यम से लोगों को भयभीत करते रहे हैं तो समाज अकर्मण्यता और बिखराव का शिकार होकर वेदोक्त ईश्वर के मार्ग से भटक जाएगा और कहना होगा कि भटक ही गया है।
प्राचीनकाल में ज्योतिषियों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। यही कारण है कि यज्ञ और श्राद्ध जैसे पवित्र कार्यों में उनकी उपस्थिति का निषेध किया गया है।
अत्रिसंहिता के अनुसार- ज्योतिर्विदो, श्राद्धे यज्ञे महादाने न वरणीयाः कदाचन (385)
श्राद्धं च पितरं घोरं दानं चैव तु निष्फलम् यज्ञे च फलहानिः स्यात् तस्मात्तान् परिवर्जयेत् (386) याविकः चित्रकारश्च वैद्यो नक्षत्रपाठकः, चतुर्विप्रा न पूज्यंते बृहस्पतिसमा यदि (387)
(अर्थात ज्योतिर्विदों को श्राद्ध, यज्ञ और किसी बड़े दान के लिए नहीं बुलाना चाहिए। इन्हें बुलाने से श्राद्ध अपवित्र, दान निष्फल और यज्ञ फलहीन हो जाता है। आविक (बकरीपाल), चित्रकार, वैद्य और नक्षत्रों का अध्ययन करने वाला, ये 4 तरह के ब्राह्मण यदि देवताओं के गुरू बृहस्पति के समान भी विद्वान हों, तो भी उनका सम्मान नहीं करना चाहिए।)
इसी प्रकार महाभारत में भी लिखा है- नक्षत्रैश्च यो जीवति, ईदृशा ब्राह्मण ज्ञेया अपांक्तेया युधिष्ठिर, रक्षांसि गच्छते हव्यमित्याहुर्बह्मवादिनः (महाभारत, अनु0 प0, अ0 90, श्लोक 11/12)
(जो ब्राह्मण नक्षत्रों के अध्ययन से जीविका चलाता हो, ब्राह्मणों को उसे अपनी पंक्ति में बैठ कर भोजन नहीं करने देना चाहिए। हे युधिष्ठिर, ऐसे व्यक्ति द्वारा खाया हुआ श्राद्ध भोजन राक्षसों के पेट में जाता है, न कि पितरों को।)
हिन्दू धर्म के सर्वाधिक चर्चित ग्रन्थ मनु स्मृति में भी इसी बात को दोहराया गया है- नक्षत्रैर्यश्च जीवति (162) एतान् विगर्हिताचारानपांक्तेयान् द्विजाधमान्, द्विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्र विवर्जयेत् (167, मनुस्मृति अ0 3)
(नक्षत्रजीवी लोग निंदित, पंक्ति को दूषित करने वाले और द्विजों में अधम हैं, इन्हें विद्वान द्विज देवयज्ञ और श्राद्ध में कभी भोजन न कराएं।)
उशना स्मृति के अनुसार ज्योतिष का काम ‘भिषक‘ नामक वर्ण शंकर जाति को सौंपा गया है-
नृपायां विप्रपश्चैर्यात् संजातो योभिशक् स्मृतः अभिषिक्तनृपस्याज्ञां प्रतिपाल्य तु वैद्यकः (26)
आयुर्वेदमथाष्टांगं तन्त्रोक्तं धर्ममांचरेत् ज्यौतिषं गतिणतंवौपि कायिकीं वृत्तिमाचरेत् (27
(ब्राह्मण पुरूष और क्षत्रिय कन्या के गुप्त प्रेम की संतान ‘भिषक‘ कहलाती है। यह दवा दारू अथवा गणित ज्योतिष के द्वारा अपनी आजीविका चलाए।)
नैषध चरितम् में ज्योतिष के बारे में लिखा है-
एकं संदिग्धयोस्तावद् भावि तत्रेष्टजन्मनि, हेतुमाहुः स्वमन्त्रादीनसांगानन्यथा विटाः (नैषध चरितम् 17-55)
(ये लोग संदिग्ध मामलों में से एक की भविष्यवाणी कर देते हैं। यदि इत्तेफाक से ठीक निकल आए तो उसे अपनी योग्यता का चमत्कार बताते हैं। यदि गलत निकले तो कह देते हैं- आप ने फलां पूजा, फलां पाठ ठीक से नहीं किया था, अतः ऐसा हुआ है। हमारी भविष्यवाणी तो ठीक ही है।)
विलिखति सदसद् वा जन्मपत्रं जनानाम्, फलति यदि तदानी दर्षयत्यात्मदाक्ष्यम् विषाखायाः, विविध भुजंगक्रीडासक्तां गृहिणीं न जानाति।
(जो ज्योतिर्विद आकाश में च्रद के विशाखा (नक्षत्र) के समागम की गणना करता है, उसे यह तो पता नहीं होता कि उस की घरवाली अनेक व्यभिचारी पुरूषों से समागम करती है।)
उपरोक्त उद्धरणों को पढ़ने के बाद यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि ज्योतिष किस प्रकार की विधा है और सभ्य समाज के लोगों को उसके साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए?
अगले पन्ने पर दसवां प्रश्न और उसका उत्तर...
प्रश्न: कितना प्राचीन है हिन्दू धर्म?
उत्तर : बहुत से लोग कहते हैं कि यह तो सृष्टि उत्पत्ति से चला आ रहा है और कुछ लोग कहते हैं कि यह लाखों वर्ष पुराना है, लेकिन क्या यह प्रेक्टिकल बातें हैं?
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को पढ़ने के बाद पता चलता है कि यह कितना प्राचीन है। पिछले कई युग या कल्प हुए उसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। हालांकि उन्हें प्रमाणित करना मुश्किल है, लेकिन वर्तमान में इस धर्म की शुरुआत को ब्रह्मा और उनके पुत्रों सहित विष्णु और शिव से मानी जाती है। इस परंपरा से चलकर ही यह ज्ञान वैवस्वत मनु तक पहुंचा।
सातवें मनु वैवस्वत मनु ने चलकर यह 'ब्रह्म ज्ञान' भगवान श्रीकृष्ण तक पहुंचा। श्रीकृष्ण ने गीता में अपने एक श्लोक के माध्यम से यह कहा भी है कि परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान कहां से चलकर मुझ तक आया है। उस श्लोक में वे वैवस्वत मनु का ही उल्लेख करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि ब्रह्मा और वैवस्वत मनु कब हुए थे?
शोध करने के बाद पता चलता है कि हिन्दू इतिहास की शुरुआत लगभग 90 हजार वर्ष पूर्व हुई थी। इसमें भी वर्तमान में जो धर्म स्थापित है उसकी शुरुआत आज से लगभग 16 हजार से 20 हजार वर्ष पूर्व हुई थी। इस संबंध में विस्तार से जानने के लिए उपर एक लिंक दे रखी है जिसका नाम है हिन्दू इतिहास के महत्वपूर्ण घटनाक्रम क्रमवार..आप उस पर क्लिक करें और जाने ज्यादा जानने के लिए पेज के उपर के इतिहास पर क्लिक करें। हालांकि इस चैनल में ऐसे कई आलेख हैं जो इस संबंध में खुलासा करते हैं।