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मेघालयः जमीन का टुकड़ा है सिख-खासी विवाद की वजह

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गुरुवार, 7 जून 2018 (11:34 IST)
पूर्वोत्तर के सबसे शांतिपूर्ण राज्य मेघालय की राजधानी शिलॉन्ग में बीते सप्ताह से ही एक मामूली विवाद पर फैली हिंसा की जड़ें दरअसल इतिहास में छिपी हैं। शिलॉन्ग में खासी और सिख समुदाय के बीच लंबे समय से बैर चला आ रहा है।
 
 
एक सिख युवती के साथ कथित छेड़छाड़ के बाद खासी समुदाय के एक बस खलासी के साथ मारपीट हुई। बाद में पुलिसवालों की मौजूदगी में दोनों पक्षों में समझौता हो गया था। लेकिन उसके बाद सोशल मीडिया पर खलासी की मौत की अफवाह के बाद हालात बिगड़ गए। वैसे, विवाद के शुरू होने की वजह भले छेड़छाड़ रही हो, राजधानी के सबसे पॉश इलाके में बसी पंजाबी लेन कालोनी जिसे स्थानीय लोग स्वीपर्स कालोनी कहते हैं, के बाशिदों के खिलाफ स्थानीय लोगों में नाराजगी कोई नई नहीं है। हालात बेकाबू होते देख कर केंद्र ने सोमवार को यहां केंद्रीय बलों की छह अतिरिक्त कंपनियां भेज दीं। अब हालात धीरे-धीरे सामान्य जरूरी हो रहे हैं। लेकिन सिख समुदाय को इस बात का डर सता रहा है कि कहीं यह तूफान से पहले की शांति तो नहीं है।
 
 
कोई 160 साल पहले अंग्रेजों ने सिखों को साफ-सफाई के काम के लिए शहर में बसाया था। सिख समुदाय का आरोप है कि उनकी कॉलोनी को खाली कराने के लिए ही साजिश हो रही है। स्थानीय खासी संगठनों ने इस बस्ती को अवैध करार देते हुए सिखों को हटाने की मांग उठाई है। आतंक की वजह से 200 ज्यादा सिख परिवारों ने चार दिनों तक गुरुद्वारे में शरण ली थी। इलाके में कर्फ्यू लागू है, इंटरनेट सेवाएं बंद हैं और सेना फ्लैग मार्च कर रही है।
 
 
खासी छात्र संघ समेत विभिन्न स्थानीय संगठन अब सिख बस्ती को हटाने की मांग में सड़कों पर उतर आए हैं। राज्य में कोनराड संगमा की अगुवाई वाली सरकार ने इस कॉलोनी के पुनर्वास पर फैसले के लिए उप-मुख्यमंत्री प्रेस्टोन टीनसांग के नेतृत्व में एक उच्च-स्तरीय समिति बनाई है जो इस मामले के तमाम पहलुओं पर विचार के बाद जल्दी ही अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। इस बीच, राष्ट्रीयअनुसूचित जनजाति आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की टीमें भी इस मामले की जांच के लिए मंगलवार को शिलॉन्ग पहुंच गईं।
 
 
हिंसा और आगजनी की घटनाएओं से दहशत में आए सैकड़ों सिख परिवारों ने स्थानीय गुरुद्वारों और सेना की छावनी में शरण ली थी। वह लोग अब धीरे-धीरे घरों में लौटने लगे हैं। लेकिन उनके चेहरों पर आतंक की छाया है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने हिंसा भड़कने के बाद मुख्यमंत्री संगमा से फोन पर बातचीत कर सिख परिवारों को सुरक्षा मुहैया कराने का अनुरोध किया था। संगमा ने उनको इसका भरोसा भी दिया। उसके बाद यहां की जमीनी हालत का ब्योरा लेने के लिए अमरिंदर सिंह ने केबिनेट मंत्री सुजिंदर सिंह रंधावा की अगुवाई में एक चार सदस्यीय टीम को सोमवार को शिलॉन्ग भेजा है।
 
 
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अध्यक्ष मंजीत सिंह जीके और दिल्ली के विधायक मनजिंदर सिंह सिरसा भी रविवार को यहां पहुंचे। उन्होंने हिंसा-प्रभावित सिख परिवारों से मुलाकात करने के बाद मुख्यमंत्री संगमा के साथ बैठक की। तख्त दमदमा साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह की अगुवाई में सिख गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) ने भी यहां अपना एक प्रतिनिधमंडल भेजा है। यह प्रतिनिधिमंडल मंगलवार को अमृतसर लौटने के बाद बुधवार को एसजीपीसी अध्यक्ष गोबिंद सिंह लोगोंवाल को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा।
 
 
विवाद
आखिर इस विवाद की वजह क्या है? 
दरअसल, 1850 के दशक में अंग्रेजों ने शिलॉन्ग की भौगेलिक स्थिति और जलवायु को ध्यान में रखते हुए इस पर्वतीय शहर को पूर्वोत्तर में अपना बेस बनाया था। उस समय सिर पर मैला ढोने की प्रथा थी। लेकिन स्थानीय आदिवासी इस काम के लिए तैयार नहीं थे। इसी वजह से अंग्रेजों ने मैला ढोने के लिए पंजाब से दलित सिख परिवारों को यहां लाकर बसाया था।
 
ब्रिटिश प्रशासन की पहल पर स्थानीय गांव के राजा ने 10 दिसंबर 1863 को हुए एक करार के तहत इन सिख परिवारों को रहने के लिए जमीन दी थी। अब भी इस परिवार के वंशज शिलॉन्ग नगरपालिका, अस्पतालों और पुलिस विभाग में सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करते हैं। इन सिख परिवारों के लिए असली दिक्कत 1980 के दशक में उस समय शुरू हुई जब 1972 में अलग राज्य का दर्जा मिलने के बाद राजधानी में सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर अंकुश लगाने की पहल हुई। राज्य का दर्जा मिलने के कुछ साल बाद ही शिलॉन्ग के जिला आयुक्त ने इस कालोनी में रहने वालों को हटाने के निर्देश दिए थे। लेकिन मेघालय हाईकोर्ट ने 1986 में इस आदेश पर रोक लगा दी थी। उसके बाद लगातार इस समुदाय को कालोनी से हटाने की मांग उठती रही है।
 
 
सिख समुदाय का आरोप है कि अब उनसे जबरन यह कालोनी खाली कर वहां शापिंग माल बनवाने की साजिश रची जा रही है। लेकिन हम पुरखों की यह जमीन छोड़ कर कहां जाएंगे? स्थानीय खासी लोगों का कहना है कि यह पूरी कालोनी अवैध है। पंजाबी लेन से सिखों को हटाने का मुद्दा बीते तीन-चार दशकों से समय-समय पर उठता रहा है। लेकिन यह मुद्दा जस का तस है। स्थानीय गुरुद्वारा गुरुनानक दरबार के महासचिव गुरजीत सिंह सवाल करते हैं, "हमारे पूर्वज दौ सौ साल से भी पहले यहां आकर बसे थे। अब यही हमारा घर है। इसे छोड़ कर हम कहां जाएंगे?" उनकी दलील है कि अगर हमें कहीं और बसाया गया तो इस बात की क्या गारंटी है हमें दोबारा वहां से नहीं हटाया जाएगा ?
 
 
गुरजीत सिंह का आरोप है कि इस कालोनी को सरकारी सुविधाएं नहीं मिलतीं। यहां मौलिक सुविधाओं की भी भारी कमी है। उत्तर शिलॉन्ग विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा होने के बावजूद स्थानीय लोगों को विधायक कोई सहायता नहीं मिलती। सिंह का दावा है कि बीती फरवरी में एक क्षेत्रीय पार्टी के नेता एडलबर्ट नोंगक्रम के चुनाव जीतने के बाद हालात लगातार बदतर हुए हैं। सिंह कहते हैं, विधानसभा चुनावों के बाद सिख समुदाय के खिलाफ जातीय द्वेष की भावना तेज हुई है। एडलबर्ट ने इस सिख कालोनी को हटाने को ही अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था।
 
 
कालोनी में रहने वाली संजना कौर यहीं जन्मी और पली-बढ़ी हैं। वह कहती हैं, "हम तो यहीं पैदा हुए और पले-बढ़े हैं। लेकिन अब स्थानीय लोग हमें यहां से खदेड़ना चाहते हैं। खासी समुदाय के लोगों का कहना है कि हम पंजाबी हैं।" दूसरी ओर, खासी समुदाय का आरोप है कि पंजाबी लेन में रहने वाले लोग स्थानीय लोगों के साथ मारपीट और दूसरी आपराधिक गतिविधियों में शामिल हैं। खासी छात्र संघ के प्रवक्ता डोनाल्ड वी। थाबाह कहते हैं, "सिख युवक पहले भी कई बार खासी युवकों के साथ मारपीट कर चुके हैं। यह कालोनी आपराधिक व असामाजिक तत्वों का अड्डा बन गई है।" उनका दावा है कि लगातार होने वाली इन घटनाओं से अब स्थानीय लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है।
 
 
सरकारकी दलील
मुख्यमंत्री कोनराड संगमा कहते हैं, "सरकार ने इस विवाद को सुलझाने के लिए कालोनी में रहने वाले लोगों के पुनर्वास पर फैसले के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया है। उसकी रिपोर्ट मिलने के बाद आगे की कार्रवाई का फैसला किया जाएगा। सरकार इस समस्या के तमाम पहलुओं पर विचार करने के बाद ही कोई कदम उठाएगी।" मुख्यमंत्री का दावा है कि हिंसा भड़काने में कुछ बाहरी तत्वों का हाथ था। सरकार इन तमाम पहलुओं की जांच कर रही है।
 
 
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि क्षेत्रवाद और जातिवाद की तेज होती भावना को ध्यान में रखते हुए पंजाबी लेन के शहर के बीचोबीच रहने की स्थिति में इस विवाद का समाधान संभव नहीं है। यही वजह है कि सरकार भी अब स्थानीय संगठनों की मांग के आगे घुटने टेकती नजर आ रही है।

रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता
 

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