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जब ‘मिस यूक्रेन’ रूस के खिलाफ बंदूक उठाती हैं तो ‘महिला दिवस’ का अर्थ समझ में आता है

नवीन रांगियाल
नए भारत में आजकल महिला दिवस के जो अर्थ लगाए जा रहे हैं, उससे महिलाएं खुद ही भ्रमित हो रही हैं। कुछ ‘सिंगल मदर्स’ इन दिनों अपने बच्‍चे के पालन पोषण को महिला सशक्तिकरण के तौर पर प्रचारित कर रही हैं, तो वहीं कुछ महिलाएं अपने जीवन के सामान्‍य संर्घषों को वुमन एम्‍पॉवरमेंट से जोड़कर बताती हैं।
 

कुल मिलाकर यह दिवस इन दिनों सिर्फ एक उत्‍सव बनकर रह गया है, और उत्‍सव का दायरा सिर्फ एक मौज मस्‍ती तक ही सीमित रहता है। ऐसे में महिला दिवस से जुड़े मूल्‍यों और महिलाओं के वास्‍तव में सशक्‍त होने वाले तत्‍वों के बारे में इस दिन बात नहीं होती है और इसका खामियाजा खुद महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है।

मुद्दा यह है कि महिला दिवस को जीवन के सिर्फ सामान्‍य संर्घषों तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए।
हाल ही में रूस और यूक्रेन के बीच हो रहे युद्ध के बीच यूक्रेन की पूर्व मिस यूक्रेन ने रूस के खिलाफ बंदूक उठाई और फैसला किया कि वो अपने देश के लिए रूस के खिलाफ लड़ेंगी।

गौर करने वाली बात है कि मिस यूक्रेन एक ब्‍यूटी क्‍वीन रही हैं, लेकिन वक्‍त आने पर उसने अपने स्‍वभाव के ठीक उलट अपने देश की रक्षा के लिए बंदूक उठाई। विचार किया जाना चाहिए कि इसमें निश्‍चित तौर पर सशक्‍तिकरण के तत्‍व शामिल हैं।

मेरे ख्‍याल से महिला के इस स्‍वरूप को महिला दिवस और उसके सशक्तिकरण से जोड़ना ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है।
जब भारत के किसी अनजान गांव में अपने अस्‍तित्‍व और अपनी इज्‍जत की हिफाजत के लिए कोई अकेली औरत हो संर्घष करती है तो वास्‍तविक सशक्‍तिकरण उभरकर सामने आता है।

ठीक इसी तरह अपनी बेटी निर्भया के लिए लड़कर उसका जीवन तबाह करने वाले दरिंदों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने वाली उसकी मां आशा जब न्‍याय के लिए कई सालों तक लड़ती हैं तो असली महिला दिवस और महिला सशक्‍तिकरण उभरकर आता है।

वे सारी अनजान महिलाएं महिला दिवस की वास्‍तविक पहचान और प्रतीक हैं, जो कहीं न कहीं अपने मूल्‍यों के लिए, अपनी पहचान के लिए लड़ रही हैं, सभी सशक्तिकरण की प्रतीक हैं।

न कि सोशल मीडिया पर अपने जीवन की दैनिक और सामान्‍य गतिविधियों को महिला दिवस बताकर उसे सशक्‍तिकरण के तौर पर प्रदर्शित करना सशक्तिकरण है।

हमारे समाज में औरतों को पुरुषों के बराबर नहीं समझा जाता। यह हाल मात्र हमारे देश भारत का ही नहीं बल्कि दुनिया में और भी ऐसे कई देश हैं, जहां पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ माना जाता है।

महिलाओं को आगे लाने और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और इसके साथ ही हर लिंग, आयु, जातीयता, नस्ल, धर्म और देश के लोगों को एक साथ लाना और दुनिया में लैंगिक समानता ही महिला दिवस का मकसद होना चाहिए, न कि इसे उत्‍सव के रूप में देखना।

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