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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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तिब्बत कभी नहीं रहा चीन का हिस्सा, क्या है इसका इतिहास जानिए

तिब्बत कभी नहीं रहा चीन का हिस्सा, क्या है इसका इतिहास जानिए

अनिरुद्ध जोशी

भारत की सीमा तिब्बत से लगती है न की चीन से। तिब्बत प्राचीन भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का एक प्रमुख केंद्र रहा है। चीन ने सन्न 1951 में इस पर कब्जा कर अपने नियंत्रण में ले लिया था तभी से तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने भारत में शरण ले रखी है। तिब्बत के मामले में भारत की शुरुआत से ही बड़ी लचर नीति रही है।
 
 
इस तरह किया चीन ने कब्जा : तिब्बत सदियों से एक स्वतंत्र देश था लेकिन मंगोल राजा कुबलई खान ने युवान राजवंश की स्थापना की और उसने तब तिब्बत, चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का परचम लहराया था। फिर सत्रहवहीं शताब्ती में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ रिश्ते बने और फिर लगभग 260 वर्ष के बाद चीन की चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया लेकिन 3 वर्ष के भीतर विदेशी शासन को उखाड़ फेंका और 1912 में तेरवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की। तब से लेकर 1951 तक तिब्बत एक स्वंत्र देश के रूप में जाना जाता था।
 
हालांकि चीन ने तिब्बत पर अपने नियंत्रण की शुरुआत तो तभी से कर दी थी जब सितंबर 1949 में साम्यवादी चीन ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने इस दौरान पूर्वी तिब्बत के राज्यपाल के मुख्यालय चामदो पर अधिकार कर लिया। तिब्बत को बाहरी दुनिया से पुरी तरह काट दिया गया लेकिन तिब्बतियों ने 11 नवंबर 1950 चीन के इस आक्रमण के विरोध में संयुक्त राष्ट्र में अर्जी लगाई। लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा की संचालन समिति ने इस मुद्दे को टाल दिया।
 
तिब्बती लोगों के जबरदस्त प्रतिरोध की परवाह न करते हुए चीन ने तिब्बत को अपना एक उपनिवेश बनाने की योजना को लागू करने के लिए तिब्बत से हुए किसी भी समझौते को नहीं माना और 9 सितम्बर, 1951 को हजारों चीनी सैनिकों ने ल्हासा में मार्च किया। तिब्बत पर जबरन अधिग्रहण के बाद योजनाबद्ध रूप से यहां के बौद्ध मठों का विनाश किया गया, धर्म का दमन किया गया, लोगों की राजनीतिक स्वतंत्रता छीन ली गयी, बड़े पैमाने पर लोगों को गिरफ्तार और कैद किया गया तथा निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का कत्ले-आम किया गया।
 
चीनियों ने इसका ऐसा निर्दयतापूर्ण प्रतिकार किया जैसा कि तिब्बत के लोगों ने कभी नहीं देखा था। हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को सरेआम चौराहों पर मौत के घाट उतार दिया गया और बहुत से तिब्बतियों को कैद कर दिया गया या निर्वासित कर दिया गया। अंतत: 17 मार्च 1959 को दलाई लामा ने ल्हासा छोड़कर भारत से राजनीतिक शरण मांगी और वे अपने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में आकर बस गए।
 
इसके बाद तिब्बत में तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया। ज्यादा से ज्यादा चीनियों को बसाकर वहां की डेमोग्राफी को चेंज कर दिया गया।
 
अरुणाचल प्रदेश : चीन अरुणाचल प्रदेश के तवांग को तिब्बत का हिस्सा मानता है। हालांकि चीन तो समूचे अरुणाचल प्रदेश पर ही दावाकर कहता है कि यह दक्षिणी तिब्बत है। अरुणाचल प्रदेश की चीन के साथ 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है। चीन ने तिब्बत को साल 1951 में अपने नियंत्रण में ले लिया था, जब कि साल 1938 में खींची गई मैकमोहन लाइन के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है।

सि‍द्धों की भूमि तिब्बत : तिब्बत प्राचीन काल से ही योगियों और सिद्धों का घर माना जाता रहा है तथा अपने पर्वतीय सौंदर्य के लिए भी यह प्रसिद्ध है। संसार में सबसे अधिक ऊंचाई पर बसा हुआ प्रदेश तिब्बत ही है। तिब्बत मध्य एशिया का सबसे ऊंचा प्रमुख पठार है। वर्तमान में यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र है। राहुलजी सांस्कृतायन के अनुसार तिब्बत के 84 सिद्धों की परम्परा 'सरहपा' से आरंभ हुई और नरोपा पर पूरी हुई। सरहपा चौरासी सिद्धों में सर्व प्रथम थे। इस प्रकार इसका प्रमाण अन्यत्र भी मिलता है लेकिन तिब्बती मान्यता अनुसार सरहपा से पहले भी पांच सिद्ध हुए हैं। इन सिद्धों को हिन्दू या बौद्ध धर्म का कहना सही नहीं होगा क्योंकि ये तो वाममार्ग के अनुयायी थे और यह मार्ग दोनों ही धर्म में समाया था। बौद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं कि सिद्धों की वज्रयान शाखा में ही चौरासी सिद्धों की परंपरा की शुरुआत हुई, लेकिन आप देखिए की इसी लिस्ट में भारत में मनीमा को मछींद्रनाथ, गोरक्षपा को गोरखनाथ, चोरंगीपा को चोरंगीनाथ और चर्पटीपा को चर्पटनाथ कहा जाता है। यही नाथों की परंपरा के 84 सिद्ध हैं।
 
भारत का तीर्थ : कैलाश पर्वत और मानसरोवर तिब्बत में ही स्थित है। यहीं से ब्रह्मपुत्र नदी निकलती हैं। तिब्बत स्थित पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली सांग्पो नदी पश्चिमी कैलाश पर्वत के ढाल से नीचे उतरती है तो ब्रह्मपुत्र कहलाती है। तिब्बत के मानसरोवर से निकलकर बाग्लांदेश में गंगा को अपने सीने से लगाकर एक नया नाम पद्मा फिर मेघना धारण कर सागर में समा जाने तक की 2906 किलोमीटर लंबी यात्रा करती है। कालिदास ने कैलाश और मानसरोवर के निकट बसी हुई कुबेर की नगरी 'अलकापुरी' का 'मेघदूत' में वर्णन किया है।
 
प्राचीन काल में इसे त्रिविष्टप कहते थे : प्राचीनकाल में तिब्बत को त्रिविष्टप कहते थे। भारत के बहुत से विद्वान मानते हैं कि तिब्बत ही प्राचीन आर्यों की भूमि है। पौराणिक ग्रंथों अनुसार वैवस्वत मनु ने जल प्रलय के बाद इसी को अपना निवास स्थान बनाया था और फिर यहीं से उनके कुल के लोग संपूर्ण भारत में फैल गए थे।
 
वेद-पुराणों में तिब्बत को त्रिविष्टप कहा गया है। महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में स्वर्गारोहण में स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत हिमालय के उस राज्य को पुकारा जाता था जिसमें नंदनकानन नामक देवराज इंद्र का देश था। इससे सिद्ध होता है कि इंद्र स्वर्ग में नहीं धरती पर ही हिमालय के इलाके में रहते थे। वहीं शिव और अन्य देवता भी रहते थे। कई माह तक वैवस्वत मनु (इन्हें श्रद्धादेव भी कहा जाता है) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गोरी-शंकर के शिखर से होते हुए नीचे उतरी। गोरी-शंकर जिसे एवरेस्ट की चोटी कहा जाता है। दुनिया में इससे ऊंचा, बर्फ से ढंका हुआ और ठोस पहाड़ दूसरा नहीं है।
 
तिब्बत में धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि और वातावरण में तेजी से होते परिवर्तन के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर रुख करना शुरू किया। इन आर्यों के ही कई गुट अलग-अलग झुंडों में पूरी धरती पर फैल गए और वहां बस कर भांति-भांति के धर्म और संस्कृति आदि को जन्म दिया। मनु की संतानें ही आर्य-अनार्य में बंटकर धरती पर फैल गईं। त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत या देवलोक से वैवस्वत मनु के नेतृत्व में प्रथम पीढ़ी के मानवों (देवों) का मेरु प्रदेश में अवतरण हुआ। वे देव स्वर्ग से अथवा अम्बर (आकाश) से पवित्र वेद पुस्तक भी साथ लाए थे। इसी से श्रुति और स्मृति की परम्परा चलती रही। वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ।

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