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दोधारी तलवार पर हैं जम्मू-कश्मीर के पत्रकार

सुरेश डुग्गर
शनिवार, 24 दिसंबर 2016 (14:08 IST)
जम्मू-कश्मीर पिछले 27 सालों से आतंकवाद की चपेट में है। इस दौरान यहां समाज और सरकार की सारी संस्थाएं आतंकवाद की ज्वाला में झुलसकर अपना तेज खो चुकी हैं, मगर प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाली प्रेस इस बीहड़ समय में भी न केवल अपना अस्तित्व बचाए हुए है, बल्कि सारे खतरे उठाते हुए अपने दायित्व का भी पूरी तरह से निर्वाह कर रही है। 
 
आतंकवादग्रस्त जम्मू-कश्मीर में गत 27 सालों से जो कुछ भी हो रहा है, वह देश और दुनिया के सामने अखबारों तथा पत्रिकाओं के माध्यम से ही आ रहा है। यहां तक कि पिछले 17 सालों से मानवाधिकार के मुद्दे पर भारत ने पाकिस्तान को जो करारी शिकस्त दी, उसके पीछे भी जम्मू-कश्मीर के पत्रकारों के लेखन का बहुत बड़ा हाथ है हालांकि आतंकवादियों ने इन पत्रकारों की कलम को रोकने की भरपूर कोशिश की थी। कई बार जिनीवा, लंदन और फिर डेनमार्क तथा कांसाब्लांका में भारतीय अधिकारी यहीं के पत्रकारों द्वारा लिखी गई रिपोर्टों को आधार बनाकर ही अपना पक्ष मजबूत कर पाए हैं। 
 
लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि आज कश्मीर प्रेस की स्थिति कुएं और खाई के बीच वाली है और कश्मीर के पत्रकारों के लिए जिंदगी के मायने हैं दोधारी तलवार पर चलना। कुछ अरसा पहले एक पत्रकार की गोली मारकर की गई हत्या तथा एक अन्य को गोली मारने की घटनाएं इसके पुख्ता सबूत हैं। 
 
स्थिति यह है कि कश्मीर के पत्रकारों द्वारा अगर किसी संगठन का वक्तव्य प्रकाशित किया जाता है तो दूसरा नाराज हो जाता है और प्रतिबंध का खतरा बना रहता है। अगर किसी भी संगठन का वक्तव्य प्रकाशित नहीं जाता तो भी प्रतिबंध का खतरा बना रहता है अर्थात जैसा भी करें, खतरा हमेशा ही बरकरार रहता है, क्योंकि कश्मीर प्रेस आतंकवादियों के बीच फंसी हुई है। 
 
वैसे भी कश्मीर में प्रेस पर प्रतिबंध लगाने तथा उसे धमकियां देने की कहानी कोई नई बात नहीं है। यह उतनी ही पुरानी है जितना पुराना कश्मीर में आतंकवाद है। लेकिन समाचार-पत्रों तथा पत्रकारों की बेबसी यह है कि वे न इधर जा सकते हैं और न ही उधर, क्योंकि उनके सिरों पर सरकारी आतंकवाद की तलवार भी लटकती रहती है। ऐसी स्थिति में की जाने वाली रिपोर्टिंग के दौरान अगर किसी पक्ष को अधिक अहमियत मिल जाती है, जैसी शिकायत समाचार-पत्रों के संपादकों को होती है तो उसमें संवाददाता का कोई दोष नहीं माना जा सकता बल्कि परिस्थितियां ही उसके लिए दोषी हैं, क्योंकि रिपोर्टिंग करने वालों के पास इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता। 
 
आतंकवादियों ने प्रेस के विरुद्ध छेड़ी गई अपनी मुहिम के अंतर्गत समाचार-पत्रों के कार्यालयों को आग लगाने के अतिरिक्त पत्रकारों का अपहरण करने, उन्हें पीटने तथा धमकियां देने की कायरतापूर्ण हरकतें भी की हैं। कुछ समाचार-पत्रों को तो अपना प्रकाशन सदा के लिए स्थगित करने के अतिरिक्त निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने वालों को घाटी त्यागने के निर्देश भी मिले हैं। लेकिन कुछ पत्रकार जिन पर आरोप लगाया जाता रहा है कि वे शीर्ष आतंकवादियों से अच्छे संबंध रखते हैं उन्हें भी आज अपना कार्य करने में कठिनाई आ रही है, क्योंकि गुटीय संघर्ष इतने बढ़ गए हैं कि सब कुछ कठिन होता जा रहा है। 
 
वर्ष 1990 कश्मीर घाटी के पत्रकारों के लिए बहुत ही बुरा रहा था, जब 4 मीडियाकर्मियों की हत्या कर दी गई थी आतंकवादियों द्वारा। आतंकवादियों ने 13 फरवरी 1990 को श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लस्सा कौल की हत्या करके पत्रकारों पर प्रथम हमले की शुरुआत की थी और फिर इन हमलों का शिकार पीएन हांडू, मोहम्मद शबान वकील, सईद गुलाम नबी और मुहम्मद रंजूर को भी होना पड़ा। याद रखने योग्य तथ्य है कि आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बनने वालों में अधिकतर मुस्लिम पत्रकार ही थे जिन्हें ‘जेहाद’ के नाम पर मार डाला गया था और इन सभी पर आरोप लगाया गया था कि वे उनके ‘संघर्ष’ के विरुद्ध लिख रहे हैं। 
 
प्रिंटिंग प्रेसों में बम धमाकों, कार्यालयों में तोड़-फोड़ का सिलसिला ऐसा आरंभ हुआ था, जो आज भी जारी है। सप्ताह में एक बार अवश्य आज ऐसा होता है, जब आतंकवादी किसी न किसी पत्रकार या समाचार-पत्र के कार्यालय में घुस-कर तोड़फोड़ करते हैं। हालांकि इन तोड़फोड़ करने वालों के बारे में आतंकवादी पहले तो हमेशा कहते आए हैं कि यह सब ‘सरकारी आतंकवादियों’का कार्य है और अब आप ही इनकी जिम्मेदारी कबूल करने लगे हैं। ऐसा भी नहीं है कि पत्रकार या समाचार-पत्रों के कार्यालय सिर्फ आतंकवादियों के हमलों के ही शिकार हुए हों बल्कि सुरक्षाबल भी आए दिन इसमें अपना योगदान देते रहे हैं। 
 
हमलों की तरह पत्रकारों की गतिविधियों तथा समाचार-पत्रों के प्रकाशन और उनकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाए जाने के मामले इतने हो चुके हैं कि उनकी गिनती कर पाना अब मुश्किल होता जा रहा है। याद रखने योग्य तथ्य यह है कि प्रतिबंधों का सामना करने वालों में जम्मू, नई दिल्ली, चंडीगढ़ तथा देश के अन्य भागों से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र और मैगजीनें भी हैं। इन समाचार-पत्रों तथा मैगजीनों पर प्रतिबंध लागू करने का सबसे बड़ा कारण आतंकवादियों की ओर से यह बताया जाता रहा है कि वे ‘संघर्ष’ के विरुद्ध लिख रहे हैं तथा कश्मीर समस्या के हल में बारे में चर्चा कर रहे हैं। 
 
प्रत्येक आतंकवादी संगठन आज इच्छा जताता है कि उसका वक्तव्य समाचार-पत्र में सुर्खी बने और यह भी गौरतलब है कि बीसियों की तादाद में आने वाले वक्तव्य प्रतिदिन समाचार-पत्रों के लिए मुसीबत पैदा कर रहे हैं। यही कारण है कि कश्मीर घाटी से प्रकाशित होने वाले दैनिक कई बार अपने मुख्य पृष्ठों पर बॉक्स आइटम प्रकाशित करते हुए अपनी दशा जाहिर कर चुके हैं। इस बॉक्स में समाचार-पत्रों द्वारा लिखा गया था कि प्रतिदिन उन्हें 50 से 60 वक्तव्य ऐसे आते हैं जिनमें प्रथम पृष्ठ की मांग की होती है और इसलिए इन दलों से निवेदन किया गया था कि वे 3-4 लाइनों से बड़ा वक्तव्य जारी न करें। 
 
यह तो कुछ भी नहीं, हिज्बुल मुजाहिदीन ने तो मार्गदर्शिका जारी करके स्पष्ट किया कि क्या लिखना होगा और क्या नहीं? जबकि उसने समाचार-पत्रों को यह भी धमकी दे दी कि अगर उसे 10 प्रतिशत कम से कम कवरेज नहीं दी गई तो गंभीर परिणाम होंगे। विपरीत परिस्थितियों में कार्य कर रहे पत्रकार इस दुविधा में हैं कि वे किस प्रकार स्वतंत्र रूप से कार्य को अंजाम दें, क्योंकि परिस्थितियां ऐसी हैं कि निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से कार्य कर पाना कठिन होता जा रहा है, क्योंकि आतंकवादियों के चक्रव्यूह का शिकंजा दिन-प्रतिदिन कसता जा रहा है जिससे बाहर निकलने का रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। 
 
और यह भी कड़वी सच्चाई है कि अपनी पेशेगत जिम्मेदारियों को निबाहने वाले यहां के पत्रकार बहुत ही विकट परिस्थितियों में कार्य कर रहे हैं। एक तरफ उन पर पाक समर्थित आतंकवादियों की बंदूकें तनी हुई हैं, तो दूसरी ओर राज्य सरकार उन्हें सूचना के अधिकार से वंचित रखने से लेकर उन पर डंडे बरसाने, गिरफ्तार करने और उनका हर तरह से दमन करने की कोशिशों में लगी रहती है। 
 
कश्मीर में आज जो अप्रत्यक्ष युद्ध चल रहा है, उसमें सबसे ज्यादा दबाव पत्रकारों पर बनाया जा रहा है। भारतीय प्रेस परिषद ने भी जम्मू-कश्मीर में कार्यरत पत्रकारों की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि राज्य सरकार पत्रकारों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है और उन्हें सुरक्षा, सूचना एवं निर्भय होकर कार्य करने का माहौल देने में वह असफल रही है। 
 
जम्मू-कश्मीर में प्रेस के साथ किए जा रहे व्यवहार पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि यह सरकार सिर्फ पत्रकारों से ही नहीं, बल्कि कला और संस्कृति से जुड़े सभी लोगों और बुद्धिजीवियों से दूरी बनाए रखना चाहती है। पिछले 27 सालों के आतंकवाद के दौर के दौरान 7 वर्ष के राष्ट्रपति शासनकाल में राज्य के अफसर गैरजिम्मेदार और अहंकारी हो गए हैं। वे जनता के सभी वर्गों से कट चुके हैं। चुनी हुई सरकार के अस्तित्व में आने के बावजूद अफसरशाही किसी के प्रति भी खुद को जवाबदेह नहीं मानती है। इन स्थितियों में उससे यदि कोई सवाल कर सकता है, तो वह पत्रकार ही है। आतंकवादियों की ही तरह अफसरशाह भी वर्तमान स्थितियों का पूरी तरह से फायदा उठा रहे हैं। खुद कई पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री यह स्वीकार कर चुके हैं कि राज्य के विकास के लिए भेजे पैसे का भारी दुरुपयोग हुआ है और आतंकवादियों तथा अफसरशाहों के आपसी गठजोड़ इसके बड़े हिस्से को डकार गया है। 
 
पत्रकारों एवं साहित्यकारों के प्रति राज्य सरकार का रवैया क्या है, इसे बताने के लिए स्वतंत्र पत्रकार अनिल साक्षी एक उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व ख्यातिनाम कवि एवं यहां के एकमात्र हिन्दी दैनिक के संपादक वेद पाल दीप का असामयिक निधन हो गया था। दीप की मृत्यु ने पूरे जम्मू-कश्मीर में शोक की लहर फैलाई थी। सभी ने इसे साहित्य और पत्रकारिता की अपूरणीय क्षति बताया था, मगर राज्य सरकार की तरफ से शोक का एक शब्द भी नहीं बोला गया था। 
 
दीप इस रियासत की ही नहीं, भारतीय भाषाओं की बहुत बड़ी हस्ती थे। उन्हें डोगरी का 'निराला' और 'गालिब' कहा जाता था। लेकिन उन जैसे व्यक्तित्व के असामयिक निधन का राज्य सरकार के लिए कोई मतलब नहीं। इसका निहितार्थ स्पष्ट है। अफसरों द्वारा संचालित इस सरकार को या तो कला-संस्कृति और साहित्य की समझ नहीं है या यह इनकी विरोधी है। 
 
जम्मू-कश्मीर में अभी तक डेढ़ दर्जन से ज्यादा मीडियाकर्मी अज्ञात बंदूकधारियों द्वारा मारे जा चुके हैं। सरकार कहती है कि इन्हें आतंकवादियों ने मारा और आतंकवादी इसका आरोप सरकार पर लगाते हैं। राज्य सरकार अभी तक किसी भी हत्या के मामले में दोषियों को सजा दिलाने में सफल नहीं हुई है। इसका कारण आतंकवादियों द्वारा यह बार-बार दोहराया जाना है कि सरकार इन हत्याओं के मामलों को दबाना चाहती है। 
 
आज दशा यह है पत्रकारों की कि उन्हें दोधारी तलवार पर चलने के बावजूद सरकार तथा आतंकवादियों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ रहा है। जहां आतंकवादी सीधे तौर पर खबर न छापने पर धमकी या चेतावनियों से कार्य चला रहे हैं तो सरकार अप्रत्यक्ष रूप से ओछे हथकंडे अपना रही है। माना कि कुछेक पत्रकार आतंकवादियों की धमकियों के आगे पूरी तरह से झुककर उनके लिए ‘कार्य कर’ रहे हैं, लेकिन स्थिति का दुखद पहलू यह भी है कि अपनी, अपने परिवार आदि की जान बचाने की खातिर किसी एक पक्ष का दामन थामना आवश्यक हो गया है। 
 
आज आतंकवादी दल चाहते हैं कि उन सभी का समाचार प्रथम पृष्ठ पर आएं तथा हिज्बुल मुजाहिदीन ने तो पत्रकारों तथा संपादकों के लिए दिशा-निर्देश भी भिजवा रखे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? किस विषय पर लिखना चाहिए और किस पर नहीं? और बंदूक के साये तले यह बंदूक का साया कभी आतंकवादियों का होता है, तो कभी सुरक्षा बलों का। कार्य करने वाले विशेषकर कश्मीर घाटी के पत्रकार सच को झूठ और झूठ को सच लिखने के लिए मजबूर हैं। 
 
सरकार कहती है कि अगर वे पत्रकारों पर दबाव कायम रखेंगे तो स्थानीय प्रेस ही आज कश्मीर से आतंकवाद की समाप्ति के लिए सेहरा बांध सकता है, क्योंकि यह आम है कि पत्रकार समाज को दिशा देते हैं, जबकि आतंकवादी भी यही बात कहते हैं कि अगर पत्रकार उनके साथ हैं, तो उनका साम्राज्य कायम रहेगा, क्योंकि कागजी आतंकवादी दलों को अखबार ही चला रहे हैं, उनके व्यक्तव्यों को प्रकाशित करके। ऐसा भी नहीं है कि वे उनके वक्तव्यों को अपनी इच्छानुसार प्रकाशित कर रहे हैं। 
 
कश्मीर घाटी में पत्रकारों व समाचार-पत्रों के साथ हुई प्रमुख आतंकवादी घटनाओं का ब्योरा
 
कब-कब हुए पत्रकारों पर हमले...
 
13 फरवरी 1990- श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लस्सा कौल की बेमिना स्थित निवास के पास गोली मारकर हत्या। 
 
1 मार्च 1990- राज्य सूचना विभाग के सहायक निदेशक पीएन हांडू की जेकेएलएफ के सदस्यों द्वारा बाल गार्डन निवास के बाहर हत्या। 
 
1 मई 1990- जम्मू तथा दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों पर घाटी में प्रवेश पर प्रथम बार हिज्बुल मुजाहिदीन ने प्रतिबंध लागू किया। 
 
2 अक्टूबर 1990- बछवारा स्थित श्रीनगर टाइम्स के कार्यालय/निवास पर बम फेंका गया। 
 
3 अक्टूबर 1990- समाचार-पत्रों को धमकियों का क्रम जारी। सभी संपादकों ने सभी प्रकाशन स्थगित करने का निर्णय लिया। 
 
5 व 10 अक्टूबर 1990- बडशाह चौक में स्थित श्रीनगर टाइम्स के कार्यालय में आतंकवादियों द्वारा तोड़फोड़ तथा उसमें आग लगा दी गई। 
 
4 नवंबर 1990- आफताब के गोवाकदल स्थित कार्यालय तथा प्रिंटिंग प्रेस में बम विस्फोट। 
 
20 दिसंबर 1990- कश्मीर टाइम्स तथा एक्सेलसियर पर प्रतिबंध लागू। दोनों जम्मू से प्रकाशित होते हैं। 
 
23 मार्च 1991- अलसफा के संपादक मुहम्मद शबान वकील की गोली मारकर हत्या कर दी आतंकवादियों ने उनके कार्यालय में ही। 
 
20 सितंबर 1991- सुर्खियों में कवरेज न देने के लिए हिज्बुल मुजाहिदीन ने समाचार-पत्रों को धमकियां दीं। 
 
18 फरवरी व 31 मार्च 1992- बीबीसी संवाददाता यूसुफ जमील के घर पर हथगोले फेंके गए। 
 
1 अप्रैल 1992- हिज्बुल मुजाहिदीन ने नई दिल्ली से प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस पर प्रतिबंध लगाते हुए उसके संवाददाता जॉर्ज योसफ को 48 घंटों के भीतर घाटी छोड़ने का नोटिस दिया। 
 
16 अक्टूबर 1992- आतंकवादियों ने राज्य सूचना विभाग के संयुक्त निदेशक का अपहरण करके 4 दिनों के बाद उनकी हत्या कर दी। 
 
6 जनवरी 1993- प्रथम बार श्रीनगर टाइम्स ने प्रथम पृष्ठ पर बॉक्स आइटम प्रकाशित करके आने वाली 4 से 5 दर्जन प्रेस विज्ञप्तियों को प्रकाशित करने में असमर्थता जताई थी। 
 
16 जून 1993- आतंकवादियों ने श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र की एक आर्टिस्ट का पहले अपहरण किया और बाद में 17 जून को उसकी हत्या कर दी। 
 
17 जून 1993- जमायतुल मुजाहिदीन ने श्रीनगर के रेडियो तथा दूरदर्शन केंद्र से समाचार पढ़ने पर लोगों पर पाबंदी लागू कर दी। 
 
24 जून 1993- अल उमर मुजाहिदीन ने पत्रकारों को धमकियां दी थीं ‘संघर्ष ’ के विरुद्ध लिखने का आरोप लगाकर। 
 
30 अगस्त 1993- अलसफा के संपादक सोनाउल्लाह बट का मकान जला डाला गया तथा कार्यालय में तोड़फोड़ करके आग लगाने की कोशिश की गई। 
 
30 सितंबर 1993- श्रीनगर टाइम्स के प्रबंधक अब्दुल गनी का हिज्ब ने अपहरण कर लिया। 
 
2 अक्तूबर 1993- रेडियो कश्मीर के न्यूज रीडर मुहम्मद शफी बट की जमायतुल मुजाहिदीन ने हत्या कर दी। 
 
25 नवंबर 1993- रॉकेट हमले में स्टेशन इंजीनियर श्रीनगर दूरदर्शन एसपी सिंह की मृत्यु। 
 
19 दिसंबर 1993- रेडियो आर्टिस्ट मुहम्मद हुसैन जफर की अपहरण के बाद हत्या। 
 
26 दिसंबर 1993- रेडियो कश्मीर श्रीनगर के सहायक स्टेशन डायरेक्टर सलामदीन बजारत गोलियों से घायल। 
 
13 जनवरी 1994- हिज्ब ने 10 प्रतिशत कवरेज की मांग करते हुए धमकी जारी की। 
 
17 जनवरी 1994- महिला आतंकवादी संगठनों ने संपादकों को तमीज सीखने की चेतावनी दी। 
 
23 जनवरी 1994- बीबीसी संवाददाता को नौकरी छोड़ देने के लिए कहा गया। गंभीर परिणामों की चेतावनी भी। 
 
7 सितंबर 1995- बीबीसी संवाददाता तथा अन्य 3 पत्रकार बम हमले में घायल। बाद में एक की मृत्यु। 
 
19 मार्च 1996- हिज्बुल मुजाहिदीन ने घाटी के सभी समाचार-पत्रों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लागू किया। 
 
29 मई 2002- आतंकवादियों ने ‘कश्मीर इमेजस’ नामक अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार जफर इकबाल को गोली मारकर घायल कर दिया। 
 
31 जनवरी 2003- नाफा समाचार एजेंसी के संपादक-पत्रकार परवेज मुहम्मद सुल्तान की आतंकवादियों द्वारा गोली मारकर हत्या। 
 
 
 

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