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क्यों टूटा सोवियत यूनियन?

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शनिवार, 24 दिसंबर 2016 (14:01 IST)
करीब 25 वर्ष पहले रूस अपने विघटन से पहले यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स (यूएसएसआर) के नाम से जाना जाता था। यह उस समय 15 गणराज्यों का संघ था जो कि उस समय की द्विध्रुवीय वैश्विक व्यवस्‍था में समाजवादी देशों का अगुआ माना था। विघटन से पहले के इस दौर को शीत युद्ध के तौर पर जाना जाता है। 
 
शीत युद्ध का दौर : द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के बाद के समय में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न तनाव की स्थिति को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है। कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे 'शस्त्र सज्जित शान्ति' का नाम भी दिया गया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने कंधे से कंधा मिलाकर धुरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरुद्ध संघर्ष किया था। किन्तु युद्ध समाप्त होते ही, एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा। बहुत जल्द ही इन मतभेदों ने तनाव की भयंकर स्थिति उत्पन्न कर दी।
 
इस दौरान रूस के नेतृत्व में दुनिया भर के साम्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी देश दो खेमों में बंट गए। इन दोनों पक्षों में आपसी टकराहट आमने सामने कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे और अपने समर्थक देशों को इस तरह लड़ाई के लिए उकसाते रहे कि दुनिया में युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता था। बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध, सोवियत रूस द्वारा आणविक परीक्षण, सैनिक संगठन, हिन्द चीन की समस्या, यू-2 विमान कांड, क्यूबा मिसाइल संकट कुछ ऐसी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने शीतयुद्ध की अग्नि को प्रज्वलित किया। सन् 1991 में सोवियत रूस के विघटन से उसकी शक्ति कम हो गई और शीतयुद्ध की समाप्ति हो गई।
 
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया दो गुटों में विभाजित हो गई, अर्थात विश्व में दो महाशक्तियां उभरकर सामने आई। 1. सयुंक्त राज्य अमेरिका 2. सोवियत संघ और इन दोनों देशों के बीच शीत युद्ध प्रारम्भ हो गया। शीत युद्ध – शीत युद्ध उस स्थिति को कहा जाता हैं जिसमें दो देशों के मध्य प्रतिद्वंद्विता और तनाव की स्थिति बनती हैं लेकिन युद्ध के मैदान में कभी संघर्ष नहीं होता हैं। दोनों देशों के खेमों के पास अस्त्र शस्त्र की कोई कमी नही थी, लेकिन दोनों गुटों ने कभी आमने सामने युद्ध करने का प्रयास नही किया।
 
इसे रोक और संतुलन का तर्क कहा गया। दोनों ही पक्षों के पास एक-दूसरे के मुकाबले और परस्पर नुकसान पहुंचाने की इतनी क्षमता थी लेकिन कि कोई भी पक्ष युद्ध का खतरा नहीं उठाना चाहता था। इस तरह महाशक्तियों के बीच गहन प्रतिद्वंद्विता होने के बावजूद शीतयुद्ध रक्तरंजित युद्ध का रूप नहीं ले सका। पारस्परिक डिटरेंस की स्थिति ने युद्ध तो नहीं होने दिया लेकिन यह स्थिति पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता को न रोक सकी। 
 
क्यूबा का मिसाइल संकट : क्यूबा अमेरिका का पड़ोसी देश था जो साम्यवादी शासक फिदेल कास्त्रो द्वारा शासित था। फिदेल कास्त्रो सोवियत विचारों से प्रभावित थे। अतः सोवियत संघ को लगा कि अमेरिका, क्यूबा पर आक्रमण करके फिदेल कास्त्रो का तख्ता पलट नहीं कर सकता है। अतः 1961 में सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने क्यूबा को सैन्य अड्डे के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया और 1962 में ख्रुश्वेच ने क्यूबा में अमेरिका की तरफ मिसाइलें तैनात कर दीं थीं। 
 
इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमेरिका नजदीकी निशाने की सीमा में आ गया। हथियारों की इस तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमेरिका के मुख्य भू-भाग के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर हमला बोल सकता था। क्यूबा में सोवियत संघ द्वारा परमाणु हथियार तैनात करने की भनक अमेरिकियों को तीन सप्ताह बाद लगी। लेकिन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ऐसा कुछ भी करने से हिचकिचा रहे थे जिससे दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध शुरू हो जाए। लेकिन वे इस बात को लेकर दृढ़ थे कि ख्रुश्चेव क्यूबा से मिसाइलों और परमाणु हथियारों को हटा लें। इस कारण से कैनेडी ने आदेश दिया कि अमेरिकी जंगी बेड़ों को आगे करके क्यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोक दिया जाए। ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा। इसी को ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ के रूप में जाना जाता है।
 
दो ध्रुवीय दुनिया का आरम्भ : शीत युद्ध की शुरुआत से ही दुनिया दो गुटों में विभाजित हो गई। पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने अमेरिका का पक्ष लिया वहीं पूर्वी यूरोप के देश सोवियत गुट में शामिल हुए। पश्चिमी देशों के गठबंधन, जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा था,  देशों ने मिलकर एक सैन्य संगठन अप्रैल 1949 में नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) के नाम से बनाया जिसमें 12 देश शामिल हुए। यह सैन्य संगठन इस तर्क पर आधारित था कि संगठन के किसी भी देश पर हमला सभी देषों पर हमला माना जाएगा और सभी देश मिलकर हमलावर को अपनी ताकत से जवाब देगें। 
 
इसी तर्क पर पूर्वी गुट, जिसका मुखिया सोवियत संघ था, उसने भी 1955 में वारसा पैक्ट नामक सैन्य संगठन बनाया। पूर्वी यूरोप के देशों पर सोवियत संघ का दबदबा रहा इसके विरुद्ध अमेरिका ने पूर्वी तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया एवं पश्चिमी एशिया में अमरीका ने गठबंधन की स्थापना की। दक्षिणी पूर्वी एशियाई संधि को 'सीटो' तथा केन्द्रीय संधि संगठन को 'सेंटो' के नाम से जाना गया। दूसरी तरफ सोवियत संघ तथा चीन ने भी इस क्षेत्र के कुछ देशों जैसे उत्तरी वियतनाम, उत्तरी कोरिया तथा इराक के साथ संबंध कायम किए।
 
अमेरिका और सोवियत संघ ने अन्य छोटे-छोटे देशों को अपनी ओर आकर्षिक किया। दोनों ही अधिक से अधिक देशों को अपने गुट में शामिल करना चाहते थे। इसके पीछे निम्नांकित कारण थे-
 
दोनों ही गुट, महत्वपूर्ण संसाधनों जैसे खनिज तेल और खनिज पदार्थों को अपने नियंत्रण में करना चाहते थे। छोटे देशों के भू क्षेत्रों को सेना के उपयोग में लेने के लिए सक्रिय रहते थे।
 
इन देशों का इस्तेमाल सैनिक ठिकानों के रूप में भी किया गया। संगठन आर्थिक मदद चाहते थे ताकि युद्ध में होने वाले खर्चों में मदद मिल उन्हें मदद मिल सके।
 
इस दौरान कई छोटे-छोटे देश औपनिवेषिक शासन से मुक्त हुए थे और उनको बड़ी मुष्किल से आजादी मिली थी। उन्हें यह भय था कि यदि वे दोनों में से किसी गुट में शामिल हो गए तो वे पुनः गुलाम हो सकते हैं। अतः अधिकांश देषों ने गुटनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और वे किसी भी गुट में शामिल नहीं हुए। भारत, तुर्की, चेकोस्लोवाकिया और अन्य देशों ने गुट निरपेक्ष संगठन बनाया। 
 
लेकिन तभी एक असामान्य घटना शुरू हुई और सोवियत संघ का रातोंरात विघटन आश्चर्यजनक रूप से हो गया। सोवियत संघ के पास पृथ्वी का करीब छठा हिस्सा था।15 गणतांत्रिक गुटों का समूह सोवियत संघ रातोंरात टूट गया था और यह टूट इतनी अहम थी कि आज 25 सालों के बाद भी इसके झटके महसूस किए जा रहे हैं।
 
सोवियत रूस एक ऐसा साम्राज्य था जिसने हिटलर को परास्त किया था, जिसने अमेरिका के साथ शीत युद्ध किया और परमाणु होड़ में हिस्सा लिया। साथ ही वियतनाम और क्यूबा की क्रांतियों में भूमिका निभाई। इतना ही नहीं, सोवियत संघ हर मामले में अमेरिका से एक वक्त आगे रहा।
 
वह साम्राज्य जिसने अंतरिक्ष में पहला उपग्रह भेजा और पहले आदमी यूरी गागरिन को अंतरिक्ष में भेजने में सफल हुआ था। सोवियत संघ खेल, नृत्य, सिनेमा, साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में भी एक कदम सबसे आगे रहा। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और सोवियत नीतियों के जानकार आर्ची ब्राउन कहते हैं, 'जिस तेजी से सोवियत संघ टूटा और वह भी एक ही रात में, वह सभी के लिए चकित करने वाला था।'
 
सोवियत संघ के विघटन के बाद क्या हुआ? : ब्राउन समेत कई अन्य विशेषज्ञ जोकि सोवियत संघ के विघटन के लिए कई कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं, उनका कहना था कि यह विघटन 1991 की क्रिसमस की रात में हुआ था। इसके लिए वे कई कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
 
तानाशाही और केंद्रीकृत शासन : यह सोवियत संघ की सबसे बड़ी खामी सिद्ध हुई। सोवियत संघ 1917 में बना था और जब बोल्शेविक क्रांति हुई थी। तब जार निकोलस द्वितीय को सत्ता से बेदखल कर के रूसी साम्राज्य को समाप्त कर दिया गया था। 1922 में लेनिन के नेतृत्व में दूर दराज़ के राज्यों को रूस में मिलाया गया और आधिकारिक रूप से यूएसएसआर की स्थापना हुई। यह कार्य व्लादीमिर लेनिन के नेतृत्व में हुआ लेकिन ऐसे जटिल और विविध देश पर नियंत्रण करना आसान नहीं था।
 
जार की तानाशाही से अलग होकर सोवियत संघ ने लोकतंत्र बनने की कोशिश की लेकिन आखिरकार जीत के तौर पर तानाशाही की ही स्थापना हुई, जिसमें सबसे प्रमुख तानाशाह जोसेफ स्टालिन हुए। आगे चलकर एक तरह की संसद बनी, जिसे सुप्रीम सोवियत कहा गया लेकिन सारे फैसले कम्युनिस्ट पार्टी करती थी। देश का प्रमुख चुनने से लेकर हर फैसला पार्टी की एक छोटी सी समिति करती थी जिसे पोलित ब्यूरो कहा जाता था।
 
स्टालिन के कार्यकाल में ही राजीनीति, अर्थव्यवस्था और आम जीवन पर पार्टी का नियंत्रण होता चला गया। विरोधियों को गुलाग द्वीपों (प्रताड़ना जेलों) में भेजा जाने लगा। गुलागों में लोगों को यातनाएं दी जातीं थीं और इनमें लाखों लोगों की मौत हुई। 
 
'नारकीय' नौकरशाही : तानाशाही और केंद्रीकृत शासन के कारण सोवियत संघ में एक व्यापक नौकरशाही भी बनी, जिसका नियंत्रण समाज के हर कोने में बढ़ता चला गया। आपको हर चीज़ के लिए कागज, स्टांप और पहचान की प्रक्रिया से गुजरना होता था। इस नौकरशाही ने सोवियत संघ को लोगों के लिए एक कठिन देश बना दिया था।
 
अर्थव्यवस्था की भारी नाकामी : सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों से प्रेरित थी जो उत्पादन, बंटवारे और अदल-बदल के संसाधनों को समाज की संपत्ति मानते हैं। अर्थव्यवस्था चली पंचवर्षीय योजनाओं के आधार पर और सोवियत संघ की अधिकतर आबादी को उद्योग और कृषि कार्य में लगाया गया, लेकिन इसके बावजूद अर्थव्यवस्था की तेज़ी में सोवियत संघ, अमेरिका से पिछड़ता चला गया और 1980 के दशक में सोवियत संघ की जीडीपी, अमेरिका से आधी रह गई।
 
बेहतरीन शिक्षा-दीक्षा का ढांचा : सोवियत संघ में शिक्षा दीक्षा बेहतरीन रही और लाखों लोग शिक्षित हुए। धीरे धीरे बाहर से जुड़ाव पर लगे प्रतिबंध कम हुए और लोगों को दुनिया के बारे में जानकारी बढ़ने लगी। धीरे-धीरे हुआ ये कि बेहतर ढंग से पढ़े लिखे लोगों के सोशल ग्रुप बनने लगे जो प्रभावशाली होते चले गए। लोग अब गोर्बाचौफ के आर्थिक सुधारों के हिमायती होते गए, जिसकी घोषणा नब्बे के दशक में हुई।
 
गोर्बाचौफ : उनका सत्ता में आना ही अपने आप में बड़ी बात थी। वे भी सत्ता में आए थे लेकिन सोवियत व्यवस्था को बदलने के लिए यदि कल्याणकारी पहल नहीं करते, तब भी उन्हें कोई नुकसान नहीं होता हालाकि बाद में अपनी ही कब्र खोदने का काम शोक स्वरूप किया। 1985 में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनाया और उन्होंने एक सुधार कार्यक्रम शुरू किया लेकिन तब भी उनके पास एक खराब अर्थव्यस्था और एक अक्षम राजनीतिक ढांचा था। 
 
लोगों में सत्ता के ख़िलाफ गुस्सा और उनकी नीतियां : उन्होंने पेरेस्त्रोइका (सरकार का नियंत्रण कम करना) और ग्लासनोस्त (खुलेपन की नीति)  नाम की दो नीतियां शुरू कीं। गोर्बाचौफ को लगा कि इससे निजी सेक्टर को फायदा होगा। इनोवेशन बढ़ेंगे और आगे चलकर विदेशी निवेश भी सोवियत संघ में होगा। उन्होंने मजदूरों को हड़ताल करने का अधिकार दिया ताकि वो बेहतर वेतन और काम के हालात की मांग करें।
 
असंतोष को डुबोया सोवियत संघ ने : ग्लासनोस्त के तहत 'खुलेपन और पारदर्शिता' को अपनाने की कोशिश हुई। सोल्जेनित्सिन और जॉर्ज ऑरवेल जैसे लेखकों की किताबों पर लगा प्रतिबंध हटाया गया। राजनीतिक कैदियों को रिहा किया गया और न्यूजपेपर्स को सरकार की नीतियों की आलोचना के लिए प्रोत्साहित किया गया। पहली बार चुनाव की कोशिश हुई और इसमें कम्युनिस्ट पार्टी शामिल हुई। नतीजतन ज्यादा राशन खरीदने के लिए लोगों की लाइनें लग गईं। कीमतें बढ़ने लगीं और लोग गोर्बाचौफ के शासन से परेशान होने लगे।
 
वर्ष 1991 को 25 दिसंबर की रात गोर्बाचौफ ने इस्तीफा दिया और अगले दिन उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए गए, जिसके तहत सोवियत संघ के सभी गणराज्य अलग-अलग हो गए। आर्थिक और राजनीतिक संकट के कारण उदारीकरण हुआ और लोकतंत्र शुरू हुआ। उदारीकरण और लोकतंत्रीकरण के कारण व्यवस्था संकट के दौर में पहुंची और सोवियत संघ टूट गया। जानकारों का कहना है कि अगर गोर्बाचौफ के आर्थिक सुधार न होते तो शायद आज भी सोवियत संघ का अस्तित्व होता।
 
गोर्बाचौफ सोवियत संघ के राज्यों को एक साथ रखने के लिए संघर्ष कर रहे थे और इस स्थिति के लिए वे अपने विरोधियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि 'मेरी पीठ पीछे धोखा हुआ। वे लोग सिगरेट जलाने के लिए पूरा घर जला रहे थे। बस सत्ता पाने के लिए....वे लोकतांत्रिक तरीके से ऐसा नहीं कर सकते थे? इसलिए उन्होंने अपराध किया। वह सब कुछ एक विद्रोह था।'
 
25 दिसंबर, 1991 को मिखाइल गोर्बाचौफ ने सोवियत संघ के राष्ट्रपति पद से इस्तीफा की घोषणा की और क्रेमलिन में सोवियत झंडे को आखिरी बार झुकाया गया था। गोर्बाचौफ बताते हैं, 'हम गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहे थे और मैं इसे बचाना चाहता था। लोग बंटे हुए थे, देश में संघर्ष की स्थिति थी, हथियारों की बाढ़ आ गई थी। इनमें परमाणु हथियार भी थे। बहुत से लोगों की जान जा सकती थी। बड़ी बर्बादी होती पर मैं सत्ता से चिपके रहने के लिए ये सब कुछ होते हुए नहीं देख सकता था, इस्तीफा देना मेरी जीत थी।'
 
मिखाइल गोर्बाचौफ मौजूदा राष्ट्रपति पुतिन की सीधी आलोचना करने से बचते हैं। अपने इस्तीफे में गोर्बाचौफ ने दावा किया कि उनके सुधार कार्यक्रमों की वजह से समाज को आज़ादी मिली। 25 साल बाद आज के रूस में क्या यह आजादी खतरे में है? इस पर वह जवाब देते हैं, 'यह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। हमें इसके बारे में खुलकर बात करने की जरूरत है। देश में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें आज़ादी से चिढ़ होती है और वे इसे लेकर अच्छा नहीं महसूस करते हैं।' वर्ष 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ था। इन 25 वर्षों में पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों ने क्या हासिल किया?
 
तख़्तापलट, आपात समिति : 19 अगस्त को केजीबी प्रमुख समेत आठ कम्युनिस्ट अधिकारियों ने सोवियत नेता मिखाइल गोर्बोचौफ को सत्ता से बेदखल कर दिया और एक आपात समिति का गठन कर लिया। गोर्बाचौफ को हिरासत में ले लिया गया, जबकि मॉस्को की गलियों में टैंक प्रवेश कर गए। लोकतंत्र का समर्थन करने वाले लोगों ने बोरिस येल्तसिन को अपना नया नेता चुन लिया।
 
येल्तसिन का इस्तीफ़ा, पुतिन आए और जम गए : 31 दिसंबर 1999 को बोरिस येल्तसिन ने देश को संबोधित किया और कहा कि वे समय से पहले ही रूसी राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा दे रहे हैं। येल्तसिन ने रूसी लोगों से माफी मांगी और व्लादिमीर पुतिन को कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया। तीन महीने बाद पुतिन को राष्ट्रपति चुनाव में जबरदस्त जीत मिली। तब से पुतिन ही सत्ता के केन्द्र में हैं और वे रूस को दुनिया में ताकत के मामले में
अमेरिका के सामने खड़ा करने में सफल हुए हैं और उनकी नीतियों से दुनिया प्रभावित हो रही है।
 

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