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महर्षि भृगु जयंती, जानिए भृगुवंश की 10 खास बातें जो आपको चौंका देंगी

महर्षि भृगु जयंती, जानिए भृगुवंश की 10 खास बातें जो आपको चौंका देंगी

अनिरुद्ध जोशी

, शुक्रवार, 1 मई 2020 (18:05 IST)
महर्षि भृगु के वंश को ही भार्गव वंश कहा गया है। आज भी उनके वंशजों जो संख्या बहुतायत में है। महर्षि भृगु एक महान ऋषि थे। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान मिला है। आओ जानते हैं इसने बारे खास 10 बातें। निम्नलिखिथ जानकारी पुराणों के अलावा विभिन्न स्रोतों से एकत्रित की गई है।
 
 
1. ब्रह्मा के पुत्र : यदि हम ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु की बात करें तो वे माथुर ब्राह्मणों के इतिहास अनुसार आज से लगभग 9,400 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। 
 
2. पत्नि और पुत्र पुत्री : महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। उनके दो पुत्र धाता और विधाता हैं तथा एक पुत्री लक्ष्मी (भार्गवी) हैं। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। 
 
देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत में खंडों में बिखरे वर्ण के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था जिनसे इनके दो पुत्र काव्य शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री श्रीलक्ष्मी का जन्म हुआ। 
 
3. अन्य संबंधी : दक्ष की दूसरी कन्या सती से भगवान शंकर ने विवाह किया था। भृगु ने अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह भगवान विष्णु से कर दिया था। इस तरह ये विष्णु के श्वसुर और शिव के साढू हुए।
 
4. क्या विष्णु को मिला था शाप? : कहते हैं कि दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया था। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गंगा तट पर आ जाते हैं, तमसा नदी की सृष्टि करते हैं।
 
5. अग्नि के अविष्कारक : ऐसी मान्यता है कि धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन करना सिखाया था। उन्होंने ही बताया था कि किस तरह अग्नि प्रज्वलित किया जा सकता है और किस तरह हम अग्नि का उपयोग कर सकते हैं। इसीलिए उन्हें अग्नि से उत्पन्न ऋषि मान लिया गया। जबकि वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पृथ्वी पर अग्नि को प्रदीप्त किया था। ऋग्वेद में वर्णन है कि उन्होंने मातरिश्वन् से अग्नि ली और उसको पृथ्वी पर लाए। इसी कारण सर्वप्रथम भृगु कुल के लोगों ने ही अग्नि की आराधना करना शुरू किया था।
 
6. इनके रचित कुछ ग्रंथ हैं- 'भृगु स्मृति' (आधुनिक मनुस्मृति), 'भृगु संहिता' (ज्योतिष), 'भृगु संहिता' (शिल्प), 'भृगु सूत्र', 'भृगु उपनिषद', 'भृगु गीता' आदि। 'भृगु संहिता' आज भी उपलब्ध है जिसकी मूल प्रति नेपाल के पुस्तकालय में ताम्रपत्र पर सुरक्षित रखी है। इस विशालकाय ग्रंथ को कई बैलगाड़ियों पर लादकर ले जाया गया था। भारतवर्ष में भी कई हस्तलिखित प्रतियां पंडितों के पास उपलब्ध हैं किंतु वे अपूर्ण हैं।
 
महर्षि भृगु का आयुर्वेद से भी घनिष्ठ संबंध था। अथर्ववेद एवं आयुर्वेद संबंधी प्राचीन ग्रंथों में स्थल-स्थल पर इनको प्रामाणिक आचार्य की भांति उल्लेखित किया गया है। आयुर्वेद में प्राकृतिक चिकित्सा का भी महत्व है। भृगु ऋषि ने सूर्य की किरणों द्वारा रोगों के उपशमन की चर्चा की है। वर्षा रूपी जल सूर्य की किरणों से प्रेरित होकर आता है। वह शल्य के समान पीड़ा देने वाले रोगों को दूर करने में समर्थ है।
 
7. ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के रचयिता : ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के रचयिता भी है भृगु। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। ऋग्वेद में उल्लेखित दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
 
8. संजीवनी विद्या : कहते हैं कि भृगु ने संजीवनी विद्या की भी खोज की थी। उन्होंने संजीवनी-बूटी खोजी थी अर्थात मृत प्राणी को जिन्दा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परम्परागत रूप से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। 
 
9. भृगु के वंशज : भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। पुराणों में कहा गया है कि इनसे भृगु वंश बढ़ा। ऋषि जमदग्नि और परशुराम भी भृगु वंशी थे। यह भी कहा जाता है कि पारसी धर्म के अनुयायी भी भृगु वंशी ही हैं। आज भी पारसी लोग ऋषि भृगु की अथवन् के रूप में पूजा करते हैं। पारसी धर्म के लोग भी अग्निपूजक हैं।
 
10. कितने भृगु? : माना जाता है कि प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से भृगु का जन्म हुआ था। यह भी कहा जाता है कि इनके माता पिता वरुण और चार्षिणी थे। इनकी पत्नी दिव्या और पुलोमा। दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य और त्वष्टा (विश्वकर्मा) थे। जबकि पौलमी के पुत्र ऋचीक व च्यवन और पुत्री रेणुका तथा प्रपौत्र परशुराम थे।
 
महर्षि भृगु की उत्पत्ति के संबंध में अनेक मत हैं। कुछ विद्वानों द्वारा इन्हें अग्नि से उत्पन्न बताया गया है, तो कुछ ने इन्हें ब्रह्मा की त्वचा एवं हृदय से उत्पन्न बताया है। कुछ विद्वान इनके पिता को वरुण बताते हैं। कुछ कवि तथा मनु को इनका जनक मानते हैं। कुछ का मानना है कि ब्रह्मा के बाद 7500 ईसा पूर्व प्रचेता नाम से एक ब्रह्मा हुए थे जिनके यहां भृगु का जन्म हुआ।
 
वरुण के भृगु : भागवत के अनुसार वरुणदेव की चार्षिणी पत्नी से 9153 विक्रम संवत पूर्व भृगु, वाल्मीकि और अगस्त्य नामक 3 पुत्रों का जन्म हुआ। इस मान से भृगु ब्रह्मा के पुत्र न होकर असुरदेव वरुण के पुत्र थे। वरुण का निवास स्थान अरब माना गया है, हालांकि विद्वान मानते हैं कि इन भृगु का जन्म ईरान में 7500 ईसा पूर्व के आसपास हुआ था।
 
भृगु की दो पत्नियां : महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए। इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी।
 
पहली पत्नी : पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है।
 
नोट : ऋग्वेद की अनुक्रमणिका से ज्ञात होता है कि असुरों के पुरोहित भृगु के पौत्र और कवि ऋषि के सुपुत्र थे। महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ऋषि ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। भृगु ने उस समय अपनी पुत्री रेणुका का विवाह विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) से किया। 
 
दूसरी पत्नी पौलमी : पौलमी असुरों के पुलोम वंश की कन्या थी। पुलोम की कन्या की सगाई पहले अपने ही वंश के एक पुरुष से, जिसका नाम महाभारत शांतिपर्व अध्याय 13 के अनुसार दंस था, से हुई थी। परंतु उसके पिता ने यह संबंध छोड़कर उसका विवाह महर्षि भृगु से कर दिया।
 
जब महर्षि च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। इस घटना से दंस पौलमी को छोड़कर चला गया, तत्पश्चात पौलमी दुख से रोती हुई शिशु (च्यवन) को गोद में उठाकर पुन: आश्रम को लौटी। पौलमी के गर्भ से 5 और पुत्र बताए गए हैं।
 
शुक्राचार्य : शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
 
च्यवन ऋषि : च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
 
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। द‍धीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ। और्व कुल का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद में 8-10-2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7-1-8-1, पंच ब्राह्मण 21-10-6, विष्णुधर्म 1-32 तथा महाभारत अनु. 56 आदि में प्राप्त है। 
 
ऋचीक : पुराणों के अनुसार महर्षि ऋचीक, जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, के पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ।
 
उल्लेखनीय है कि गाधि के एक विश्वविख्‍यात पुत्र हुए जिनका नाम विश्वामित्र था जिनकी गुरु वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। 
 
तीसरा विरोधाभाष : मरीचि कुल में एक और भृगु हुए जिनकी ख्याति ज्यादा थी। इनका जन्म 5000 ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (वर्तमान ईरान) में हुआ था। इनके परदादा का नाम मरीचि, दादाजी का नाम कश्यप ऋषि, दादी का नाम अदिति था। 
 
इनके पिता प्रचेता-विधाता जो ब्रह्मलोक के राजा बनने के बाद प्रजापिता ब्रह्मा कहलाए, अपने माता-पिता अदिति-कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र थे। महर्षि भृगुजी की माता का नाम वीरणी देवी था। अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। इनके पुत्र बृहस्पतिजी हुए, जो देवगणों के पुरोहित-देव गुरु के रूप में जाने जाते हैं। यदि दोनों ही भृगु एक ही है तो फिर उनकी तीन पत्नियां थी- ख्या‍ति, दिव्या और पौलमी हुई।
 
 

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