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रूसी क्रांति के सौ साल : एक महास्वप्न का अंत

सुशोभित सक्तावत
उन्‍नीस सौ सत्रह में जब रूस में अक्‍तूबर क्रांति हुई, तब रूस एक सामंती मुल्‍क हुआ करता था, वो एक फ़्यूडल स्‍टेट था। 
 
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि क्रांति के समय रूस में क्‍लासिकी पूंजीवाद नहीं था, वो तो ब्रिटेन और फ्रांस में था। अमरीका में था। 
 
कार्ल मार्क्‍स की जो "थ्‍योरी ऑफ़ हिस्‍ट्री" है, वो अर्थव्‍यवस्‍थाओं और राजव्‍यवस्‍थाओं में एक क्रमिक विकासक्रम को लक्ष्‍य करती है। 
 
मार्क्‍स कहता था कि सभ्यताओं के आदिम स्वरूप होते हैं, सामंत और भूदास होते हैं, शोषक और शोषित होते हैं और इनमें से पूंजीवाद निकलता है। पूंजीवाद की परिणति समाजवाद और फिर साम्यवाद के रूप में होती है, एक राज्‍यहीन-वर्गविहीन समाज।
 
यानी, कम्‍युनिज्‍़म उसमें एक क्‍लाइमैक्‍स था। सबसे बड़ा यूटोपिया था। 
 
इसका प्रयोग सोवियत रूस में किया गया, लेकिन हुआ इतना ही कि वहां पर एक नई स्‍टेट पॉवर और नए वर्ग उभरकर सामने आ गए।
 
ज़ार के बजाय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का लीडर आ गया। 
 
सामंतों के स्‍थान पर कमिस्‍सार आ गए। 
 
कैथेड्रल ढहाए गए तो क्रेमलिन नया तीर्थस्‍थल बन गया। 
 
पादरियों को साइबेरिया भेज दिया गया (सच्‍चा सेकुलरिज्‍़म था सोवियत निज़ाम में), लेकिन चौराहों पर लेनिन के पुतले खड़े हो गए। 
 
लेनिन अब नया देवता था।
 
सोवियत रूस में मार्क्‍स की कल्‍पनाएं साकार हुई थीं, या फिर गहरे अर्थों में वह मार्क्‍स की ऐतिहासिक थ्‍योरी का प्रत्‍याख्‍यान था, उसका एंटी-थीसीस था?
 
वास्‍तव में सोवियत रूस ही नहीं, यह "थ्‍योरी ऑफ़ हिस्‍ट्री" कई जगह डगमगाई है। 
 
ब्रिटेन इम्‍पीरियल स्‍टेट था, मोनार्की था। वो एक मॉडल डेमोक्रेसी बन गया। वेस्‍टमिंस्‍टर प्रणाली। 
 
अमरीका कॉलोनी था। ब्रिटेन का उपनिवेश था। वो बूर्ज्‍वा कैपिटलिस्‍ट मुल्‍क बन गया। 
 
इटली और जर्मनी में फ़ासिस्‍ट रिजीम रही और फिर वे आधुनिक राष्‍ट्र-राज्‍यों के रूप में उभरे। आज जर्मनी यूरोपियन यूनियन में सबसे क़द्दावर है। एक फ़ेडरेशन के भीतर वो वीटो पॉवर है। 
 
लेकिन फ़ासिज्‍़म की परिघटना के लिए कोई स्‍पष्‍ट कोटियां मार्क्‍सवादी दर्शन में मिलती हैं? ताक़त की भूख के लिए?
 
भारत की ही बात करें। 1950 में भारत रिपब्लिक स्‍टेट बना। उसका एक विधान बना, निशान बना, प्रधान बना। उसके पहले वो एक उपनिवेश था। लेकिन उसके पहले क्‍या था? शास्त्रीय पूंजीवाद यहां कभी आया ही नहीं, और नेहरू बहादुर यहां फ़ेबियन काट वाला समाजवाद ले आए। आज बहुतों को यहां कम्‍युनिस्‍ट क्रांति का इंतज़ार है। कैसे आएगी, कहां से आएगी? मार्क्‍स को झुठलाकर आएगी या उसके द्वारा निर्दिष्‍ट प्रविधियों के अनुसार आएगी?
 
वास्तव में रूसी क्रांति की अनेक विडंबनाओं में से एक यह है कि वह ख़ुद मार्क्स की मान्यताओं को झुठलाकर संभव हुई थी, उसके पीछे चाहे जितना बड़ा महास्वप्न हो, उसकी जड़ें इतिहास में गहरी कभी नहीं हो सकती थीं।
 
यह रूसी क्रांति का शताब्दी वर्ष है।
 
अफ़सोस की बात है कि अपनी सौवीं जयंती मनाने के लिए रूसी क्रांति द्वारा रची गई सोवियत सत्ता अब अस्त‍ित्व में नहीं है। 
 
1991 में सोवियत संघ टूटकर बिखर गया और पंद्रह नए राष्ट्र अस्तित्व में आए!
 
1945 से 1990 तक अगर शीतयुद्ध की टाइमलाइन मानें तो आप कह सकते हैं कि 1991 में अमेरिका की दोहरी विजय हुई थी। रूस का विघटन और भारत में उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का पदार्पण।
 
साम्यवादी व्यवस्था में निहित सबसे बड़ा द्वैत यह है कि ख़ुद को लेफ़्ट कहने वाले लिबरल्स आज़ादी की चाहे जितनी बात कर लें, दुनिया में आज़ादी को कुलचने की जैसी साज़िशें कम्युनिस्टों ने की है, वैसी किसी और ने नहीं की।
 
हर कम्युनिस्ट सत्ता तंत्र वास्तव में एक तानाशाहीपूर्ण व्यवस्था थी। रूस में तो थी ही, क्यूबा, वेनेज़ुएला, वियतनाम, चीन आदि में भी यही आलम था। अभी उत्तरी कोरिया देख लीजिए।
 
दुविधा यह है कि अगर समानता होगी तो स्वतंत्रता नहीं होगी, और अगर स्वतंत्रता होगी तो समानता नहीं होगी, ऐसी कुछ मनुष्य के मनोविज्ञान द्वारा रची गई जड़ताएं हैं।
 
और ऐसा इसलिए है कि प्रकृति ने ही सभी मनुष्यों को समान नहीं रचा ।
 
अगर स्वतंत्रता होगी, जो कि खुले बाज़ार की व्यवस्था में प्रेरणा की तरह मुहैया कराई जाती है, तो पूंजी का केंद्रीकरण हो जाएगा और आर्थ‍िक विषमता की तस्वीरें उभरकर सामने आ जाएंगी।
 
और अगर स्वतंत्रता को बाधित कर किसी व्यवस्था पर समानता को लादा जाएगा, जैसा कि कम्युनिस्ट तंत्रों ने किया था, तो बाज़ार में अवसाद छा जाएगा और साहसी की प्रेरणा मर जाएगी। 
 
1991 के साल में रूस ने ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका के प्रति जैसी ललक दिखलाई थी, वह यह बता रहा था कि 75 साल से तानाशाही तंत्र के नीचे रह-रहकर यह देश अब मनुष्यों से ज़्यादा मशीनों का तंत्र बनकर रह गया है।
 
रूसी क्रांति के शताब्दी वर्ष में इससे बड़ा शोकगायन कोई दूसरा नहीं हो सकता कि हम कहें कि अब वैसी कोई क्रांति फिर नहीं दोहराई जाएगी और हम एक स्वप्नहीन समाज में जीते रहेंगे।
 
शायद लोकतंत्र के माध्यम से कोई नए स्वरूप उभरकर सामने आए, जो सूचना तकनीकी की मदद से एक विश्वव्यापी सजग जनमत का निर्माण करे। 
 
इन शायद के अलावा अब हमारे पास अब कोई विकल्प नहीं हैं और बोल्वेशिक क्रांति का विकल्प तो हरगिज़ नहीं।
 
लाल सलाम को यह संसार ढाई दशक पहले ही अंतिम सलामी दे चुका है।

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