भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी के बीच राजनीति सबसे फायदेमंद पेशे के तौर पर उभरी है। यहां विधायकों की औसतन सालाना कमाई 25 लाख है, यानी हर महीने दो लाख से ज्यादा। इनमें से सबसे ऊपर कर्नाटक के विधायक हैं। कर्नाटक के विधायकों की औसतन सालाना कमाई 1.1 करोड़ है। इस मामले में पूर्वी राज्यों के विधायक 8।5 लाख की औसत के साथ सबसे नीचे हैं। विडंबना यह है कि निरक्षर विधायकों की सालाना कमाई भी 9.3 लाख रुपये है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वॉच (न्यू) की ताजा रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि देश में फिलहाल 3.10 करोड़ पढ़े-लिखे युवाओं को नौकरियों की तलाश है। विधायकों की कमाई के इन आंकड़ों से इंजीनियरों, एमबीबीएस की डिग्री लेकर कॉलेज से निकलने वाले डॉक्टरों और एमबीए डिग्रीधारियों को भी ईर्ष्या हो सकती है।
क्या कहती है रिपोर्ट
विधायकों की कमाई के विश्लेषण पर आधारित इस ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि कमाई के मामले में देश के पिछड़े राज्यों में शुमार आदिवासी-बहुल राज्य छत्तीसगढ़ के 63 विधायक सबसे गरीब हैं। उनकी सालाना आय महज 5.4 लाख रुपये है। जबकि तथ्य यह है कि इतना वेतन तो देश के नामी-गिरामी संस्थानों में चार साल तक हाड़-तोड़ पढ़ाई के बाद बीटेक की डिग्री लेकर निकलने वाले इंजीनियरों को भी शुरू में नहीं मिलता। दक्षिणी राज्यों के 711 विधायकों की औसतन सालाना आय 52 लाख रुपये रही है। यानी हर महीने औसतन 4.33 लाख रुपये।
दिलचस्प बात यह है कि दूसरे पेशों में जहां वेतन और उम्मीदवारों की डिग्रियों में नजदीकी सबंध होता है, वहीं राजनीति में ऐसा कोई नियम या फॉर्मूला नहीं है। कम से कम विधायकों के मामले में तो यह बात सौ फीसदी लागू होती है। देश के कुल 4,086 विधायकों में से जिन 3,145 लोगों के हलफनामों के आधार पर उक्त नतीजे सामने आए हैं, उनमें से एक तिहाई कम पढ़े-लिखे विधायकों की औसतन सालाना कमाई ग्रेजुएट व पोस्ट-ग्रेजुएट विधायकों के मुकाबले ज्यादा है।
मिसाल के तौर पर पांचवीं से 12वीं कक्षा तक पढ़े विधायकों की औसतन सालाना कमाई जहां 31 लाख रुपये है, वहीं ग्रेजुएट या उससे ऊंची डिग्री वाले विधायकों की कमाई करीब 21 लाख रुपये ही रही। निरक्षर विधायकों की भी औसतन सालाना कमाई 9.3 लाख रुपये है। देश के 941 विधायकों के अपनी आय घोषित नहीं करने की वजह से उक्त अध्ययन में उनको शामिल नहीं किया जा सका। लेकिन आखिर कम पढ़े-लिखे विधायकों की तादाद उच्च-शिक्षा वाले विधायकों के मुकाबले ज्यादा क्यों है?
एडीआर के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर इस बारे में कहते हैं, "राजनीति में ऊंची डिग्री ज्यादा कमाई का पैमाना नहीं होती। कई विधायकों ने कृषि को अपना पेशा दिखाया है। कृषि से होने वाली आय के करमुक्त होने की वजह से उन्होंने ऐसा किया है।" प्रोफेसर छोकर कहते हैं कि विधायकों को अपनी इस कमाई का कोई हिसाब भी नहीं देना पड़ता।
देश में सबसे अमीर विधायक कर्नाटक के बंगलुरू ग्रामीण सीट के एन नागराजू ने 157 करोड़ की सालाना कमाई घोषित की है, जबकि इस मामले में सबसे गरीब हैं आंध्र प्रदेश के बी यामिनी बाला, जिन्होंने सालाना महज 1,301 रुपये की कमाई घोषित की है।
बढ़ रही है बेरोजगारी
दूसरी ओर देश में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की तादाद लगातार बढ़ रही है। व्यापार और आर्थिक आंकड़ों की निगरानी करने वाले सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि भारत में इस साल फरवरी तक नौकरी तलाशने वाले पढ़े-लिखे युवाओं की तादाद 3.10 करोड़ थी। वर्ष 1983 से 2017 तक औसत बेरोजगारी दर 4.05 रही है। 2016 में यह आंकड़ा 3.51 था, जो 2017 में बढ़ कर 3.52 हो गया। इससे साफ है कि बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ रही है।
देश में सबसे गरीब समझे जाने वाले पश्चिम बंगाल के विधायकों का वेतन अब बीते साल पहली अप्रैल से औसतन पांच हजार रुपये बढ़ गया है। उनका दैनिक भत्ता भी बढ़ा कर दो हजार रुपये कर दिया गया है। हालांकि इस बढ़ोतरी के बावजूद नए बने राज्य तेलांगाना के विधायकों से यह काफी कम है।
तेलंगाना के विधायकों को महीने में ढाई लाख रुपये मिलते हैं। बिजली मंत्री शोभनदेव चट्टोपाध्याय इस बढ़ोतरी को जायज ठहराते हैं। वह कहते हैं, "दूसरे राज्यों के मुकाबले यहां विधायकों का वेतन बहुत ही कम है। छोटे-छोटे राज्यों के विधायकों का वेतन भी यहां के विधायकों से ज्यादा है। तेलंगाना के विधायकों को हर महीने ढाई लाख रुपये मिलते हैं।"
ताजा बढ़ोतरी के बाद अब बंगाल के विधायकों का वेतन बढ़ कर 17 हजार 500 रुपये हो गया है। इसी तरह कैबिनेट मंत्री को 22 हजार रुपये और राज्य मंत्री को 21 हजार 900 रुपये मिलते हैं। विधानसभा अध्यक्ष का वेतन अब 27 हजार हो गया है, जबकि मुख्यमंत्री का 27 हजार एक रुपये। हालांकि ममता बनर्जी हर महीने सांकेतिक वेतन के तौर पर एक रुपया ही लेती हैं।
दिलचस्प बात यह है कि तमाम नौकरियों में जहां रिटायरमेंट की उम्र तय है, वहीं राजनीति में ऐसी कोई सीमा नहीं हैं। देश में 81 से 90 साल की उम्र तक के 11 विधायक ऐसे भी हैं, जिनकी सालाना आय 88 लाख रुपये है।
खाई पाटने की वकालत
कई सामाजिक संगठनों ने दूसरे पेशों के मुकाबले राजनीति में होने वाली आय में अंतर को ध्यान में रखते हुए इस खाई को पाटने की अपील की है। एक सामाजिक संगठन के सदस्य मिहिर नाथ कहते हैं, "एक ओर जहां बरसों कॉलेज व विश्वविद्यालयों में एड़ियां घिसने के बावजूद युवाओं को कुछ हजार रुपये महीने की नौकरी नहीं मिल पाती, वहीं राजनीति में निरक्षर लोगों की सालाना आय भी लाखों में है। इस सामाजिक विसंगति को दूर करना जरूरी है।"
एक समाजशास्त्री प्रोफेसर महेंद्र उरांव भी यही बात कहते हैं; "राजनीति के एक मलाईदार पेशा बन जाने की वजह से अब पढ़े-लिखे लोग भी नौकरियों या शोध की बजाय राजनीति को ही तरजीह दे रहे हैं। दूसरे पेशों के साथ राजनीति की कमाई का संतुलन बनाना जरूरी है।"
कई राजनेताओं को तो अब भी अपनी कमाई कम लगती है। पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता व सीपीएम विधायक सुजन चक्रवर्ती की मांग है, "पूर्व विधायकों को मिलने वाली पेंशन भी बढ़नी चाहिए।"
संसदीय कार्य मंत्री पार्थ चटर्जी कहते हैं, "वाम मोर्चा सरकार के लंबे शासनकाल के दौरान यहां विधायकों का वेतन देश में सबसे कम रहा। मौजूदा दौर में ऐसे मामूली वेतन में ईमानदारी से जिम्मेदारियों का निर्वाह करना मुश्किल है।" चटर्जी मानते हैं कि यह वेतन और ज्यादा बढ़ना चाहिए था। उन्होंने राज्य के खजाने की हालत सुधारने पर इसमें और वृद्धि का भरोसा दिया है।