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एनआरआई पतियों के झांसों और अत्याचारों से लड़ रही हैं महिलाएं

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मंगलवार, 30 अप्रैल 2019 (11:20 IST)
शादी का झांसा देकर भाग जाने वाले या पत्नियों को प्रताड़ित करने वाले एनआरआई पुरुषों के खिलाफ भारत में शिकायतों का अंबार लगता जा रहा है। महिला उत्पीड़न के ऐसे मामलों पर कानूनी उपाय आधेअधूरे हैं और सामाजिक जागरूकता गायब।
 
 
2018-19 में भगौड़े एनआरआई पतियों की शिकायतों के मामले पिछले कुछ साल से लगातार बढ़ते पाए गए हैं। इस दौरान भगौड़े एनआरआई पतियों की कुल 828 शिकायतें मिली हैं। सबसे ज्यादा 96 शिकायतें दिल्ली में, 95 पंजाब में, 94 उत्तरप्रदेश में और 68 हरियाणा में दर्ज हुई हैं। इसी तरह दक्षिण भारतीय राज्यों से भी शिकायतों में कमी नहीं है। तमिलनाडु से 65, तेलंगाना से 64 और आंध्रप्रदेश से 54 शिकायतें हैं। पश्चिमी भारत की बात करें, तो महराष्ट्र से 63 और गुजरात से 48 शिकायतें मिली हैं। 2017 में महिला आयोग को कुल 528 शिकायतें मिली थीं और सबसे ज्यादा उस समय क्रमशः यूपी, दिल्ली, महाराष्ट्र और पंजाब से थीं।
 
 
यह आंकड़ा राष्ट्रीय महिला आयोग का है जिसने दस साल पहले सितंबर 2009 में एनआरआई सेल का गठन किया था। 2008 में महिला सशक्तीकरण पर गठित संसदीय समिति की सिफारिशों पर एनआरआई शादियों से जुड़े मुद्दों के लिए आयोग को कोऑर्डिनेटिंग एजेंसी बनाया गया था। तबसे कुल उसके पास ऐसे पतियों की 4274 शिकायतें आ चुकी हैं जो शादी कर चंपत हो जाते हैं और अपनी नवविवाहिता पत्नी को ससुराल वालों और रिश्तेदारों के पास या अपने हाल पर छोड़ जाते हैं। महिला आयोग के पास उपलब्ध सूचना के मुताबिक विदेश मंत्रालय ने पिछले साल से अब तक 61 पुरुषों के पार्सपोर्ट या तो स्थगित या रद्द कर दिए हैं। अन्य 14 मामलों की जांच जारी है।
 
 
ये सही है कि महिलाएं अब लोकलाज के डर से रिपोर्ट कराने में संकोच नहीं कर रही हैं लेकिन जैसी आपबीती इन शिकायतों के जरिए सामने आ रही हैं उनसे पता चलता है कि महिलाओं को आखिर घर हो या बाहर कितनी भयानक यातनाओं, मुसीबतों और असुरक्षाओं का सामना करना पड़ रहा है। महिला आयोग तो दस साल से ऐसे मामलों को देख रहा है लेकिन तमाम संसदीय कवायदों के बावजूद केंद्र सरकार इस मामले पर देर में जागी। इसी साल फरवरी में बजट सत्र के दौरान राज्यसभा में "द रजिस्ट्रेशन ऑफ मैरेज ऑफ नॉन रेजिडंट इंडियन बिल 2019" पेश किया गया था। कड़े प्रावधानों के बावजूद यह बिल जहां का तहां ही अटका रह गया है।
 
 
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल अक्टूबर में एनआरआई पतियों के खिलाफ पीड़िताओं ने एक याचिका कोर्ट में डाली थी। हिंसा और परित्यक्तता के अलावा अदालती समन की पतियों द्वारा अनदेखी, भारत आने पर अपनी पत्नियों के वीजा रद्द कराने, कोई संपर्क न रखने, शादी कर विदेश लौट जाने वाले और वहां पहुंचकर पत्नी से सारे संपर्क काट देने, उसे वीजा न दिलाने जैसी शिकायतें भी सामने आती रही हैं। जाहिर है इस बारे में कोई निश्चित और ठोस कानूनी उपचार महिलाओं को उपलब्ध नहीं है, लिहाजा एनआरआई पुरुष कमजोर सिस्टम का फायदा उठा लेते हैं। महिला अधिकारों से जुड़े एक्टिविस्टों और संगठनों का आरोप है कि बाजदफा इन एनआरआई शादियों की आड़ में विदेशी जमीन पर देह व्यापार और मानव तस्करी जैसे अपराधों को अंजाम भी दिया जाता है।
 
 
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में एक जनहित याचिका भी दायर दी की गई थी, जिसमें नवब्याहताओं के मूल अधिकारों की हिफाजत की मांग की गई थी। इसमें कुछ महत्वपूर्ण संभावित उपायों और सिफारिशों का उल्लेख भी किया गया था। केंद्र और अन्य प्राधिकरणों के लिए बाध्यकारी दिशानिर्देशों का सुझाव है कि वे ऐसे मामलों पर न सिर्फ तत्काल कार्रवाई करें, बल्कि पीड़िताओं की हर किस्म की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जाए और कड़ी सजा का प्रावधान रखा जाए। इसमें जाहिर है इमीग्रेशन सेवाओं, पासपोर्ट कार्यालय और भारतीय दूतावासों या उच्यायोगों को भी निर्देश दिए जाने की जरूरत बताई गई है। पुलिस तत्काल प्रभाव से एफआईआर दर्ज कर जांच करे।
 
 
भगौड़े पतियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होते ही लुकआउट सर्कुलर जारी होना चाहिए। अभियुक्त के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामला चलाया जाए। विदेशों में रहने वाले आरोपी पुरुषों के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी होना चाहिए ताकि वे इसकी अनदेखी न कर सकें। परित्यक्त स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए और अगर बच्चे हैं तो उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और आवासीय मदद भी दी जानी चाहिए। जाहिर है इसके लिए कोर्ट के आदेश के बाद आर्थिक राशि दंड के तौर पर पति या उसके घरवालों से वसूली जा सकती है।
 
 
कानूनी और अन्य प्रावधानों के अलावा सामाजिक और शैक्षिक जागरूकता भी जरूरी है। शादी की इच्छुक लड़कियों और उनके परिजनों की तसल्ली और सुविधा के लिए आधिकारिक या वैधानिक एजेंसी होनी चाहिए जो सभी तरह की जरूरी पूछताछ के जवाब दे सकने या जांच करा सकने में समर्थ हो। सरकार और कानून द्वारा निर्धारित एजेंसी की देखरेख में ही ऐसी शादियां कराई जाएं, तो ये भी एक चेकप्वाइंट की तरह हो सकता है। ऐसी स्थितियों मे एनआरआई पुरुषों का डाटा सहज उपलब्ध होना चाहिए और वधु पक्ष को इसके लिए कानूनी संरक्षण मिलना चाहिए।
 
 
ऑनलाइन सेवाओं में भी पारदर्शिता की जरूरत है ताकि कोई लड़की किसी तरह के झांसे में न आने पाए। यह सही है कि परिवार, घर की चारदीवारी, विवाह जैसी अवधारणाएं और निजी और सार्वजनिक स्पेस की दलीलें भारतीय समाज में बहुत गहरे पैठी हैं और अकसर कानूनी प्रावधानों के दायरे से अलग ही रही हैं। ऐसे में औरतों के लिए स्थितियां दुष्कर भी हैं। यह तभी सही हो सकता है जब सरकारें और अन्य आधिकारिक संस्थाएं स्त्रीसम्मत नजरिए से ऐसे मामलों को सुलझाने की कोशिश करें।
 
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी

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