Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

बिना मिले झगड़ते रहने वाली दुनिया

बिना मिले झगड़ते रहने वाली दुनिया
webdunia

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

झगड़ा मनुष्य का गुण है या अवगुण इस पर कोई और टीका टिप्पणी नहीं।पर आज सूचना क्रांति के आभासी युग में शान्त और सरल स्वभाव के दुनियाभर के लोग भी घर बैठे ही झगड़ों के चक्रव्यूह में उलझे ही नहीं, निरन्तर रहने भी लगे हैं।इसी से मैंने शुरूआत में ही स्पष्ट किया कि झगड़ा, गुण है या अवगुण, इस पर कोई बात नहीं करेंगे।झगड़ा इतना तगड़ा है कि हम चाहे न चाहे यदि हम आभासी दुनिया के आदी हो गए हैं तो आभासी झगड़ा हमारे जीवन का अविभाज्य अंग हो गया है।यदि हम आभासी दुनिया में रचे-बसे न हों तो फिर हम अपने मन के राजा हैं।

अपन भले और अपनी दुनिया भली।इससे उलट यदि हम आभासी दुनिया में लिप्त हैं तो हमारी दशा दुनियाभर की हर छोटी-बड़ी क्रिया प्रतिक्रिया की कठपुतली की तरह है।जो दूसरों की उंगलियों पर हर समय नाचती रहती है।वास्तविक दुनिया और आभासी दुनिया में आकाश-पाताल जैसा भेद है फिर भी आज की दुनिया की आबादी वास्तविक दुनिया से ज्यादा आभासी दुनिया की आदी होती जा रही है।आभासी दुनिया की चकाचौंध और तेज गति शायद आभासी दुनिया के प्रति मनुष्य के बावलेपन का मुख्यकारक हो। जीवन के प्रारम्भ से मनुष्य प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही वास्तविक दुनिया को जान-समझ या देख पाता था।

यह सब जानने-समझने और देखने के लिए शरीर को हर जगह ले जाए बिना कुछ देख-सुन या प्रत्यक्ष जान समझ नहीं सकते थे।आभासी दुनिया ने दुनिया का सबसे बड़ा उलटफेर कर दिया, अब किसी बात के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं, दिनभर कहीं भी कभी भी बैठे-बैठे या लेटे-लेटे,दुनियाभर की छोटी-बड़ी सारी गतिविधियां, जिनका आपसे सीधा या दूर का भी कोई ताल्लुक नहीं हैं फिर भी सुबह उठने से लेकर रात सोने तक आप की अंगुलियों की गतिशीलता से आभासी रूप से आपके जीवन में हर समय हाज़िर हैं।इसका नतीज़ा हम सबको महसूस तो हो रहा है पर उसे हम जानते-बूझते भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।

नतीजा हमारे भौतिक जीवन का प्रवाह एक छोटे से गड्ढे के पानी जैसा सिकुड़ गया है और मानस चौबीसों घंटे बारहों माह आंधी-तूफान की तरह हो गया और हमारी जीवन की लय ही न जाने कहां भटक गई और हमारी सारी जीवनीशक्ति अंगुलियों में सिमट गई। पहले ताकतवर लोग दुनिया के लोगों को अपनी अंगुलियों के बल पर नचाने का सपना देखते थे या नचाते थे, अपने साम्राज्य की सत्ता,सेना और सम्पत्ति के बल पर।

आज हम सब सूचना तकनीक के काल में खुद ही खुद की अंगुलियों के बल पर खुद का पैसा स्वेच्छा से आदत की गुलामीवश लुटाकर नाचने लगे हैं।डरने लगे हैं,डराने लगे हैं,छाने लगे हैं, फूल कर कुप्पा होने लगे हैं और असमय मुरझाने लगे हैं।बैठे-बैठे ही कहीं गए-मिले बगैर ही आभासी अनुयायी नहीं फालोअर बनाने लगे हैं और अपने आभासी आंकड़ों पर इतराने लगे हैं।भले ही इतनी लंबी जिंदगी में हमारे पास सांसों का हिसाब न हो पर सूचना तकनीक के पास हमारे पल-पल का पूरा हिसाब है जो हमारी अंगुलिया हर क्लिक पर दर्ज करती जा रही हैं।

सूचना तकनीक ने भले ही बहुत सारी बातों को सुगम और गतिशील बनाया हो, पर हमारी निजता को छिन्न-भिन्न ही नहीं सारी दुनिया की पहुंच में ला दिया है या विकास की सरकारी भाषा में कहें तो निजता का लोकव्यापीकरण कर दिया हैं। आज की दुनिया में उसी मनुष्य के पास अपनी निजता का सुख या सानिध्य है जो सूचना तकनीक को अपने इस्तेमाल का विषय ही नहीं मानता, अन्यथा सारी दुनिया के लोग सूचना तकनीक के साधनों के इतने अधिक आदी हो गए की सिम खत्म हुई नहीं कि तत्काल रिचार्ज करवाना जैसे सांस लेने से भी अधिक जीवन की अनिवार्यता हो।

उस पर भी आनन्द यह है कि सूचना तकनीक के काल से पहले दूसरे के पत्र को खोलकर पढ़ लेना न केवल बदतमीजी समझा जाता था वरन एक-दूसरे की निजता को निभाना निजी और सार्वजनिक जीवन की अलिखित सभ्यता की सर्वमान्य परम्परा थी।यहां सभ्यता की सर्वमान्य परम्परा शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया है, क्‍योंकि हमारे मानवीय जीवन में असभ्यता के भी बहुत गहरे संस्कार हैं जिनका विस्फोट सूचना क्रांति के दौर में दिन दूना, रात चौगुना होता जा रहा है और हम सबकुछ जानते-बूझते न केवल बेखबर हैं वरन अपने गांठ का पैसा खर्च कर स्वेच्छा से अपनी निजता का विसर्जन कर रहे हैं।

सूचना तकनीक ने सबकुछ खोल दिया यानी आजाद कर दिया, पर निजता की आजादी को बिना पूछे हमसे छीन लिया और सब निरन्तर स्वेच्छा से भुगतान कर निजता की आजादी को समाप्त होते देख शायद इसलिए खुश हैं कि भले ही हमारी निजता की आजादी लुप्त हो गई हो, पर दूसरों की निजता में सुबह से रात तक हस्तक्षेप का आनन्द तो बिन मांगे ही मिल गया।भले ही हम अपनी आजादी की रक्षा नहीं कर पाते पर दूसरों की निजता को आभासी रूप से छीनते रहने का अंतहीन औजार तो मिल गया।इसी में पूरी दुनिया मगन हो अंतहीन असभ्यता की नई सभ्यता का निरन्तर फैलाव कर रही है।

साथ ही सबकुछ जानकर भी अनजान बनकर सूचना क्रांति को ही जीवन की अनिवार्यता की नई आभासी सभ्यता मानने में प्राणप्रण से जुट गई हैं। साथ ही साथ बैठे-बैठे या लेटे-लेटे ही जीवन के सारे व्यवहार प्रत्यक्ष कहीं जाए बगैर आभासी रूप से करके ही मगन होती जा रही है और जीवन के विराट प्रत्यक्ष स्वरूप को भूलती जा रही है।प्रत्यक्ष के प्रमाण को स्वेच्छा से त्यागकर आभासी जीवन की मृगतृष्णा से आशा से ज्यादा अपेक्षा कर जीवन की प्रत्यक्ष प्राकृतिक आजादी और निजता को इतिहास में दफन कर रही है।

जो सभ्यता अपनी आजादी और निजता की कीमत पर नई विकसित दुनिया खड़ी करती जा रही है, वह गतिशीलता की दौड़ में कूद तो गई है, पर मनुष्य जीवन के प्रत्यक्ष प्राकृतिक जीवन से अलग-थलग होकर एक भौंचक मानव समाज में बदल रही है। जो प्रत्यक्ष को छोड़ आभासी दुनिया का दीवाना है।प्रत्यक्ष दुनिया अपने मानवीय मस्तिष्क से हर चुनौती का हल खोजने का सामर्थ्य बताती रही है पर आभासी दुनिया का भौंचक समाज आतंक, भय, उत्तेजना, अंधानुकरण और विचारहीनता की भेड़चाल को ही एकमात्र रास्ता मानता है जिसमें जीवनभर बिना सोचे-समझे टुकुर-टुकुर देखते रहना ही जीवन का एकमात्र क्रम बन जाता है।

हम प्रत्यक्ष दुनिया के जीवंत मानव से आभासी दुनिया की भेड़चाल के अंतहीन राहगीर में अपने आपको क्यों कर बदलते जा रहे हैं, यही वर्तमान का खुला सवाल है।जिसे हम सब निजी और सार्वजनिक जीवन में जानते-बूझते भी अनदेखा कर रहे हैं।हमारी सामूहिक चुप्पी हमें संवेदनशील मानव सभ्यता से भीड़ की असभ्यता का आदी बना चुकी है, यही काल की सबसे बड़ी प्रत्यक्ष चुनौती है जिसका हमें अहसास भी नहीं हो पा रहा है तभी तो हम सब आभासी दुनिया में तेज रफ्तार से भागते रहने को ही जीवन मान रहे हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

Motivational Stories : जुए का खेल जैसा है ये जगत, पढ़िये रोचक कथा