- प्रवीण कासम (बीबीसी तेलुगू)
पिछले कुछ दिनों से आम जनता के बीच धारा 49(पी) की काफ़ी चर्चा है। कई लोग गूगल के ज़रिए इसके बारे में जानकारी जुटा रहे हैं। मुरुगदास की बनाई फ़िल्म 'सरकार' की कहानी भी इसी के इर्द-गिर्द गढ़ी गई थी। इस फ़िल्म में हीरो विजय अपने चोरी हुए वोट को वापस पाने की जद्दोजहद करता है।
जब से यह फ़िल्म रिलीज़ हुई है तभी से लोगों के मन में धारा 49(पी) को समझने की बेताबी बढ़ गई है। सवाल उठता है कि क्या फ़िल्म की कहानी की तरह हक़ीक़त में भी चोरी हुआ वोट वापस हासिल किया जा सकता है? धारा 49(पी) क्या है?
टेंडर वोट क्या है?
अगर हमारा वोट कोई और डाल दे, तो इसे धारा 49(पी) के तहत वोट का चोरी होना कहा जाता है। चुनाव आयोग ने साल 1961 में इस धारा को संशोधित कर शामिल किया था। इसके तहत वोट करने के असल हक़दार को दोबारा वोट करने का अधिकार दिया जा सकता है। यही वोट टेंडर वोट कहलाता है।
यह धारा काम कैसे करती है
ओसमानिया यूनिवर्सिटी के लीगल सेल के निदेशक डॉ. वेंकटेश्वरलू ने बीबीसी को इस बारे में बताया, ''अगर कोई दूसरा व्यक्ति फ़र्ज़ी तरीक़े से आपका वोट डाल दे तब धारा 49(पी) के ज़रिए इस वोट को निरस्त किया जा सकता है। इसके बाद असल मतदाता को दोबारा वोट करने का मौक़ा दिया जाता है।''
धारा 49(पी) का इस्तेमाल कैसे किए जा सकता है। इस बारे में डॉ. वेंकटेश्वरलू समझाते हैं, ''जो भी व्यक्ति इस धारा का इस्तेमाल करना चाहता है, सबसे पहले वो अपनी वोटर आईडी पीठासीन अधिकारी को दिखाए। इसके साथ ही फ़ॉर्म 17(बी) पर भी हस्ताक्षर कर जमा करना होता है। बैलेट पेपर को मतगणना केंद्र में भेजा जाता है। धारा 49(पी) का इस्तेमाल करते हुए कोई व्यक्ति ईवीएम के ज़रिए वोट नहीं डाल पाता।''
वोट को चुनौती देना ज़रूरी
वेंकटेश्वरलू बताते हैं कि बहुत से लोगों को वोट को चुनौती देने के बारे में पता ही नहीं होता। इस बारे में अधिक से अधिक जागरूकता फैलाने की ज़रूरत है।
वेंकटेश्वरलू समझाते हैं, ''कई बार लोग फ़र्जी वोटिंग की शिकायत वोटिंग एजेंट के पास भी कर देते हैं। इसके लिए पोलिंग एजेंट को फॉर्म 14 और महज़ दो रुपए अदा कर पीठासीन अधिकारी के पास शिकायत करनी होगी। इसके बाद पीठासीन अधिकारी या तो गांववालों की मौजूदगी में या फिर इलाक़े के राजस्व अधिकारी की मौजूदगी में जांच करेगा।''
''अगर फ़र्ज़ी वोट की पहचान हो जाती है तो जिसके नाम से वोट गया है, पीठासीन अधिकारी उसे अपना मत देने का अधिकार देगा। लेकिन अगर फ़र्ज़ी मत की पहचान नहीं होती है तो पीठासीन अधिकारी या तो शिकायतकर्ता के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर सकता है या फिर पोलिंग एजेंट को दो रुपए वापस कर मामला ख़त्म कर सकता है।''
टेंडर वोट के साथ बड़ा पेंच
वैसे टेंडर वोट के साथ एक बड़ा पेंच भी है। कोई व्यक्ति भले ही अपना वोट दोबारा डाल दे लेकिन चुनाव आयोग इसकी गिनती नहीं करता, और बहुत ही विषम परिस्थितियों में इसे गिना जाता है।
लेकिन फिर भी टेंडर वोट का महत्व कम नहीं हो जाता। दरअसल, मतगणना के समय सबसे पहले ईवीएम में डाले गए वोटों की गिनती होती है। अगर पहले दो प्रतिभागियों के बीच वोटों का अंतर बहुत कम होता है तो उसके बाद बैलेट वोट गिने जाते हैं। उसके बाद भी अंतर कम ही रहता है तब टेंडर वोट को गिनती में शामिल करने का फ़ैसला लिया जाता है।
साल 2008 में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनावों में राजस्थान हाईकोर्ट ने टेंडर वोट को गिनती में शामिल करने का फ़ैसला दिया था।
एक वोट की क़ीमत
चुनाव में हमेशा कहा जाता है कि एक-एक वोट की अपनी कीमत होती है। भारत के इतिहास में सिर्फ़ दो ही लोग एक वोट के अंतर से हारे हैं। साल 2008 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नेता सीपी जोशी चुनावी मैदान में थे। उन्हें 62,215 वोट मिले जबकि उनके विरोधी बीजेपी के कल्याण सिंह चौहान को 62,216 मत मिले।
इतने क़रीबी नतीजे आने के बाद वोटों की दोबारा गिनती कराई गई, लेकिन नतीजे पहले जैसे ही रहे। वहीं साल 2004 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जेडी(एस) के टिकट पर खड़े एआर कृष्णमूर्ति का मुक़ाबला कांग्रेस के आर ध्रुवनारायण से था। कृष्णमूर्ति को इस चुनाव में 40,751 मत मिले जबकि ध्रुवनारायण को 40,752। इस तरह एक वोट के आधार पर कांग्रेस को जीत मिली।