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क्या एयर इंडिया वापस अपने पुराने मालिक टाटा के पास चली जाएगी?

क्या एयर इंडिया वापस अपने पुराने मालिक टाटा के पास चली जाएगी?
, बुधवार, 5 फ़रवरी 2020 (17:04 IST)
- सिन्धुवासिनी, बीबीसी संवाददाता
कहते हैं, इतिहास ख़ुद को दोहराता है। क्या एयर इंडिया भी अपना इतिहास दोहराएगी? क्या 88 वर्षों के बाद ये कंपनी एक बार फिर अपने पुराने मालिक के पास चली जाएगी? ये सभी सवाल इसलिए, क्योंकि ऐसी ख़बरें हैं कि टाटा समूह ने भारी घाटे से जूझ रही एयर इंडिया को खरीदने में दिलचस्पी दिखाई है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, सिंगापुर एयरलाइंस के साथ मिलकर टाटा ग्रुप, एयर इंडिया के लिए बोली लगाने की योजना बना रहा है। अख़बार ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि टाटा समूह एयर इंडिया को खरीदने के अपने प्रस्ताव को अंतिम रूप देने के काफ़ी करीब है और वो सिंगापुर एयरलाइंस के साथ मिलकर कंपनी के अधिग्रहण को अंजाम देने की तैयारियां शुरू कर चुका है।

भारत सरकार पहले ही सैद्धांतिक रूप से नेशनल कैरियर एयर इंडिया की 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी बेचने के फ़ैसले का ऐलान कर चुकी है। इसके मद्देनज़र कंपनियों के लिए अपने प्रस्ताव (एक्सप्रेशन ऑफ़ इंट्रेस्ट) सौंपने की आख़िरी तारीख़ 17 मार्च, 2020 रखी गई है। 31 मार्च तक सरकार खरीदार के नाम की घोषणा करेगी।

क्या टाटा खरीद पाएगी एयर इंडिया?
मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि टाटा ग्रुप एयर इंडिया को खरीदने के लिए वाकई इच्छुक दिख रही है। लेकिन क्या टाटा घाटे में चल रही इस कंपनी को खरीद पाएगी? इसके लिए क्या वो सरकार की सभी शर्तों को पूरा कर पाएगी? सरकार पहले भी एयर इंडिया को बेचने की कोशिश कर चुकी है, लेकिन इसके लिए खरीदार नहीं मिले थे। सरकार ने इस बार एयर इंडिया को बेचने की शर्तों में काफ़ी बदलाव किए हैं।

मौजूदा वक़्त में एयरलाइन्स पर लगभग 60 हज़ार करोड़ रुपए का कर्ज़ है लेकिन अधिग्रहण के बाद खरीदार को लगभग 23,286 करोड़ रुपए ही चुकाने होंगे बाकी का कर्ज़ ख़ुद सरकार उठाएगी। कर्ज़ को कम करने के लिए सरकार ने ऋण विशेष इकाई का गठन किया है। साथ ही अब सरकार ने 76 फ़ीसदी के बजाय पूरे 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी बेचने का प्रस्ताव भी सामने रखा है। इसके अलावा सरकार ने कुछ और शर्तों में भी ढील दी है, ताकि इस बार उसे ख़रीदार मिल सके।

सरकार ने कहा है कि अगर किसी संभावित खरीदार को मौजूदा शर्तों को लेकर कोई दिक्कत है तो वो इस बारे में बात करने को तैयार है। एयर इंडिया के पूर्व कार्यकारी निदेशक और 'डिस्सेंट ऑफ़ एयर इंडिया' किताब के लेखक जितेंद्र भार्गव कहते हैं कि टाटा ग्रुप एयरलाइन का संभावित खरीदार हो सकता है। केंद्र सरकार की शर्तों के मुताबिक़ एयर एंडिया के खरीदार की नेट वर्थ कम से कम 3,500 करोड़ होनी अनिवार्य है।

जिंतेद्र भार्गव मानते हैं कि टाटा की स्थिति एयर इंडिया को खरीदने के लिए अनुकूल है। मौजूदा वक़्त में टाटा संस प्राइवेट लिमिटेड, सिंगापुर एयरलाइंस के साथ मिलकर विस्तारा एयरलाइन चलाते हैं। इस संयुक्त उपक्रम (वेंचर) में टाटा की 51 फ़ीसदी हिस्सेदारी है और सिंगापुर एयरलाइंस की 49 फ़ीसदी। इसके अलावा एयर एशिया इंडिया में भी टाटा संस की 51 फीसदी हिस्सेदारी है। एयरलाइन की बाकी 49 फीसदी हिस्सेदारी मलेशियाई कारोबारी टोनी फ़र्नांडिज़ के पास है।

जितेंद्र भार्गव के मुताबिक़, भारत में विस्तारा की जगह अभी एक छोटी एयरलाइन की है। मार्केट शेयर के हिसाब से देखें तो इंडिगो, स्पाइसजेट, एयर इंडिया और गो एयर के बाद विस्तारा पांचवें नंबर पर आती है। इसी तरह एयर एशिया इंडिया भी छोटी एयरलाइन ही है और वो छठें-सातवें नंबर पर आती है। उनका कहना है कि अगर टाटा समूह को एयरलाइन के कारोबार में आगे बढ़ना है तो एयर इंडिया का अधिग्रहण उसके लिए अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। वो कहते हैं, अगर कर्ज़ को थोड़ी देर के लिए नज़रअंदाज़ किया जाए तो एयर इंडिया के कई मज़बूत पक्ष हैं।

मिसाल के तौर पर उसके पास अच्छी एयरोनॉटिकल संपत्ति है यानी अच्छे हवाई जहाज़, प्रशिक्षित पायलट, इंजीनियर और अन्य प्रशिक्षित स्टाफ़ हैं। कंपनी के दुनिया के कई शहरों में स्लॉट्स हैं। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एयर इंडिया के लगभग 18 फीसदी, राष्ट्रीय बाज़ार में लगभग 13 फीसदी शेयर हैं। ज़ाहिर है, इन सारी चीज़ों को देखते हुए टाटा का एयर इंडिया में दिलचस्पी लेना स्वाभाविक है।

व्यावसायिक आंकड़ों पर नज़र डालें तो टाटा समूह की स्थिति भी काफ़ी बेहतर दिखती है। कंपनी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक़ पिछले वित्त वर्ष में इसका रेवेन्यू 729,710 करोड़ था। वहीं 31 मार्च, 2019 को टाटा समूह की मार्केट कैपिटल 1,109,809 करोड़ थी। भार्गव उम्मीद जताते हैं कि अगर ये डील सफल रही तो टाटा एंड संस के लिए फ़ायदे का सौदा साबित होगी।

एयर इंडिया और एयर इंडिया एक्सप्रेस के लिए अलग खरीदार?
केंद्र सरकार एयर इंडिया के साथ ही उसकी लो कॉस्ट सब्सिडियरी एयर इंडिया एक्सप्रेस की 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी भी बेच रही है। लेकिन क्या एयर इंडिया और एयर इंडिया एक्सप्रेस के अलग-अलग खरीदार हो सकते हैं? एविएशन एक्सपर्ट्स का कहना है कि ऐसा संभव नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि एयर इंडिया को एक कंपनी खरीदे और एयर इंडिया एक्सप्रेस को दूसरी कंपनी।

लंबे वक़्त से एविएशन बाज़ार पर नज़र रखने वाले द हिंदू बिज़नेस लाइन के वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी फड़नीस कहते हैं कि ये डील एक पैकेज की तरह होगी, यानी एक ही बिडर को एयर इंडिया और एयर इंडिया एक्सप्रेस दोनों खरीदना होगा। सरकार ने अपनी शर्तों में भी स्पष्ट कहा है कि दोनों एयरलाइन के लिए एक ही खरीदार होगा। यहां ये जानना भी दिलचस्प है कि एयर इंडिया की तरह एयर इंडिया एक्सप्रेस घाटे में नहीं है। यह लो कॉस्ट एयरलाइन भारत के दक्षिण भारतीय शहरों से मध्य पूर्व और खाड़ी देशों में अपनी सेवाओं के लिए जानी जाती है। ऐसे में यह स्वाभाविक भी है कि एयर इंडिया खरीदने वाली कंपनी एयर इंडिया एक्सप्रेस को अपने हाथों से नहीं जाने देगी।

विनिवेश के लिए सरकार की प्रमुख शर्तें
सरकार एयर इंडिया की 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी बेच रही है यानी विनिवेश के बाद सरकार के पास एयरलाइन का कोई शेयर नहीं होगा। एयर इंडिया का ऑपरेशन एसेट ही बेचा जा रहा है, रियल एसेट नहीं यानी सरकार जहाज़, एयरक्राफ़्ट और कंपनी का प्रबंधन तो पूरी तरह खरीदार को सौंप देगी लेकिन दिल्ली और मुंबई स्थित एयर इंडिया के दफ़्तर नीलामी के दायरे से बाहर हैं।

हालांकि अधिग्रहण के बाद खरीदार को कुछ वक़्त तक इन दफ़्तरों से काम करने की इजाज़त होगी। खरीदार कंपनी एयर इंडिया का नाम फ़िलहाल नहीं बदल सकेगी यानी विनिवेश के बाद भी एयरलाइन का नाम 'एयर इंडिया' ही रहेगा। खरीदार को एयर इंडिया के साथ ही एयर इंडिया एक्सप्रेस का अधिग्रहण भी करना होगा।

एयर इंडिया के कर्मचारियों का क्या होगा?
किसी भी कंपनी के अधिग्रहण के बाद उसके कर्मचारियों के भविष्य का सवाल सबसे बड़े मुद्दों में से एक होता है। अधिग्रहण किसी सरकारी कंपनी का हो तो यह मसला ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। एयर इंडिया से जुड़ी एक और अहम बात ये है कि इसकी यूनियनों को काफ़ी मज़बूत माना जाता है और यूनियन एयरलाइन के निजीकरण का विरोध करते आए हैं। यही वजह है कि सरकार ने एयर इंडिया के विनिवेश मामले में इसके कर्मचारियों की आशंकाओं को दूर करने की कोशिश की है।

सरकार की तरफ़ से कहा गया है कि कर्मचारियों का ध्यान रखा जाएगा और उन्हें 'उचित स्तर की सुरक्षा' दी जाएगी। भारत सरकार के निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग के सचिव तुहिन कांत ने अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक ताज़ा इंटरव्यू में कहा है कि एयर इंडिया के कर्मचारियों के हितों की रक्षा के मामले में संतुलित रवैया अपनाया जाएगा। एयरलाइन के कर्मचारी अपने लिए वीआरएस (वॉलंटरी रिटायरमेंट स्कीम) पैकेज की मांग कर रहे हैं।

जितेंद्र भार्गव कहते हैं एयर इंडिया के विनिवेश का मतलब है एक सरकारी कंपनी का किसी निजी कंपनी के हाथों में जाना। भार्गव कहते हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है कि सरकारी और निजी कंपनियों के काम करने के तरीकों में बहुत फ़र्क होता है। कुछ कर्मचारियों जैसे योग्य और अनुभवी पायलटों, इंजीनियर और केबिन क्रू की ज़रूरत एयर इंडिया को खरीदने वाली कंपनी को भी पड़ेगी।

एयर इंडिया का कहना है कि उसके कर्मचारियों की संख्या ज़रूरत से ज़्यादा नहीं है। लेकिन भार्गव मानते हैं कि लोगों के मन में नौकरियां जाने का ख़तरा हमेशा बना रहता है। वो कहते हैं, चूंकि एयर इंडिया में कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहा है इसलिए विनिवेश से उन्हें अपना कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने का डर है।

हालांकि एविएशन एक्सपर्ट हर्षवर्धन इससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। वो कहते हैं, अभी के हालात को ध्यान में रखें तो यूनियंस की पहले जैसी प्रासंगिकता नहीं रह गई और न ही यूनियन पहले जैसे मज़बूत रह गए हैं। चीज़ें अगर पहले जैसी होतीं तो 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी बेचने को लेकर यूनियन के सदस्य सड़क पर आ चुके होते।

हर्षवर्धन कहते हैं, उम्मीद है कि पायलट, इंजीनियर और केबिन क्रू को नई कंपनी में जगह मिल जाएगी। कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले टेक्नीशियंस को बहुत ज़्यादा परेशानी इसलिए नहीं है क्योंकि बाज़ार में उनकी बहुत मांग है। उनके लिए दूसरी एयरलाइंस में काम करने के ढेरों मौक़े उपलब्ध हैं।

एयर इंडिया का टेक्निकल स्टाफ़ वैसे भी देरी से तनख़्वाह मिलने जैसी कई परेशानियों से दो-चार हो रहा है। ऐसे में उन्हें अगर दूसरी एयरलाइन में बेहतर मौके मिलेंगे तो वो उसे पसंद करेंगे। हर्षवर्धन का मानना है कि नॉन-टेक्निकल स्टाफ़ की तो उनकी यूनियन इतनी मज़बूत नहीं है कि सरकार पर दबाव डाल सके या उसके फ़ैसले को प्रभावित कर सके।

टाटा के सामने क्या मुश्किलें होंगी?
अगर टाटा एयर इंडिया का अधिग्रहण करती है तो छूट के बाद भी उसे कर्ज़ के करीब साढ़े 23 हजार करोड़ चुकाने ही होंगे। इसके साथ ही यात्रियों की लगातार कम होती संख्या से निबटने के बारे में भी कोई मज़बूत रणनीति बनानी होगी। गिरते रुपए ने एविएशन सेक्टर में 'ऑपरेशनल लॉस' को और बढ़ा दिया है। अब विमान का ईंधन ख़रीदने में ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता है, इसके लिए भी तैयार रहना होगा।

हर्षवर्धन कहते हैं, भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है और एविएशन इंडस्ट्री में कुछ ख़ास ग्रोथ भी नहीं है। इतना ही नहीं, वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी अनिश्चितता बनी हुई है। टाटा को इन सारी चीज़ों को ध्यान में रखना होगा। ये सफ़र उसके लिए आसान नहीं होगा।

इसके अलावा एयर इंडिया के अधिग्रहण को लेकर टाटा के सामने एक तकनीकी अड़चन भी है- वो है, एयर एशिया इंडिया में उसकी 51 फीसदी साझेदारी। एयर एशिया इंडिया के दूसरे साझेदार यानी टोनी फर्नांडिज के साथ हुए समझौते में एक प्रावधान है कि टाटा किसी बजट या लो कॉस्ट एयरलाइन में 10 फ़ीसदी से ज़्यादा निवेश नहीं कर सकता और अगर वो ऐसा करना चाहता है तो उसे दूसरे हिस्सेदार यानी टोनी फर्नांडिज़ की सहमति लेना जरूरी होगा।

चूंकि एयर इंडिया की सब्सिडियरी एयर इंडिया एक्सप्रेस एक बजट एयरलाइन है और सरकार की शर्तों के अनुसार खरीदार के लिए एयर इंडिया के साथ-साथ एयर इंडिया एक्सप्रेस का अधिग्रहण भी अनिवार्य है। ऐसे में टाटा के लिए ये ज़रूरी होगा कि टोनी फ़र्नांडिज़ उसके एयर एशिया एक्सप्रेस में 100 फ़ीसदी निवेश पर सहमति जताएं।

अगर ऐसा नहीं होता है, तो टाटा के लिए यह डील लगभग नामुमकिन होगी। दूसरी तरफ़ एयर एशिया बोर्ड में टाटा नॉमिनी आर वेंकटरमण और एयर एशिया इंडिया के दूसरे साझेदार टोनी फ़र्नांडिज़ पर आपराधिक साज़िश और मनीलॉन्ड्रिंग का मामला चल रहा है। प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें पांच फ़रवरी को समन भी किया है। अभी यह भी साफ़ नहीं है कि एयर एशिया इंडिया, टाटा और सिंगापुर एयरलायंस के साथ एयर इंडिया के लिए लगाई जाने वाली बोली में शामिल होगी या नहीं।

एयर इंडिया और टाटा ग्रुप का पुराना कनेक्शन
जानेमाने उद्योगपति जेआरडी टाटा ने भारत की आज़ादी से पहले ही 1932 में टाटा एयरलाइंस की स्थापना की थी। टाटा एयरलाइंस के लिए साल 1933 पहला वित्त वर्ष रहा। ब्रितानी शाही 'रॉयल एयरफोर्स' के पायलट होमी भरूचा टाटा एयरलाइंस के पहले पायलट थे जबकि जेआरडी टाटा और विंसेंट दूसरे और तीसरे पायलट थे।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब उड़ान सेवाओं को बहाल किया गया तब 29 जुलाई 1946 को टाटा एयरलाइंस 'पब्लिक लिमिटेड' कंपनी बन गई और उसका नाम बदलकर 'एयर इंडिया लिमिटेड' रखा गया। आज़ादी के बाद यानी 1947 में टाटा एयरलाइंस की 49 फ़ीसदी भागीदारी सरकार ने ले ली थी। 1953 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया था।

अश्विनी फड़नीस कहते हैं कि जेआरडी टाटा एयरलाइन में मिलने वाली सेवा और इसके परिचालन की गुणवत्ता पर हमेशा ज़ोर दिया करते थे। वो बताते हैं, ये आज़ादी से पहले की बात है जब जेआरडी टाटा ने अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिलाने के लिए अमेरिका से विशेषज्ञों को बुलाया था। जब टाटा एयरलाइंस अस्तित्व में आई तब ब्रिटिश एयरवेज़ और एयर फ़्रांस जैसी नामी विदेशी एयरलाइंस पहले से अपनी जगह बना चुकी थीं।

टाटा ने बड़ी एयरलाइंस को चुनौती दी और सुनिश्चित किया कि टाटा एयरलाइंस की कोई भी चीज़ कमतर न हो। जानकारों का कहना है कि अगर टाटा समूह एयर इंडिया का अधिग्रहण करता है तो उसके साथ एक 'लॉयल्टी फ़ैक्टर' भी जुड़ा होगा और वो पूरी कोशिश करेगा कि एयर इंडिया को उसके पुराने बेहतर रूप में वापस ला सके।

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