रिपोर्ट : राहुल मिश्र
शांगरी ला डायलॉग से तो यही लग रहा है कि अगर वक्त रहते कुछ नहीं किया गया तो हिंद-प्रशांत में शीत युद्ध की जल्द वापसी होगी।
सामरिक और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर एशिया की सबसे प्रतिष्ठित गोष्ठी - शांगरी- ला डायलॉग हमेशा की तरह इस बार भी गहमा - गहमी से भरी रही। लेकिन कुछ बातें ऐसी हुईं जिनसे ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र के देश शीत युद्ध के दौर की ओर वापस जाने में झिझक नहीं रहे हैं।
बैठक में जहां एक ओर जापान की बढ़ती कूटनीतिक और सैन्य महत्वाकांक्षा की झलक देखने को मिली तो दूसरी ओर चीन और अमेरिका की धुआंधार बयानबाजी और नोकझोंक भी। चीन के रक्षा मंत्री जनरल वे फेंग्हे ने तो यहां तक कह दिया कि अगर किसी ने भी ताइवान को चीन से अलग करने की कोशिश की तो अंजाम खून खराबा और मौत होगा। उनके अनुसार चीन ताइवान मुद्दे पर किसी भी हद तक जाने को तैयार है इसके लिए किसी से भी और आखिरी सांस तक लड़ेगा।
फेंग्हे का इशारा बाइडेन के उस बयान की ओर था जिसमें उन्होंने यह कहा था कि अमेरिका ताइवान की संप्रभुता और अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य बल का सहारा लेने से नहीं चूकेगा। इसी सिलसिले में जब फेंग्हे की अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन से मुलाकात हुई तो वहां भी उन्होंने तीखे तेवर दिखाए और लॉयड की ताइवान में बार-बार अतिक्रमण न करने की गुहार को ठुकरा दिया। उलटे लॉयड को यह भी नसीहत दी कि वो अपने काम से काम रखें।
कूटनीति और राजनय के लिए इस तरह के वक्तव्य असाधारण और परेशान करने वाले हैं। बहरहाल, चीन का मानना है कि ताइवान उसका अंदरूनी मामला है और अमेरिका समेत किसी देश को दखलंदाजी करने का कोई हक नहीं है। अमेरिका इससे सहमत नहीं है।
चीन की वन चाइना नीति को मानने और इस बात को दोहराते रहने के बावजूद अमेरिका ने हमेशा यह कहा है कि ताइवान की चीन से रक्षा उसकी जिम्मेदारी है और इस वादे से वह नैतिक ही नहीं कानूनी तौर पर भी जुड़ा है।
अमेरिका और ताइवान के बीच दशकों पहले हुई सैन्य संधि के तहत अमेरिका ताइवान पर किसी भी सैन्य हमले की स्थिति में जवाबी सैन्य कार्रवाई के लिए जिम्मेदार होगा।
चीन को लेकर आशंकाएं
बीते कुछ महीनों में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन कई बार यह कह चुके हैं कि अमेरिका ताइवान की रक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। रूस के यूक्रेन पर हमले के बीच लगातार इस बार की अटकलें लगाईं जा रही हैं कि रूसी कार्रवाई से सबक लेते हुए चीन भी मौका पा कर ताइवान पर हमला कर उस पर कब्जा जमाने की कोशिश कर सकता है।
हालांकि यह दिलचस्प बात है कि बाइडेन की कही बातों के बावजूद अमेरिकी प्रशासन का कहना है कि ताइवान मुद्दे पर अमेरिका की नीयतों और नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया है। चीनी रक्षामंत्री के बड़बोले बयान अमेरिका और उसके साथी देशों जापान और ऑस्ट्रेलिया को कतई रास नहीं आये।
रूस से बड़ा खतरा चीन को क्यों मानता है अमेरिका
जवाब में न सिर्फ जापान और ऑस्ट्रेलिया ने भी चीन को लेकर कड़े बयान दिए बल्कि हिंद–प्रशांत क्षेत्र में यथास्थिति को बदलने की कोशिश का मुंहतोड़ जवाब देने की वचनबद्धता भी दोहराई। यही नहीं जापान, अमेरिका और दक्षिण कोरिया के रक्षा मंत्रियों की आपसी बैठक हुई और पहली बार इन तीनों देशों के साझा बयान में ताइवान स्ट्रेट में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने की बात कही गयी।
यह बयान क्वाड शिखर भेंट में दिए संयुक्त बयान और आकुस के प्रेस वक्तव्यों से अलग नहीं है। यह सारे बयान अमेरिका और उसके साथियों के सख्त रवैये की झलक देते हैं। ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका की बयानबाजी में भी कोई नयी बात नहीं है लेकिन पिछले कुछ महीनों में यह तकरार गंभीर रुख लेती जा रही है।
जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया के नजरिये में भी तेजी से बदलाव आ रहा है जिससे ऐसा लग रहा है कि कहीं न कहीं इन देशों को लग रहा है कि चीन ताइवान में सीधे युद्ध भले ही न छेड़े लेकिन उसकी आक्रामकता में निश्चित तौर पर व्यापक बढ़ोत्तरी होगी और इस आक्रामकता का सीधा मतलब होगा ताइवान पर और सैन्य दबाव और अतिक्रमण की घटनाएं।
एक आंकड़े के अनुसार हर साल चीन ताइवान की हवाई और जल सीमा में 700 से अधिक अतिक्रमण करता है अब यह संख्या और भी बढ़ेगी। अचानक और पहले से कहीं उग्र वक्तव्य से चीन ने अपनी मंशा और जाहिर कर दी है। बड़ा सवाल यह है कि ताइवान की सुरक्षा चाक चौबंद करने के लिए अमेरिका और उसके साथी देश कौन से कदम उठा पाते हैं।
जापान के तेवर
इस सिलसिले में जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा का शांगरी-ला डायलॉग के दौरान दिया वक्तव्य भी काफी महत्वपूर्ण है। अपने भाषण में किशिदा ने जोर देकर कहा कि जापान हिंद–प्रशांत में शांति और नियमबद्ध व्यवस्था बनाये रखने के लिए हर संभव कदम उठाएगा। इस काम के लिए अगर सैन्य तैयारी और सामरिक सहयोग बढ़ाने की जरूरत है तो उसके लिए भी जापान तैयार है।
पिछले कुछ समय से जापान ने इंडो-पैसिफिक में अपनी सामरिक और सैन्य उपस्थिति बढ़ाने को ओर व्यापक कदम उठाये हैं। साल की शुरुआत में जारी रक्षा श्वेतपत्र में भी जापान ने क्षेत्र में बढ़ती सामरिक अनिश्चितता के मद्देनजर अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की बात कही थी। ताइवान को लेकर भी श्वेतपत्र में चिंता व्यक्त की गयी थी।
2012 में शिंजो आबे के प्रधानमंत्री बनने के बाद से जापान ने धीरे-धीरे अपनी सैन्य और सामरिक भूमिका में इजाफा करने की ओर कदम उठाये हैं। आबे की तर्ज पर अब किशिदा भी जापान की विदेश नीति में वही पैनापन बनाये रखने की कोशिश करते दिख रहे हैं।
अपने वक्तव्य में किशिदा ने जापानी मैरीटाइम सेल्फ-डिफेंस फोर्स की एक टास्कफोर्स के गठन के निर्णय का खलासा किया और कहा कि एक टास्कफोर्स दक्षिणपूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों का दौरा कर वहां देशों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास करेगी और सैन्य समझौतों को दिशा में भी कदम उठाएगी।
दक्षिण कोरिया के तेवर भी तीखे हो रहे हैं जिनसे साफ लगता है कि हिंद-प्रशांत में आने वाले दिन काफी तनावपूर्ण होंगे। अपने भाषण में दक्षिण कोरियाई रक्षा मंत्री ली जोंग-सुप ने कहा कि उत्तरी कोरिया से निपटने के लिए जापान से रक्षा संबंधों को व्यापक रूप से सुधारा जाएगा।
दक्षिण कोरिया का पक्ष
उत्तरी कोरिया का लगातार बढ़ता मिसाइल परीक्षण और अमेरिका और दक्षिण कोरिया के साथ बढ़ती अनबन के बीच अब दक्षिण कोरिया भी अपने रुख में कड़ाई ला रहा है। इस बदलती नीति के परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर पिछले हफ्ते ही बरसों बाद उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग उन ने रूस की ओर दोस्ताना रुख किया और कहा कि रूस ने यूक्रेन पर हमला करके सही किया क्योंकि यूक्रेन के सहारे अमेरिका रूस को परेशान कर रहा था।
उत्तरी कोरिया रूस-यूक्रेन-अमेरिका समीकरण और दक्षिण कोरिया और अमेरिका के साथ समीकरण में समानता देखता है और इस वजह से भी रूस के समर्थन में वह उतर गया है। वहीं दूसरी ओर रूस और चीन सैन्य तौर पर पहले से कहीं अधिक नजदीक होते जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर बाइडेन की एशिया यात्रा के दौरान रूस और चीन ने पूर्वी सागर में जापान की सीमा के निकट युद्ध अभ्यास किया।
ये घटनाएं यूं तो देखने में साधारण लग सकती हैं लेकिन हिंद-प्रशांत में सामरिक ध्रुवीकरण तेजी से रूप ले रहा है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।
बरसों से शांगरी -ला डायलॉग में देशों और उनके राजनयिक वक्ताओं ने बड़ी उद्घोषणाएं की हैं और अपने-अपने देशों और सरकारों की नीतियों को बेबाक ढंग से पेश किया है। शांगरी ला डायलॉग के सामरिक थर्मामीटर के हिसाब से तो यही लग रहा है कि अगर वक्त रहते कुछ नहीं किया गया तो हिंद-प्रशांत में शीत युद्ध की जल्द वापसी होगी।
डॉ। राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के आसियान केंद्र के निदेशक और एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं