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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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संस्कृत से कैसे विकास के पथ पर आगे बढ़ सकता है भारत, चुनाव में क्यों नहीं होती इस पर बात?

shrish devpujari

नृपेंद्र गुप्ता

, बुधवार, 22 मई 2024 (13:13 IST)
  • संस्कृत आएगी तो भारतीयता भी आएगी
  • ज्ञान प्राप्त लोगों की संख्या बढ़ेगी तो देश विकसित होगा
  • सभी राज्यों में संस्कृत की स्वीकार्यता, कहीं भी विरोध नहीं
देश में लोकसभा चुनाव का प्रचार जोरों से चल रहा है। हर ओर केवल चुनावी बयानबाजी का शोर है, विवादित बयानों से सुर्खियां बटोरी जा रही हैं। कोई भी भाषा, संस्कार और संस्कृति की बात नहीं कर रहा है। वेबदुनिया ने इस संबंध में बात की संस्कृत भारती के अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख श्रीश देवपुजारी से और जाना कि राजनीति में बयानों का स्तर क्यों गिर रहा है और संस्कृत के माध्यम से भारत कैसे विकास के पथ पर आगे बढ़ सकता है? उत्तर और दक्षिण भारत के बीच के गैप को संस्कृत से कैसे पाटा जा सकता है? 
 
संस्कृत चुनाव में मुद्दा क्यों नहीं : उन्होंने कहा कि चुनाव में तो जो व्यक्ति जीत पाता है, उसे ही कोई भी दल टिकट देता है। यह तो मतदाताओं को सोचना चाहिए कि हम किसको मतदान करें। हमारे देश में यह भी समस्या है कि व्यक्ति कितना अच्छा है या बुरा है या उसकी क्या इच्छाएं और व्यवहार कैसा है, इसके कोई मायने नहीं है। विधायिका और संसद में जाकर उसे पार्टी के व्हिप का पालन करना पड़ता है। उसका अपना मत क्या है, इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिए व्यक्ति की ओर नहीं बल्कि पक्ष की ओर देखकर मतदान किया जाता है। पक्ष की नीतियों को देखकर मतदान किया जाता है। कौन कितना अपराधी है, किसके पास कितना धन है, कौन कितना शिक्षित है उसका आज की पद्धति में कोई महत्व नहीं है। अगर पद्धति बदल जाए तो बात अलग है।
 
राजनीति में बयानों का स्तर क्यों गिर रहा है : देवपुजारी ने इस सवाल के जवाब में कहा कि जैसा संस्कार होगा वैसे ही वक्तव्य आएंगे। वो तो उनकी पृष्‍ठभूमि पर निर्भर करता है। वो किसी दल विशेष का अधिकार नहीं है। कुछ लोग गाली-गलौज ही करते हैं, उनका संस्कार ही वैसा है। कुछ लोग दूसरों की निंदा करने में ही बड़प्पन मानते हैं, ऐसा उनका संस्कार है। दूसरों की निंदा करना गीता में भी पाप माना गया है। अपनी बात कहना तो ठीक है, दूसरे की निंदा करने का कोई अर्थ नहीं है।
 

नई शिक्षा नीति से संस्कृत को क्या फायदा हुआ : उन्होंने कहा कि संस्कृत ज्ञान भाषा है। भारतीय ज्ञान प्राप्त करना संस्कृत के बिना संभव ही नहीं है। नई शिक्षा नीति से संस्कृत की उपलब्धता बढ़ी है। नीतियां सुविधा उपलब्ध कराने का काम करती हैं और उसने यह किया है। भारतीय विद्यार्थियों को पहले इस विषय की उपलब्धता नहीं थी। भिन्न-भिन्न कारणों से शिक्षण संस्थानों में छात्रों को यह विषय पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं होता था। या फिर विज्ञान, वाणिज्य के छात्र संस्कृत विषय ले नहीं सकते थे, केवल कला संकाय के छात्र ही संस्कृत ले पाते थे। नई शिक्षा नीति में अब सभी बंधन टूट गए हैं। अब कोई भी छात्र किसी भी विषय को पढ़ सकता है। अगर शिक्षक उपलब्ध है तो वे संस्कृत भी पढ़ पाएंगे। यह बहुत ही उपयोगी बात है।

क्यों सीखें संस्कृत : देवपुजारी ने कहा कि ज्ञान भाषा होने की वजह से यह उन लोगों के लिए ज्यादा उपयोगी है जो ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं। जो अनुसंधान में जाना चाहते हैं उनके लिए उपयोगी है। इनके अनुसंधान से हम पेटेंट भी प्राप्त कर सकते हैं। अभी तक 10 पेटेंट प्राप्त किए जा चुके हैं।
 
उन्होंने कहा कि अभी भारत में समस्या यह है कि युवाओं को समझ में नहीं आता है कि हमको किस दिशा में जाना चाहिए। वो क्यों पढ़ रहे हैं? इस सवाल का जवाब आता है कि धन कमाने के लिए। वास्तव में धन कमाने के लिए पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति को पढ़ाई के साथ व्यवसाय भी शुरू करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति 12वीं करने के बाद व्यवसाय प्रारंभ कर देगा तो डॉक्टरेट होने तक वह काफी पैसा कमा सकता है, जबकि डॉक्टरेट करने बाद करियर शुरू करने पर उसको 70-72 हजार से ज्यादा की नौकरी नहीं मिलेगी। तब तक व्यवसाय करने वाले के जीवन में स्थिरता आ गई होती है। उन्होंने कहा कि ज्ञान के क्षेत्र में आना और धन की अपेक्षा करना यह एक विचित्र मानसिकता है। आप धन के क्षेत्र में जाएं तो धन की अपेक्षा करिए। ज्ञान के क्षेत्र में आएं तो ज्ञान की अपेक्षा करिए।
 
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संस्कृत भारती कर्मकांड की शिक्षा क्यों नहीं देता है : संस्कृ‍त जगत में कर्मकांड एक बहुत ही छोटा हिस्सा है। वो समाज की आवश्यकता है, इसलिए लोग वेद मंत्रों को रटते हैं और 16 संस्कारों में इसका प्रयोग करते हैं। वो एक हिस्सा है। संस्कृत ज्ञान का सागर है। इसमें विश्व के सभी विषय अंर्तभूत है। इसलिए यह केवल कर्मकांड तक सीमित नहीं है।
 
उन्होंने कहा कि संस्कृत भाषा एक वैज्ञानिक भाषा है। इससे अन्य भाषाओं के व्याकरण बने हैं जैसे संस्कार, संस्कृति और संस्कृत तीनों एक ही धातु और एक ही उपसर्ग से बने हैं, फिर भी इनका अर्थ अलग- अलग है। इनमें प्रत्यय अलग-अलग हैं। भारत की संस्कृति और अन्य देश की संस्कृति में काफी भिन्नता दिखाई देती है, जैसे भारत की संस्कृति में सोलह संस्कार होते हैं।
 
संस्कृत भारती संस्कृत की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए क्या कर रही है : संस्कृत भारती तो इसी काम में लगी हुई है। हमारे जितने भी गृहस्थ कार्यकर्ता है वो सेवा भाव से इस संगठन में काम करते हैं। पूर्णकालिक कार्यकर्ता अपना पूरा समय इसी काम में लगाते हैं। हमारा मुख्य काम ऐसे समाज को संस्कृत पढ़ाना है जो स्कूल कॉलेजों में संस्कृत नहीं पढ़ रहे हैं। इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उनमें संस्कार आएं। समाज जीवन संस्कारित रहे। अगर समाज जीवन संस्कारित रहेगा तो राष्‍ट्र निश्चित तौर पर उन्नति करेगा। ज्ञान भाषा होने के कारण कुछ लोग इसमें आगे बढ़ेंगे और ज्ञान प्राप्त लोगों की संख्या देश में बढ़ेगी तो देश विकसित होगा। 
 
उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद ज्ञान आयोग की स्थापना की थी। इसके अध्यक्ष सैम पित्रोदा थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विश्व में विकास की जो प्रतिस्पर्धा है उसमें वही देश आगे होगा जिसके पास ज्ञान है। हमारे पास हमारे पूवर्जों द्वारा छोड़ा गया ज्ञान है। पश्चिम का ज्ञान भी हम प्राप्त कर ही रहे हैं। पूर्वजों का ज्ञान अभी छात्र उतनी मात्रा में अपना नहीं रहे हैं। अगर वह प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी तो भारत ज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी  हो जाएगा और हम विकास में सर्वोच्च श्रेणी में आ जाएंगे। इसलिए हम समाज को संस्कृत सिखाना चाहते हैं। ताकि वह ज्ञान की ओर अग्रसर हो और संस्कारी बने।
 
संस्कृत परिवार क्या है : देवपुजारी ने कहा कि जिस परिवार में संभाषण संस्कृत में ही होता है वह परिवार संस्कृत कुटुंब या परिवार कहलाता है। हमारी मान्यता है कि परिवार में संस्कृत आती है तो कई दोष दूर हो जाते हैं, संस्कार आते हैं। संस्कृत में अतिथि देवो भव का संस्कार है, मातृ देवो भव का संस्कार है। परिवारों में माता पिता को वृद्धाश्रम ले जाने की ओर नई पीढ़ी बढ़ रही है। माता-पिता को वहां भेजकर वे स्वतंत्र हो जाना चाहते हैं। उनके ऊपर मम्मी शब्द कासंस्कार है, मां शब्द का नहीं है। संस्कृत में मां कहा जाता है। माता शब्द का उच्चारण करेंगे तो मातृ देवो भव का संस्कार आएगा। यह संस्कार बचपन में उनमें आ गया तो वे माता की सेवा ही करेंगे। 
 
उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता मानने की परंपरा है, अन्य संस्कृतियों में नहीं। विदेशों में तो बिना बताए आने वालों को असभ्य माना जाता है, जबकि हमारे यहां अनायास आने वालों को भी वही सत्कार और सम्मान प्राप्त होता है जो सूचना देकर आने वाले को मिलता है। संस्कार परिवार में आएं इसलिए हम संस्कृत भाषा का आदर ही करेंगे।
 
संगीत और नृत्य का संस्कृत से कनेक्शन : उन्होंने कहा कि संस्कृत आएगी तो भारतीयता भी आएगी। जैसे संगीत। भारतीय संगीत के प्रति रुचि रखना, पाश्चात्य संगीत के प्रति रुचि नहीं रखना। पाश्चात्य संगीत ताल प्रधान है और भारतीय संगीत सुर प्रधान है। सुर प्रधान संगीत सुनने से मन को सुकून प्राप्त होता है, अध्यात्म प्राप्त होता है। ताल प्रधान संगीत सुनने से हर अंग थिरकता है। व्यक्ति नृत्य करने के लिए प्रेरित होता है। हृदय की गति बढ़ती है और विकार उत्पन्न होते हैं। रोग ग्रस्त होना है तो पश्चिम का संगीत सुन लीजिए। भारतीय संगीत में ऐसा नहीं होता।
 
उन्होंने कहा कि इसी तरह भारतीय नृत्य में श्रंगार रस तो है ही लेकिन उससे काम वासना प्रवित्त नहीं होती लेकिन  पाश्चात्य नृत्य में ऐसा होता है। श्रंगार रस भी जीवन का अंग है, यदि उसे भारतीय पद्धति से प्रस्तुत किया जाता है तो  उससे हानि नहीं होती। नृत्य और संगीत भी संस्कृत से संबद्ध है। यदि भाव को समझना है तो संस्कृत पढ़ना अनिवार्य  है। शब्दों को तभी ज्ञान प्राप्त होता है जब उसकी व्यत्पत्ति समझ में आती है। अगर किसी भी क्षेत्र में भारतीयता का  पुट चाहिए तो उसमें संस्कृत का योगदान हो सकता है।
 
क्या संस्कृत उत्तर और दक्षिण के गैप को पाट सकती है : उन्होंने कहा कि संस्कृत ही एकमात्र भारतीय भाषा है जो  प्रादेशिक नहीं है। इसी वजह से देश के किसी भी प्रदेश में उसका विरोध नहीं, स्वागत होता है। बाकि ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसका सभी प्रांतों में स्वागत हो। संस्कृतोत्भव होने पर भी सभी प्रदेशों की भाषाएं अलग अलग हैं। इसी वजह से तमिलनाडु में कन्नड़ और हिंदी का विरोध है। कर्नाटक में हिंदी का विरोध है। बंगाल को अपनी भाषा का अभिमान है। सभी भाषाओं के झगड़े भारत में है। सभी भाषाओं के साहित्य को समझने के लिए संस्कृत को समझना आवश्यक है।
 
उन्होंने कहा कि जब मैं कई लोगों से पूछता हूं कि वंदे मातरम् किस भाषा में है तो उनका उत्तर आता है कि संस्कृत में। फिर में उनको स्मरण दिलाता हूं कि कवि संस्कृत भाषी नहीं बल्कि बंगला भाषी थे। उन्होंने आनंद मठ उपन्यास में पहली बार यह कविता सम्मिलित की थी। यह उपन्यास बंगला में है तो यह भी इसी भाषा में होगा। तब उनको समझ में आता है कि बंकिमचंद चटोपाध्याय ने यह गीत बंगला भाषा में लिखा था। किंतु बंगला भाषी स्वयं इसका अर्थ बताने में  सक्षम नहीं है क्यों कि उसमें संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। जब तक संस्कृत नहीं समझेंगे। अपनी भाषा का साहित्य भी समझ में नहीं आएगा।
 
उन्होंने बताया कि ऐसा ही उदाहरण मराठी में भी है। वहां वीर सावरकर द्वारा लिखे गए और मंगेशकर परिवार द्वारा  गाए गए प्रसिद्ध गीत 'ज्योस्तुते श्री महन्मंगले शिवास्पदे शुभदे। स्वतंत्रते भगवती त्वामहम यशो युतां वन्दे' की पहली 2 पंक्तियां ही संस्कृत में हैं। बाकी गीत मराठी में है। तो मराठी का शिक्षक भी जब तक संस्कृत नहीं जानता तो वह इसका अर्थ बताने में सक्षम नहीं है। ये सभी भाषाओं के साहित्य पर लागू होता है। इसलिए संस्कृत पढ़ना भाषा की दृष्‍टि से, साहित्य की दृष्टि से, ज्ञान विज्ञान की दृष्‍टि से और संस्कारों की दृष्टि से सभी के लिए लाभदायक है।

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