Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

पुतिन के चीन से गहराते रिश्तों के भारत के लिए क्या मायने हैं?

xi jinping and putin

BBC Hindi

, बुधवार, 17 जुलाई 2024 (07:56 IST)
रेहान फजल, बीबीसी हिन्दी
रूस का दो-तिहाई भू-भाग एशिया में होने के बावजूद रूस की विदेश नीति का फ़ोकस मध्य-पूर्व और अफ़्रीका पर अपेक्षाकृत अधिक रहा है लेकिन हाल ही में एशिया प्रशांत में रूस की बढ़ती दिलचस्पी ने सबका ध्यान खींचा है।
 
मई और जून के बीच रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने चीन, उत्तर कोरिया और वियतनाम की ताबड़तोड़ यात्रा कर कई समझौतों पर दस्तख़त किए हैं।
 
पिछले दिनों वो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मॉस्को में मिले। यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की इससे इतने खिन्न हुए कि उन्होंने इसे शांति प्रयासों के लिए एक बहुत बड़ा धक्का कह डाला।
 
वैसे रूसी नेताओं ने क़रीब एक दशक पहले व्लाडिवोस्टक में एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग की बैठक आयोजित कर सुदूर एशिया में बड़ी भूमिका निभाने की अपनी मंशा के बारे में संकेत देने शुरू कर दिए थे।
 
यूक्रेन पर हमला करने से पहले से ही रूस और चीन के बीच रक्षा सहयोग बढ़ने के संकेत मिलने लगे थे। दोनों देश काफ़ी समय पहले से पूर्वोत्तर एशिया की सुरक्षा पर सलाह मशविरा करते रहे हैं और उन्होंने कई वायु और नौसैनिक युद्धभ्यासों में संयुक्त रूप से भाग लिया है।
 
अब तक रूस ने चीन के साथ अपने संबंधों का असर भारत पर नहीं पड़ने दिया है लेकिन चीनी मामलों की विशेषज्ञ मर्सी कुओ ‘द डिप्लोमैट’ पत्रिका में लिखती हैं, “जैसे-जैसे भविष्य में रूस की चीन पर आर्थिक निर्भरता बढ़ती जाएगी, इस समीकरण में बदलाव की संभावनाएं भी बढ़ती चली जाएँगी।”
 
चीन रूस संबंधों में बदलाव का दौर
कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरुआती दिनों से सोवियत संघ और चीन काफ़ी करीब रहे लेकिन उनके आपसी संबंध छठे दशक की शुरुआत से बिगड़ने शुरू हो गए।
 
1970 के दशक में ये संबंध अपने सबसे ख़राब दौर में पहुंच गए थे लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के एकाधिकार को कम करने के लिए दोनों देश फिर से एक दूसरे के निकट आते चले गए।
 
रूस के लिए इस समय चीन से महत्वपूर्ण कोई देश नहीं है। मई में बीजिंग में पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के दौरान बार-बार रणनीतिक साझेदारी पर ज़ोर दिया गया।
 
राष्ट्रपति जिनपिंग ने पुतिन से कहा कि अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करने के लिए चीन रूस को आर्थिक मदद देना जारी रखेगा।
 
चीन ही नहीं पूरी दुनिया से अलग-थलग पड़ चुका उत्तरी कोरिया भी रूस के नए रणनीतिक पार्टनर के तौर पर उभरा है।
 
ये एक बड़ा बदलाव है क्योंकि सात साल पहले जब उत्तरी कोरिया ने अपना छठा परमाणु परीक्षण किया था, रूस ने संयुक्त राष्ट्र के उत्तरी कोरिया पर लगाए कड़े प्रतिबंधों का समर्थन किया था।
 
रूस की उत्तरी कोरिया से बढ़ती नज़दीकी
वर्ष 2000 के बाद पहली बार रूस के राष्ट्रपति पुतिन उत्तरी कोरिया के नेता किम जोंग से मिलने प्योंगयॉन्ग पहुंचे। वहाँ उनका ज़बरदस्त स्वागत किया गया और किम ने खुद हवाई जहाज़ की सीढ़ियों तक पहुंच कर उनका स्वागत किया।
 
यही नहीं, दोनों नेताओं ने 1961 के रक्षा समझौते में सुधार करते हुए एक दूसरे से वादा किया कि अगर किसी देश पर हमला होता है तो दूसरा देश बिना देरी किए हुए अपने पूरे संसाधनों के साथ दूसरे देश की मदद के लिए आगे आएगा।
 
इसका उत्तरी कोरिया के पड़ोसी देश दक्षिण कोरिया ने बहुत बुरा माना। इस बात की संभावना बहुत बढ़ गई है कि वो अब रूस के खिलाफ़ लड़ाई में यूक्रेन को सैनिक सहायता देना शुरू कर दे।
 
रूस और उत्तरी कोरिया के संबंध अचानक बेहतर नहीं हुए हैं। सितंबर, 2023 में व्लाडिवोस्टक में हुई बैठक में भी उत्तरी कोरिया ने रूस को आश्वासन दिया था कि वो यूक्रेन के ख़िलाफ़ लड़ाई में रूस को हथियार देगा और इसके बदले में रूस उत्तरी कोरिया के मिसाइल कार्यक्रम में उसकी तकनीकी मदद करेगा।
 
हालांकि इस समझौते के विवरण पूरी तरह से सार्वजनिक नहीं किए गए हैं लेकिन इस बीच उत्तरी कोरिया ने रक्षा उपकरणों से भरे कई पोत रूस भेजे हैं। अमेरिका के विदेश मंत्रालय के आकलन के अनुसार, 2023 की बैठक के बाद उत्तरी कोरिया ने हथियारों से भरे 11 हज़ार से अधिक कंटेनर मॉस्को भेजे हैं।
 
रूस और उत्तरी कोरिया के बीच बढ़ती साझेदारी अमेरिका और यूरोप के लिए एक रणनीतिक परेशानी का सबब हो सकती है।
 
पुतिन की वियतनाम यात्रा
उत्तर कोरिया की यात्रा के बाद पुतिन वियतनाम भी गए। सन 2013 के बाद उनकी ये पहली वियतनाम यात्रा थी। लेकिन यहाँ पर उनका उतनी गर्मजोशी से स्वागत नहीं हुआ जितना प्यौंगयोंग में हुआ था।
 
इसका मतलब ये हुआ कि वियतनाम पश्चिम से अपने संबंधों को ध्यान में रखते हुए रूस की तरफ़ बहुत एहतियात के साथ बढ़ रहा है। हालांकि अमेरिका में रूस वियतनाम के बढ़ते रक्षा संबंधों पर थोड़ा चिंता ज़रूर है लेकिन इससे उनके संबंधों पर ख़ास प्रतिकूल असर नहीं पड़ा है।
 
पिछले सालों में वियतनाम की अमेरिकी के साथ नज़दीकी बढ़ी है और शायद यही वजह है कि उसने वियतनाम की पुतिन की मेज़बानी करने को पसंद नहीं किया है।
 
दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ इयान स्टोरी का मानना है, “इसे वियतनाम की विदेश नीति की सफलता ही कहा जाएगा कि पिछले कुछ महीनों में तीन प्रमुख देशों अमेरिका, चीन और रूस के नेताओं ने वहाँ की यात्रा की है। चीन और वियतनाम के संबंध तनावपूर्ण रहे हैं और ऐतिहासिक तौर पर चीन (1979) वियतनाम पर हमला भी कर चुका है। चीन के रवैये के बारे में वियतनाम में शुरू से चिंता रही है इसलिए पुतिन जितना भी चाहें वियतनाम के किसी भी बीजिंग-मॉस्को गठजोड़ के साथ जाने की संभावना बहुत कम दिखाई देती है।”
 
एशिया प्रशांत में रूस की महत्वाकांक्षा
अभी तक इस इलाक़े में रूस की भूमिका अमेरिका और चीन की तुलना में बहुत मामूली रही है। सिर्फ़ हथियार और कुछ हद तक तेल की आपूर्ति के अलावा इस इलाक़े में रूस की भूमिका सीमित ही रही है।
 
जाने-माने रक्षा रक्षा विश्लेषक डेरेक ग्रॉसमैन का मानना है कि रूस की ये दबी इच्छा रही है कि पश्चिम और पूर्वी ब्लॉक के बीच शीत युद्ध के ज़माने की तल्ख़ी फिर से बहाल हो जाए ताकि विश्व शक्ति के रूप में उसकी पूछ फिर से होने लगे।
 
लेकिन इसके एशिया प्रशांत क्षेत्र में कामयाब होने की संभावना बहुत कम दिखाई देती है, क्योंकि कुछ अपवादों को छोड़ कर इस इलाके के अधिकतर देश शक्ति संतुलन के खेल में पड़ने से बचते रहे हैं।
 
दूसरे विकल्प के तौर पर रूस की कोशिश रही है कि वो एशिया प्रशांत के देशों के साथ मज़बूत रिश्ते बनाए ताकि इस इलाके में अमेरिका के वर्चस्व का मुकाबला किया जा सके।
 
इस मुहिम में क्रेमलिन को कुछ कामयाबी मिली है। दक्षिण एशिया के आधे देशों और प्रशांत क्षेत्र के लगभग सभी देशों ने जून में स्विट्ज़रलैंड में हुए यूक्रेन शांति सम्मेलन से अपने-आपको अलग रखा।
 
इनमें से कुछ देश जो वहाँ गए भी, उन्होंने सम्मेलन के संयुक्त घोषणापत्र पर दस्तख़त करने से मना कर दिया। इसे इस इलाके में रूस के बढ़ते असर के तौर पर देखा जा रहा है। लेकिन इसके बावजूद अमेरिका और चीन की तुलना में इस क्षेत्र में रूस का असर काफ़ी कम है।
 
webdunia
नरेंद्र मोदी और पुतिन की मुलाक़ात
यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद पहली बार मोदी पुतिन से मिलने मॉस्को गए। पूरी दुनिया का नज़रें इस बात पर लगी थीं कि अमेरिका की नाराज़गी के बावजूद मोदी रूस के साथ अपने संबंधों को किस तरह संतुलित करते हैं?
 
यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद जहाँ अधिकांश पश्चिमी देशों ने रूस से किनारा कर लिया भारत ने रूस से कच्चे तेल के आयात और रक्षा सहयोग को और बढ़ा दिया। अमेरिका ही नहीं उसके मित्र देशों ने इस बात का बुरा माना।
 
जिस दिन नरेंद्र मोदी ने व्लादिमीर पुतिन को गले लगाया वो ऐसा दिन था जब रूस ने यूक्रेन में बच्चों के एक अस्पताल को निशाना बनाया था और पश्चिमी देश उसकी आलोचना कर रहे थे।
 
अमेरिका उन देशों को हथियार और संवेदनशील रक्षा तकनीक देने से कतराता है जिन्हें रूसी सैन्य साज़ोसामान लेने से परहेज़ नहीं है।
 
विल्सन सेंटर के दक्षिण एशिया मामलों के निदेशक माइकल कुगलमेन लिखते हैं, “इस सबके बावजूद मोदी की मॉस्को यात्रा वाशिंगटन को इतनी नागवार नहीं गुज़री जितना कि लोग समझते हैं। रूस अब भी भारत का सबसे बड़ा शस्त्र सप्लायर है लेकिन हाल के वर्षों में भारत ने रूस से हथियारों का आयात कम किया है और अमेरिका से हथियारों के आयात को बढ़ाया है। ये कोई छिपी हुई बात नहीं है कि भारत न सिर्फ़ पश्चिम से सहयोग बढ़ा रहा है बल्कि अमेरिका की इंडो-प्रशांत नीति को भी अपना समर्थन दे रहा है रहा है जो रूस को पसंद नहीं है।”
 
रूस के लिए भारत का महत्व बरकरार
इसके ठीक विपरीत रूस न सिर्फ़ भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी चीन से नज़दीकी बढ़ा रहा है बल्कि पाकिस्तान से भी उसका राजनीतिक संपर्क लगातार बढ़ रहा है।
 
रूस ने ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसे बहुदेशीय मंचों पर अपनी सक्रियता बढ़ाई है। दूसरी तरफ़ भारत ब्रिक्स और एससीओ के साथ साथ इंडो-पैसेफ़िक क्वाड का भी सदस्य है।
 
भारत की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य विकासशील और विकसित देशों के बीच पुल का काम करना है इनमें ऐसे देश भी शामिल हैं जिन्हें रूस का समर्थन हासिल है।
 
यूक्रेन के साथ रूस की लड़ाई भारत के हित में नहीं है क्योंकि इसने भारत की खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा को नुकसान पहुंचाया है और रूस को चीन के करीब ला खड़ा किया है।
 
भारत ने अमेरिका की तरह युद्ध की साफ़ शब्दों में निंदा नहीं की है लेकिन उसने बार-बार युद्ध समाप्त करने की अपील ज़रूर की है। ये सही है कि पुतिन ने मोदी की शांति की अपील को नहीं माना है।
 
नरेंद्र मोदी के मॉस्को जाने का एक और कारण ये भी है कि इससे रूस और चीन के बीच बढ़ती नज़दीकियों को रोकने में मदद मिलेगी। ये एक ऐसा घटनाक्रम है जिससे अमेरिका और भारत दोनों चिंतित हैं।
 
दूसरी तरफ़, इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि रूस आर्थिक कारणों से भले ही चीन की शरण में जा रहा हो लेकिन वो अब भी समय की कसौटी पर भारत के साथ खरे उतरे व्यापारिक और रक्षा संबंधों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

रैली में ट्रंप पर हमला क्या उन्हें बाइडन पर दिलाएगा बढ़त?