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'डेड' झील कराकुल जहां नाव तक नहीं चल सकती

'डेड' झील कराकुल जहां नाव तक नहीं चल सकती
, बुधवार, 20 फ़रवरी 2019 (11:21 IST)
- डेव स्टेम्बोलिस (बीबीसी ट्रैवल)
 
मध्य एशियाई देशों में फैले पामीर के पठार को दुनिया की छत कहा जाता है। इन्हीं पहाड़ों के बीच, समुद्र तल से क़रीब 4 हज़ार मीटर की ऊंचाई पर स्थित है कराकुल झील। ये दक्षिण अमेरिका की मशहूर टिटिकाका झील से भी ऊंचाई पर है। ये विशाल झील, करीब ढाई करोड़ साल पहले धरती से उल्कापिंड के टकराने की वजह से बनी थी।
 
कराकुल झील 380 वर्ग किलोमीटर में फैली है। कई जगहों पर ये 230 मीटर तक गहरी है। बेहद ख़ूबसूरत ये झील, चारों तरफ़ से बर्फ़ीले पहाड़ों और ऊंचे रेगिस्तानी इलाक़ों से घिरी हुई है। आप पामीर हाइवे के जरिए कराकुल झील तक पहुंच सकते हैं। ब्रितानी नक़्शानवीसों ने इस झील का नाम महारानी विक्टोरिया के नाम पर रखा था। बाद में सोवियत संघ ने इसका नाम कराकुल यानी काली झील रख दिया।
 
हक़ीक़त ये है कि ये झील दिन में कई बार अपना रंग बदलती है। कभी इसका पानी नीला, तो कभी फ़िरोजी, कभी गहरे हरे रंग का तो शाम के वक़्त गहरा काला दिखता है। जोखिम भरे सफर के शौक़ीन लोग दूर-दूर से इस झील को देखने आते हैं। कराकुल झील का सबसे क़रीबी क़स्बा है ताजिकिस्तान का मुर्ग़ब। सीमा पार किर्गिज़िस्तान का ओस भी झील के पास ही पड़ता है।
 
नमक ने इस झील की घेरेबंदी कर रखी है। इस झील से पानी निकलकर बाहर नहीं जाता। नतीजा ये कि कराकुल झील एशिया की सबसे खारी झील है। इस के पानी में इतना नमक है कि इस में एक ख़ास तरह की मछली के सिवा कोई जीव नहीं पाया जाता। कराकुल झील में केवल स्टोन लोच नाम की मछली ही पायी जाती है, जो बलुआ तलछट वाली झीलों में आबाद हो सकती है।
 
भले ही कराकुल में जीव न पाए जाते हों, लेकिन, इसके बीच में निकल आए द्वीपों और आस-पास के दलदली किनारों पर दूर-दूर से परिंद आते हैं। इनमें हिमालय पर्वत पर रहने वाले बाज और तिब्बती तीतर शामिल हैं। कराकुल झील इतनी खारी है कि इसमें नाव चलाना कमोबेश नामुमकिन है। अगर आप फिर भी इसमें नाव खेने की कोशिश करते हैं, तो उसके उलट जाने की पूरी आशंका होती है।
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जिस तरह मध्य-पूर्व में मृत सागर या डेड सी है, उसी तरह की है कराकुल झील। मृत सागर के पानी में भी इतना नमक है कि वहां कोई जीव नहीं पल सकता। यही हाल कराकुल का भी है। फिर भी इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। आस-पास के लोग यहां गर्मियों में जुटते हैं। त्यौहार सा समां हो जाता है। पतंगे उड़ाने से लेकर रैफ्टिंग तक की प्रतियोगिताएं होती हैं।
 
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान झील के पास, जर्मन क़ैदियों को रखा जाता था। बाद में किर्गीज़िस्तान के घुमंतू कबीले, गर्मियों में झील के आस-पास के चरागाहों में भेड़-बकरियां चराने आने लगे। हालांकि अब झील के पास एक छोटा सा गांव ही आबाद है। इसका नाम भी कराकुल ही है। ये झील के पूर्वी हिस्से के पास स्थित है। झील देखने आने वालों के लिए किर्गीज़िस्तान के लोगों ने कुछ झोपड़ियां भी बना ली हैं।
 
सुबह के वक़्त अगर आप कराकुल गांव के आस-पास से गुज़रें, तो सफ़ेदी की हुई दीवारों वाले नीले घर आप को पुराने दौर के किसी यूनानी द्वीप की याद दिलाते हैं। पर, यहां इतने कम लोग रहते हैं कि ये क़स्बा भुतहा लगता है।
 
गर्मियों में यहां चमड़ी जला देने वाली धूप होती है। तो, सर्दियों में हाड़ कंपा देने वाली ठंड पड़ती है। दोनों ही मौसमों में लोगों का घर से निकलना मुश्किल होता है। झील का पानी भयंकर खारा होने के बावजूद इस गांव में गर्मियों में बड़ी तादाद में मच्छर हो जाते हैं।
 
कराकुल की वीरान गलियों से गुज़रते हुए आप को एहसास होता है कि कभी ये मशहूर कारोबारी रास्ते सिल्क रूट का हिस्सा हुआ करता था। बेहद पठारी इलाक़े में ऐसी ही छोटी-छोटी बस्तियां आबाद थीं। चीन के काशगर से उज़्बेकिस्तान के बुखारा और समरकंद के बीच में ऐसे ही ठिकानों पर मुसाफ़िरों के कारवां रुका करते थे।
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गांव में एक पुरानी सफ़ेदी की हुई मस्जिद है जो ख़ामोश सी मालूम होती है। मिट्टी और ईंटों के बने मकान लोगों को पनाह देने के काम आते हैं। ये बड़ा डरावना सा गांव महसूस होता है। दूर-दूर तक फैले पहाड़ और खुले आसमान तले जब आप अकेले खड़े होते हैं, और दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता, तो सिहरन उठती है।
 
झील की घेरेबंदी किए से मालूम होने वाले पहाड़ों का सिलसिला जहां तक नज़र जाए, वहां तक दिखाई देता है। उमस भरी हवा भी यहां नहीं पहुंच पाती। पूरे साल भर में यहां 30 मिलीमीटर से भी कम बारिश होती है।
 
ये मध्य एशिया का सबसे सूखा इलाक़ा है। यहां गिनती के ही लोग रहते हैं। पहुंचना भी मुश्किल है। फिर भी कराकुल झील जोखिम भरे सफ़र के दीवानों को अपनी तरफ़ ख़ींचती है। यहां तक पहुंचने का एक बार का सफ़र बरसों तक याद रखने वाला तज़ुर्बा होता है।

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