- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ होने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती कुछ आशंकित हो गई हैं। उन्हें यह लगने लगा है कि भारतीय जनता पार्टी उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी कर सकती है। वैसे यह आशंका निराधार भी नहीं थी। लोकसभा चुनाव में ऐसा हुआ भी था। दूसरी आशंका यह भी थी कि सवर्ण मतदाता अब उनका साथ नहीं देंगे। यह आशंका भी निराधार नहीं थी। बसपा के शासन से आम सवर्ण मतदाताओं को निराशा हुई थी। इसमें बसपा ने मुसलमान मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया। यह दलित व सवर्ण मतदाताओं के प्रति उपजी आशंका थी।
इसी कारण मायावती ने दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने को तरजीह दी। इस बार इसी समीकरण पर बसपा ने दांव लगाया है। मायावती को उम्मीद है कि इसके बल पर वह चुनाव समर में कामयाब होगी। किंतु समीकरण को साधने के लिए बसपा ने भय का सहारा लिया है। पहले दलितों के मसले पर विचार करिए। सकारात्मक तरीका यह होता कि मायावती दलितों के उत्थान हेतु किए गए कार्यों का उल्लेख करती, लेकिन सच्चाई यह है कि पांच वर्ष तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बावजूद मायावती आम दलितों के जीवन में कोई बदलाव नहीं ला सकी। पहले से सक्षम दलित अधिकारियों को अवश्य उनके शासन में तरजीह मिली। इसलिए मायावती अपने शासनकाल के विकास संबंधी कार्यों पर चर्चा नहीं चाहतीं।
दलितों को भयभीत करने के लिए वे आरक्षण का मुद्दा उठा रही हैं। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक वह भाजपा व संघ को नसीहत दे रही है। कह रही है कि ये आरक्षण विरोधी है। यदि आरक्षण हटाने का प्रयास हुआ तो वह सफल नहीं होने देंगीं। मायावती जानती हैं कि उनकी इस आशंका में कोई दम नहीं है। आरक्षण पर संघ व भाजपा की स्थिति पूरी तरह सामने है। इसके अनुसार, समाज में तब तक भेदभाव रहेगा जब तक आरक्षण व्यवस्था जारी रहेगी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो 1991 में विधिवत प्रस्ताव पारित करके आरक्षण का समर्थन किया था।
मायावती को दूसरी बात यह समझनी होगी कि लाख कोशिशों के बावजूद वह अपनी पार्टी का विस्तार उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं कर सकी हैं, जबकि अनुसूचित जाति व जनजाति क्षेत्रों में सर्वाधिक सफलता भाजपा को ही मिलती है। इसी प्रकार अनुसूचित जाति व जनजाति इलाकों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हजारों की संख्या में सेवा कार्य संचालित करता है। इसका उद्देश्य उनका जीवन स्तर उठाना व समाज में समरसता को बढ़ावा देना है।
मायावती को तीसरी बात यह समझनी होगी कि भाजपा पहली बार किसी प्रदेश की सत्ता में नहीं आ रही है। मायावती एक बार के बाद लगातार दूसरी बार सत्ता में कभी नहीं आ सकी, जबकि कई प्रदेशों में भाजपा लगातार तीन-चार बार से सत्ता में वापसी कर रही है। यह वहां के दलितों के समर्थन के बिना संभव नहीं है।
चौथी बात यह है कि मायावती को इस मामले में सच्चाई का सामना करना चाहिए, उन्हें सोचना चाहिए कि 2 जून को गेस्ट हाउस हमले के समय भाजपा व उसके नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी जान की बाजी लगाकर उनकी रक्षा न करते तो क्या होता? इसके अलावा यह भाजपा ही थी, जिसने बसपा सुप्रीमो को तीन बार मुख्यमंत्री बनाया। मायावती वरिष्ठ नेता हैं। अपने हित में समीकरण बनाने का उनको अधिकार है, लेकिन इसके लिए बेसिर-पैर की बातें करके वे अपनी स्थिति हास्यास्पद बना रही हैं। आरोप लगाने से पहले यह बताना चाहिए कि उन्हें किस दिव्य दृष्टि से पता चला कि आरक्षण में कटौती का प्रस्ताव आने वाला है। क्या मायावती देश की सबसे बड़ी पार्टी के नेताओं को इतना अनाड़ी समझती है। मायावती को चाहिए कि अपने को दलितों की एकमात्र नेता होने का भ्रम मन से निकाल देना चाहिए। यदि ऐसा होता तो उनकी पार्टी का अस्तित्व आज केवल एक प्रदेश में दिखाई ना देता।
क्या मायावती इस तथ्य से इन्कार कर सकती है कि डा. अम्बेडकर से संबंधित पांच स्थानों को स्मारक का रूप नरेन्द्र मोदी सरकार के कारण मिल सका। मायावती को इस बात का जवाब देना चाहिए कि वह मजहबी आरक्षण के पक्ष में हैं या खिलाफ हैं। वह संघ व भाजपा पर आरक्षण संबंधी जो आरोप लगा रही हैं। वह मजहबी आरक्षण व अति दलित व अति पिछड़ों से संबंधित है। मायावती को यह बताना चाहिए कि मजहबी आरक्षण को खुद डॉ. अम्बेडकर नकार चुके थे। चुनाव के समय उनको नौ से लेकर अठारह प्रतिशत आरक्षण के वादे होते हैं। मायावती को अपनी स्थिति साफ करनी होगी। यह बताना होगा कि डॉ. अम्बेडकर के इस संबंध में क्या विचार थे।
इसी प्रकार मायावती को उन अति दलितों व पिछड़ों की वेदना समझनी होगी, जो आज तक आरक्षण के लाभ से वंचित हैं। आरक्षण से संबंधित विचार के यही मुद्दे हैं। मायावती इनसे ध्यान बंटाने के लिए भाजपा व संघ पर आरोप लगा रही हैं। इसी मकसद की पूर्ति के लिए वे दलितों को भय दिखा रही हैं। इसी प्रकार वे इस बार समीकरण में नए शामिल हुए मुसलमानों को भी भय दिखा रही हैं। वे यह भूल जाती हैं कि भाजपा शासित राज्यों में मुसलमानों की स्थिति ज्यादा अच्छी है। वस्तुतः इस रणनीति से बसपा अपनी कमजोरी ही उजागर कर रही है। विकास की जगह भय को तरजीह देना सकारात्मक राजनीति नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)