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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कालियादह महल : वैभवपूर्ण इतिहास

कालियादह महल : वैभवपूर्ण इतिहास
डॉ. राजशेखर व्यास 
 
भैरवगढ़ के किले के निकट से ही इस मनोहर दर्शनीय स्थान की ओर मार्ग जाता है। इस भव्य प्रासाद का नाम कालियादह महल है। 'अवन्ति महात्म्य' में लिखे अनुसार यहां ब्रह्मकुंड और सूर्य नारायण का मंदिर था। कालियादह नाम पीछे का है। इस स्थान के आसपास तथा कुशकों में कुछ मूर्तियां हैं। पत्‍थर पर जिस प्रकार की खुदाई का काम यत्र-तत्र दिखाई देता है, उससे पौराणिक कथन की सत्यता मालूम होती है। पहलेपहल इस स्थान का वर्णन मालवे के सूबा होशंगशाह और गुजरात के अहमदशाह की लड़ाई सन् 1418 के समय मिलता है। 



 
भवन के एक भग्न ‍शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह स्थान (सन् 1458) में मुहम्मद खिलजी के जमाने में निर्माण किया गया। तवारीख शाही में लिखा है कि सन् 946 हिजरी सन् 1572 में जब शेरशाह ने यहां अपना डेरा डाला था, उस समय सिकंदर खां ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। 
 
अधिक विश्वस्त यह है कि 400 वर्ष पूर्व मांडू के सुलतान नसीरुद्दीन खिलजी ने मूल हिन्दू मंदिर को भंग कर शाही महल बनाया। सुल्तान खिलजी को पारा खाने की आदत थी इसलिए भारी ऊष्णता शांत करने के उद्देश्य से शिप्रा की अगाध जलर‍ाशि के निकट तट पर जल-यंत्रों से परिपूर्ण इस स्थान पर उसने महल आवास बनवाया। ऋतुसंहार काव्य में ग्रीष्म की आतप-शांत के लिए परिपूर्ण जिन स्थानों का सुंदर वर्णण कवि ने किया है- 'निशाशशांक क्षत नील राजय: क्वचिद्धिचि‍त्र जल यंत्र मंदिरम्'- यह 'कालियादह' महल सहसा उन स्थानों को पुन:-पुन: जागृत करता रहता है।
 
कर्नल ल्युअर्ड ने अपनी हिस्ट्री ऑफ दी सेंट्रल इंडिया में भी लिखा है कि यह नसीरुद्दीन खिलजी पारे की गर्मी शमन करने के लिए कालियादह महल के निकटवर्ती शिप्रा के अगाध जल में बड़ी देर तक डुबकी लगाए पड़ा रहता था।
 
एक रोज एक नौकर ने उसको बेहोशी में गिरा समझकर जल से बाहर निकाल लिया। जब उसको सुध आई, तब उसने अपने निकालने वाले का नाम पूछा मालूम होने पर इस अपराध में कि उसने बादशाही शरीर को हाथ लगाने की जुर्रत दुस्साहस कैसे किया, दोनों हाथ काट डालने का दंड दिया। नसीरुद्दीन को तो रोजाना नशे में चूर हो जल में डुबकी लगा रखने की आदत ही थी। वह महल के नीचे नदी में पड़ा रहता था। एक रोज अधिक गर्मी चढ़ जाने के कारण उसको इसी शिप्रा नदी की गोद में जल-समाधि मिल गई। उसके शरीर को स्पर्श करना नौकरों के सामर्थ्य के बाहर था अत: दूसरे रोज जब उसकी लाश तैरती हुई ऊपर मिली, तब वह मृतक समझकर निकाल लिया गया। 
 
सम्राट अकबर ने भी इस महल की सुंदरता पर मुग्ध होकर (सन् 1599) में अपना मुकाम यहां किया था। कुशक के एक पत्थर पर उनके ‍अंकित शिलालेख में लिखा है-
 
'बतारीख सन् 44 साल बाद इलाही मुताबिक सन् 1000 हिजरी रायात जफर आं अज्म तस्खीर दकन कर्दव ईजा ऊबूर उल्फाद।' 
 
'नामीजे फलक दानिश दिलम कर्द सवाल,
अज रफ्ता आयन्दा बयां कुन अहवाल!
गुफ्ताचे खबर अज रफ्तगां नेस्त असर,
आयन्दा चोरफ्त व ऑचेंमी पुर्सी हाल।' ।।. ।।. शिलालेख. ।।. ।।.
 
अर्थात- दक्षिण को फतह करने के इरादे से यात्रा करते हुए सम्राट यहां ठहरे थे। सम्राट अकबर के यहां (25 जनवरी सन् 1599) निवास के विषय के प्रसिद्ध अबुल फजल ने 'अकबरनामा' में लिखा है कि दुनिया के निहायत फरहत बख्श मुकामों में से यह भी एक मुकाम है। इसी तरह 'आईने अकबरी' , 'तवारीख फरिश्ता' में भी इस जल-महल की बड़ी तारीफ की है।
 
सम्राट जहांगीर के साथ सन् 1616 में सर टॉमस रो ने भी इस जल-महल में निवास किया था। अपनी डायरी में सर टॉमस ने भी इसकी सुंदरता का वर्णन किया है।
 
दूसरी कुशक की दीवार पर एक जगह खुदा हुआ है, जो कि हिजरी सन् 1031 तथा ई.सं. 1681 का है-
 
 
'बहुक्म शाह जहां साख्त ई दरे अशस्त गाह,
हसन बउदब जहांगीर अकबर शाह;
बहिश्त रूए जमीं याफ्त अक्ल तारीखश,
कि सर वराई जहां-रास्त मंजिले दिलख्वाह।' ।।. ।।
 
अर्थात- ऐ हसन! अशरतगाह का दरवाजा सारी दुनिया के फतह करने वाले शहंशाह अकबर के जमाने में उनकी आज्ञा से बना था। अक्ल ने इसकी तारीख बहिश्त रूम जमी (सन् 1030 ई.ज.) बतलाई, क्योंकि इस महत्व से दुनिया के शाहों का दिल निहायत खुश होता है। 
 
इसी तरह बादशाह जहांगीर को यह महल बहुत ही पसंद था। वह अक्सर इस महल में आकर रहता था। यहां के जल-प्रवाह, जल के 52 कुंडों की विचित्र कारीगरी की शोभा से मन को प्रसन्न किया करता था। जहांगीर की यह बात प्रस‍िद्ध है कि वह कालियादह महल में रहते हुए नाव में बैठकर उज्जैन के जंगलों में रहने वाले महान तत्वज्ञ योगी जदरूप स्वामी से मिलने जाया करता था तथा ज्ञान-पिपासा को शांतिपूर्ण चर्चा से शमन किया करता था। अपनी स्वलिखित 'तुजुक-ए-जहांगीरी' नामक पुस्तक में वह लिखता है-
 
'2 असफन्दार (माघ सुदी 15 सं. 1973) को नाव में बैठकर मैंने कालियादह से प्रयाण किया। यह बात कई बार सुनी गई थी कि 'जदरूप' नामक एक तपस्वी संन्यासी कई सालों से उज्जैन के जंगलों में साधना करता है। मुझे उससे मिलने की कई सालों से इच्छा थी। जब मैं आगरे में था, तब मैंने सोचा कि उसे बुलाकर मिलूं, परंतु उसे मैं तकलीफ नहीं देना चाहता था। अब उज्जैन पहुंचकर किश्ती से उतरकर आधा पाव कोस पैदल चलकर उसे देखने को गया।'
 
इसके बाद एक जगह बादशाह ने फिर लिखा है- 
 
'गुजरात के लौटकर 29 आवान (अगहन सुदी 4 सं. 1675) को फिर मैं जदरूप से मिला, जो हिन्दू धर्म के तपस्वियों में से हैं और जिसका हाल पिछले पन्नों में लिखा जा चुका है, मिलकर कालियादह गया।' 
 
इस प्रकार अकबर और जहांगीर ने कई बार इस महल में रहकर शांति की समाराधना की। पिं‍डारियों के जमाने में यह महल नष्ट हो गया था। बाद में सन् 1700 में पुन: जल-यंत्रों और कुशकों की मरम्मत करवाई गई। इसके बाद सन् 1786 में ग्वालियर राज्य के मध्य भारतीय विभाग के सरसूबा सर माइकल फिलोज ने इसका जीर्णोद्धार करवा अपने रहने के लिए पसंद किया। 
 
बाद में बी‍च में किसी की दृष्टि इस ओर नहीं गई। हां, सन् 1920 में प्रसिद्ध नीति-निपुण महाराजा स्व. माधवराव सिंधिया की नजर इस महल पर पड़ी। स्व. महाराजा को उज्जैन बहुत प्यारी जगह लगती थी। उसमें कालियादह महल जैसा मनोहारी स्थान उन्हें क्यों न पसंद होता? स्वयं महाराजा ने अपने निवास के लिए इसे पसंद किया। शहर की कोठी का सारा आराईश सामान इस शाही स्मृति-महल में पहुंच गया। इसके अतिरिक्त कई लाख रुपए खर्च करके इसकी सुंदरता सोने में सुगंध की भांति बढ़ाई गई। 
 
यहां चारों ओर अपनी सुगंध से दिशाओं को सुरभित करने वाली लतिकाएं और वृक्षावली हवा के झोंके से लहराती हैं। किसी समय यह उज्जैन का नंदन-कानन रहा है। जनाना महल, गेस्ट हाउस आदि कई नए दर्शनीय भवनों का निर्माण हुआ। 100-200 मनुष्य भी यहां रहते हैं। आसपास कृषि होती है। स्वर्गीय महाराजा ने कई बार यहां सपरिवार निवास किया। बाद में उनके चि. स्व. महाराज श्रीमंत जयाजीराव सिन्धे महोदय भी अपनी पूज्या जननी के साथ यहां इस रम्य महल में आकर निवास करते रहे। आज सिंधिया वंश का अधिकार इस पर है।
 
आश्चर्य तो यह कि इस महल के जीर्णोद्धार की जरूरत नहीं हुई। केवल सुविधा के लिए नवीनता का प्रवेश इसमें किया गया है। इस समय नवीन एवं प्राचीनता का सुंदर सम्मिश्रण हो गया है। महल नदी तट से लगकर बहुत ऊंचाई पर हरित दूब की कालीनों से घिरा हुआ है, नीचे एक तहखाना है। 

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महल के नीचे विमल जल-राशि परिपूर्ण भगवती शिप्रा अपनी उत्ताल तरंगों से शोभा बढ़ा रही है। इसी जल के भरे हुए पुख्ता पत्‍थरों के बने हुए विचित्र कारीगरी से युक्त 52 कुंड हैं। इसमें प्राय: सदैव थोड़ा- बहुत जल इधर से उधर क्रीड़ा-कल्लोल करता रहता है। कारीगर की कुशलता तो इसमें है कि घंटों खड़े रहकर देखने पर भी सहज यह ज्ञात नहीं होता कि कुंडों में किस ओर कहां पानी जा रहा है, और आ रहा है, भूल-भुलैया की तरह जल का इतस्तत: भ्रमण मन को मोहित कर लेता है। एक चक्की बनी हुई है। उसमें से एक बार दाहिनी ओर, एक बार बाईं ओर जल घूमता रहता है। इन्हीं कुंडों के चारों ओर पुख्ता कुषकें बनी हुई हैं, ऊपर सड़कें भी हैं। कुषकों के अंदर नीचे हजारों मनुष्य छिपे रह सकते हैं। 
 
ये कुषकें सभी पुरानी पुख्ता बनी हुई हैं और अत्यंत ठंडी हैं। महल में 'तार' टेलीफोन की भी व्यवस्था है। 
 
शहर के लोग प्राय: मित्र-मंडलियों के साथ सैर-सपाटे के लिए शाम के समय यहां आते रहते हैं। सवारी में आना होता है। शहर से 6 मील के लगभग दूरी पर हैं। 
 
सायंकालीन शीतल-मंद समीर शिमला-शैल-विहारियों को भी यहां आकर्षित कर लेता है। उज्जैन आने वाले यात्रियों को यह स्थान अवश्य देखना चाहिए।
 
कुछ वर्ष पहले स्व. महाराज माधवराव सिंधिया ने इस महल के विकास में अपनी रुचि पुन: दिखाई थी। वे भी अब दिवंगत हो गए, किंतु लेखक द्वारा दी गई योजनाओं से उम्मीद है कि भारत सरकार एवं म.प्र. शासन का पर्यटन विभाग अवश्य जाग्रत होगा।
 
साभार : जयति जय उज्जयिनी 

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