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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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उज्जयिनी : अतीत के स्वर्णिम झरोखों से

उज्जयिनी : अतीत के स्वर्णिम झरोखों से
राजशेखर व्यास 
 
उज्जयिनी का महत्व धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत बड़ा है। मानवाकृति भारत के मानचित्र में उज्जैन, भारत के मध्य स्थान में मध्य (नाभिदेश) है। आध्यात्मिक तीर्थों का वर्णन करते हुए उपनिषदों और पुराण-ग्रंथों में 'आज्ञाचक्रं स्मृताकाशी या बाला श्रुति मूर्धनि, स्वाधिष्ठानं स्मृता कांची, मणिपुरमवन्तिका।' (9/13 वराह पुराण) अवंतिका नगरी को इस महाक्षेत्र का 'मणिपुर चक्र' अर्थात शरीर का नाभिदेश बतलाता है- 'नाभ‍िदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वैहर:' इस वरहोक्त वर्णन का संबंध 'कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय ब्राह्मणग्रन्थ' की श्रुति से है। (कां.प्र.पा. 8 अनु. 8) इस प्रकार वेद श्रुति से लेकर ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में भी उज्जयिनी का महत्व प्रतिपादित है। 18 पुराणों में उज्जैन का वर्णन धार्मिक दृष्टि से सब जगह बतलाया गया है। 
अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कां‍ची अवन्तिका:; पुरी, द्वारावती चैव, सप्तैते मोक्षदायका:
 
इन 7 पुरियों को मोक्षप्रदायिका बतलाया गया है। महाकालेश्वरजी की सुप्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में गणना है। इसके अतिरिक्त समस्त मृत्युलोक के स्वामी के रूप में श्री महाकालेश्वर का महत्व और भी अधिक है- 'कलनात्सर्वभूतानां महाकाल: प्रकीर्तित:।' 
 
'आकाशेतारकं लिंग पाताले हाटकेश्वर;
मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रय नमोस्तुते।'
 
श्मशान, ऊसर, क्षेत्र, वन, पीठ, आदि के होने से यह सभी तीर्थों से तिलभर अधिक पुण्यप्रद है। जहां मृत्यु लोकेश महाकाल स्वयं विद्यमान हों, जो भारत का मध्य हो, जिस पर से होकर मध्यरेखा (ज्योतिष-गणना के अनुसार) गई हों, वह स्थान क्यों न महत्वपूर्ण हो? ‍तीर्थ-स्थान होने के कारण यहां सहस्रावधि देवी-देवताओं के दर्शन सुलभ हैं। सुप्रसिद्ध‍ विक्रमादित्य की आराध्य देवी पौराणिक महत्वपूर्ण हरसिद्धि देवी का पुरातन स्थान है। मंगल ग्रह की जन्मभूमि होने का सौभाग्य इस नगरी को प्राप्त है। भारत की तीर्थयात्रा का प्रारंभ उज्जैन से ही होता है। यह नगरी धार्मिक क्षेत्र, विद्या-वैभव का केंद्र और ज्योतिष शास्त्र का आधार-स्थल मानी गई है।

आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे आचार्य यहां हुए हैं। ऐसे अनेक महत्वपूर्ण कारणों से प्रति 12 वर्ष में जिस समय सिंह राशि पर गुरु होते हैं, मेष पर सूर्य, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष तुला के चन्द्र, स्वा‍ति नक्षत्र, पूर्णिमा ‍तिथि, व्यतिपात योग, सोमवार, इन दश महायोगों के संयोग से यहां सिंहस्थ का मेला लगता है जिसमें सहस्रों साधु और लक्षावाधि यात्री दर्शक यहां आध्यात्मिक चर्चा करके भिन्न-भिन्न वर्ग के साधारण जन को सन्मार्ग दर्शन कराते रहे हैं और अब भी एकत्र होते हैं। इस समय शिप्रा-स्नान का बड़ा पुण्य माना गया है।
 
किसने स्थापित की अवन्तिका 
 
अवन्तिका नगरी किस समय किसने स्थापित की, इसका कोई पता नहीं चलता। महाभारत-काल में भारतवर्ष में जिस समय पूर्ण शांति, सौख्य और उत्कर्ष हो रहा था, उस समय भी उज्जैन का महत्व बहुत बड़ा था। उस समय उत्तर भारत में बड़े-बड़े विद्यापीठ ज्ञान-प्रसार कर रहे थे। उज्जयिनी में भी एक उत्तम विद्यापीठ विद्यमान थी। उस समय काशी विद्या-केंद्र नहीं था; इसी कारण विश्ववन्द्य गीता धर्म के प्रतिपादक योगीश्वर श्रीकृष्ण ने अपने अग्रज बलराम और मित्र सुदामा के साथ प्रात: स्मरणीय महर्षि-प्रवर सांदीपनि के चरणों में बैठकर 14 विद्याएं और 64 कलाएं प्राप्त की हैं। यह उज्जयिनी के अतीत गौरव का एक महत्वपूर्ण प्रमाण हैं, जहां ज्योतिष शास्त्र के बड़े-बड़े आचार्य उत्पन्न हुए हैं और अनेक ग्रंथ-रत्नों का निर्माण किया है। 
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शूद्रक का मृच्‍छकटिक नाटक, बाण की कादम्बरी, कथा-सरित्सागर, शिवलीलामृत तथा कवि-कुल-गुरु कालिदास की सहृदय-आह्लादकारिणी रचनाओं का अमृत-प्रवाह यहां निरंतर बहता रहता था। कालिदास ने रघुवंश की सुनंदा से स्वयंवर के समय, अवन्तिनाथ का वर्णन तथा विरही 'यक्ष' के द्वारा मेघ को उज्जैन दर्शन कराने का कार्य करके उज्जयिनी के गौरव पर अपने को न्योछावर किया है। व्यास, शूद्रक, भवभूति, बिल्हण, कल्हण, अमरसिंह, पद्मगुप्त आदि कविवरों ने तथा संस्कृत-साहित्य के अनेक ग्रंथों में इस नगरी का बहुमान पुरस्सर सविस्तार वर्णन किया है। कुछ ग्रंथों के आधार से यह ज्ञात होता है कि पुरातन उज्जयिनी शिप्रा नदी के दोनों तटों पर बसी हूई थी। रम्य उद्यान, विस्तीर्ण चौराहों, मनोहर एवं भव्य विशाल मंदिरों, अमल-धवल राजप्रासादों तथा अट्टालिकाओं के वैभवपूर्ण दृश्यों से चकाचौंध पैदा करने वाली प्राचीन उज्जयिनी आज काल के विशाल उदर में गिरकर उध्वस्त-सी हो गई है। 
 
उज्जैन को 'स्वर्ग की समता करने वाली' तथा सम्राट विक्रम को इन्द्रवत उपमा देता हुए परिमल कवि ने बड़ा उत्कृष्ट वर्णन किया है- 
 
'अस्तिक्षिता वुज्जयिनीति नाम्मा,
पुरी विहायस्यमरावती च,
ददर्शयस्यां पदमिन्दुकल्प:
श्री विक्रमादित्य इति क्षितीश:'
 
परंतु वह 'सरस्वती' और 'श्री' का क्रीड़ा केंद्र उज्जैन आज कहां है? आज तो स्मृतिशेष नगरी के खंडहर उसके अतीत की पुण्यस्मृति-मात्र को जागृत करते रहते हैं।
 
विदेश से आए हुए ह्वेनसांग, टॉलमी, परीप्लस, बर्नियर आदि यात्रियों ने अपनी आंखों देखा हुआ, अनुपम वैभव वाली नगरी का अत्यंत सुंदर और मोहक वर्णन किया है। आज तो भग्नावशेष खंडहर, मंदिर, मूर्तियां सर्वत्र फैले हुए अरक्षित ही पड़े हैं। 
 
और बकौल दुष्यंत-
विद्वानों के बजाए 'दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों,
तमाशबीन दुकान लगाए बैठे हैं।'
 

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