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सुनिए, मैं सिंहस्थ नगरी उज्जैन हूं....

स्मृति आदित्य
फिर किसी सिंहस्थ का इंतजार मत कीजिए....
 
मैं सिंहस्थ नगरी उज्जैन हूं। थोड़ी थकी, थोड़ी सी उदास, थोड़ी बिखरी हुई लेकिन अनंत ऊर्जा से भरी हुई...मेरी धरा पर कलकल करती क्षिप्रा नदी में ना जाने कितने वर्ष पहले अमृत-कलश छलका था... अब तक उस नन्ही-सी पावन बूंद को अभिस्पर्श कर लेने को विशाल अपार जनसमुदाय मेरी गोद में अठखेलियां कर रहा था। पर आज सब मुझे छोड़कर जाने को बेताब नजर आ रहे हैं। अपने-अपने काम पर लौटने को तत्पर यह असंख्य चेहरे कल तक मुझमें समा जाने को आकुल दिखाई दे रहे थे, आज जैसे सब थम सा गया है। 
भीड़ आज भी है, पंडाल अब भी खड़े हैं, साधु-संत-महात्मा-मंडलेश्वर-स्वामी-बाबा-तपस्वी-ऋषि-मुनि अभी गए नहीं हैं लेकिन वह जो कल तक था अपरिमित श्रद्धा और अगाध उत्साह का पवित्र सैलाब वह आज जाने कहां किस कोने में सिमटा हुआ है। रेलमपेल आज भी मची है पर क्षिप्रा के रामघाट तक पहुंचने की विकलता उसमें नहीं है। वह रौनक, वह चहक, वह रंग, वह सुगंध, वह दिव्यता, वह भव्यता, वह आध्यात्मिक ऐश्वर्य, वह सांस्कृतिक संगम, वह उफनता-उमगता धर्म भाव वैसा नहीं है जो पिछले एक माह से रचा-बसा था.... शायद विदा हो गए हैं मेरी धरा पर स्वर्ग से पधारे देव-दानव-नाग-गंधर्व-सुर-असुर-अप्सरा... और शेष रह गई है कोटि-कोटि जनता और उनका अर्जित पुण्य लाभ...
चरम आस्था को अचानक आई आपदा ने झकझोरा पर वह अडिग रही, अव्यवस्था ने चरमराना चाहा पर वह नाकाम रही। शिकवे-शिकायते, नाराजगी और परेशानी तब तक ही थी जब तक सिंहस्थ था अ‍ब हर कोई शांत है, सहज है, संतुष्ट है। जितना मिला उतना बहुत है। कोई मेरी माटी को माथे से लगा कर ही खुश है तो कोई क्षिप्रा के मात्र एक आचमन से ही तृप्त है। कोई सिर पर किसी महात्मा के हाथ लग जाने को ही अपनी सारे जीवन की उपलब्धि मान रहा है तो कोई भगवा-केसरिया परिधान में सजे इतनी बड़े संत समुदाय को ही देखकर ही चकित-विस्मित है।

हर किसी के पास अपने चलबोले(मोबाइल) में तस्वीरों का अंबार लगा है। मेरी अनूठी सजधज को हर कोने से निहारा और निखारा गया, सहेजा और संवारा गया लेकिन पूछती है आपकी उज्जैन नगरी आपसे कि यह चमक, यह दमक, यह झिलमिलाहट-जगमगाहट चाहे ना रहे पर मेरी स्वच्छता और सादगी, सौम्यता और सरलता क्या कायम रह सकती है? 
 
मैं प्रसन्न हूं कि मेरे आंगन में यह आध्यात्मिक बगिया सजी लेकिन मैं क्षुब्ध भी हूं... और यह बेवजह नहीं है। भावुक मोबाइल संदेशों के बीच अपने दिल पर हाथ रखकर जवाब देना कि क्या इस नगरी में ऑटो वालों ने मनमाना नहीं वसूला था? क्या किराए पर कमरा देने वालों ने सिंहस्थ में कमा लेने का चोर भाव नहीं पाला था, पर्व और शाही स्नान के दौरान अपने गंदे और गीले वस्त्र क्षिप्रा के तीरे छोड़कर अपनी अला-बला नहीं उतारी थी, व्यापारी बनने को आतुर हर शख्स ने प्लास्टिक, पोलिथीन, पाऊच और डिस्पोजेबल के नुकसान से आंखें नहीं मुंदी थी?

शहर की व्यवस्था संभालते पुलिस, होमगार्ड, सेवा समिति दल को तो गाली हर किसी ने दी लेकिन क्या अपनी जिम्मेदारी को समझने का किसी ने सुप्रयास किया था ? ना जाने कितने उज्जैनवासियों के सेवा और समर्पण के आदर्श उदाहरण दिए जा रहे हैं पर आप सब जानते हैं कि वह पर्याप्त नहीं है।

आत्ममुग्धता से बाहर आएं और सिंहस्थ की बिदाई के बाद अब आंखें खोल कर देखिए कि मुझे कहां-कहां से फिर से संवारने की जरूरत है, कहां-कहां पर मेरी गोद में रहने वालों को मूल्यगत संस्कारों की जरूरत है?

अगले 12 साल नहीं, अगले 12 दिन दीजिए मुझे ताकि मेरा ऐतिहासिक और परंपरागत सौन्दर्य नवीन आकर्षण के साथ सही रूप में समेटा जा सके। और फिर हर दिन के 12 घंटों में से रोज 1 घंटा दीजिए.... बहुत दबाव है मुझ पर,  बेशक मुझसे प्यार करें पर मेरी देखभाल भी मां और बच्चे की तरह ही कीजिए... सिंंहस्थ का समापन हुआ पर मैं तो वही हूं, वैसी की वैसी... मुझे संंभाल लीजिए... बातों के बताशे बनाने के बजाय कर्मों का सुरक्षा कवच दीजिए....यह समय की मांग है।  फिर किसी महासिंहस्थ का इंतजार मत कीजिए....नगर और मन की सफाई आज और अभी से शुरू कीजिए.... 


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