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शिव के शुभ प्रतीक : इन 12 बातों से पहचाने जाते हैं भोलेनाथ

शिव के शुभ प्रतीक : इन 12 बातों से पहचाने जाते हैं भोलेनाथ

अनिरुद्ध जोशी

, सोमवार, 6 जुलाई 2020 (15:39 IST)
भगवान शिव के शुभ चिन्ह या प्रतीक बहुत ही महत्व रखते हैं। उनके प्रत्येक शुभ प्रतीकों के पीछे कुछ न कुछ रहस्य छुपा हुआ है। आंकड़े के फूल, बिल्वपत्र, जल, दूध और चंदन के अलावा भी कई चीजें उन्हें प्रिय है। आओ जानते हैं ऐसी ही 11 बातें जिनसे पहचानें जाते हैं भगवान भोलेनाथ।
 
 
1.शिवलिंग : भगवान शिव के निर्गुण और निराकार रूप का प्रतीक है शिवलिंग। यह ब्रह्म, आत्मा और ब्रह्मांड का प्रतीक भी है। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे सृष्टि प्रकट होती है उसे शिवलिंग कहते हैं।
 
2. त्रिशूल : भगवान शिव के पास हमेशा एक त्रिशूल ही होता था। त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक भी है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। त्रिशूल के 3 शूल सृष्टि के क्रमशः उदय, संरक्षण और लयीभूत होने का प्रतिनिधित्व करते भी हैं। शैव मतानुसार शिव इन तीनों भूमिकाओं के अधिपति हैं। यह शैव सिद्धांत के पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधित्व करता है।
 
माना जाता है कि यह महाकालेश्वर के 3 कालों (वर्तमान, भूत, भविष्य) का प्रतीक भी है। इसके अलावा यह स्वपिंड, ब्रह्मांड और शक्ति का परम पद से एकत्व स्थापित होने का प्रतीक है। यह वाम भाग में स्थिर इड़ा, दक्षिण भाग में स्थित पिंगला तथा मध्य देश में स्थित सुषुम्ना नाड़ियों का भी प्रतीक है।
 
3. रुद्राक्ष : माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई थी। धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है।
 
4. त्रिपुंड तिलक : माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण, रजोगुण और तपोगुण का प्रतीक भी है। त्रिपुंड दो प्रकार का होता है- पहला तीन धारियों के बीच लाल रंग का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा होता है सिर्फ तीनधारियों वाला तिलक या त्रिपुंड। इससे मन एकाग्र होता है।
 
5. भभूत या भस्म : शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है। यज्ञ की भस्म में वैसे कई आयुर्वेदिक गुण होते हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, तब केवल भस्म (राख) ही शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती है।
 
6. डमरू : सभी हिन्दू देवी और देवताओं के पास एक न एक वाद्य यंत्र रहता है। उसी तरह भगवान के पास डमरू था, जो नाद का प्रतीक है। भगवान शिव को संगीत का जनक भी माना जाता है। उनके पहले कोई भी नाचना, गाना और बजाना नहीं जानता था। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि, जो ब्रह्मांड में निरंतर जारी है जिसे 'ॐ' कहा जाता है। संगीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके बीच विद्यमान केंद्रीय स्वर नाद है। नाद से ही वाणी के चारों रूपों की उत्पत्ति मानी जाती है- 1. पर, 2. पश्यंती, 3. मध्यमा और 4. वैखरी।
 
7.कमंडल : कमंडल में जल होता है जो अमृत का प्रतीक है। कमंडल हर संत या योगी के पास होता है।
 
8. हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म : शिव अपनी देह पर हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म को धारण करते हैं। हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर। हस्ती अभिमान का और व्याघ्र हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है। बाघ शक्ति और सत्ता का प्रतीक है तथा शक्ति की देवी का वाहन है। भगवान शिव अक्सर इस पर बैठते हैं या इस खाल को पहनते है, जोकि यह दर्शाता है कि वह शक्ति के मालिक हैं और सभी शक्तियों से ऊपर हैं।
 
9. शिव कुंडल : हिन्दुओं में एक कर्ण छेदन संस्कार है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है।
 
दो कान के छल्ले, जिन्हें 'अलक्ष्य” (जिसका अर्थ है जो किसी भी माध्यम के द्वारा दिखाया नहीं जा सकता) और निरंजन (जिसका अर्थ है जो नश्वर आंखों से नहीं देखा जा सकता है), भगवान द्वारा पहनें गए हैं। उल्लेखनीय है कि प्रभु के बाएं कान का कुंडल महिला स्वरूप द्वारा इस्तेमाल किया गया है और उनके दाएं कान का कुंडल पुरूष स्वरूप द्वारा इस्तेमाल किया गया है। दोनों कानों में विभूषित कुंडल शिव और शक्ति (पुरुष और महिला) के रूप में सृष्टि के सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
 
10. चन्द्रमा : शिव का एक नाम 'सोम' भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है। विश्व का पहला ज्योर्तिलिंग सोमनाथ में चंद्रदेव ने ही स्थापित किया था। मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चान्द्रमास पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है। यह अर्द्धचन्द्र शैवपंथियों और चन्द्रवंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस अर्धचंद्र का ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है। 
 
11. जटाएं और गंगा : शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं। गंगा को जटा में धारण करने के कारण ही शिव को जल चढ़ाए जाने की प्रथा शुरू हुई। जब स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारने का उपक्रम हुआ तो यह भी सवाल उठा कि गंगा के इस अपार वेग से धरती में विशालकाय छिद्र हो सकता है, तब गंगा पाताल में समा जाएगी। ऐसे में इस समाधान के लिए भगवान शिव ने गंगा को सर्वप्रथम अपनी जटा में विराजमान किया और फिर उसे धरती पर उतारा। गंगोत्री तीर्थ इसी घटना का गवाह है।
 
12. वासुकि और नंदी : वृषभ शिव का वाहन है। वे हमेशा शिव के साथ रहते हैं। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को 4 पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके 4 पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं। एक मान्यता के अनुसार वृषभ को नंदी भी कहा जाता है, जो शिव के एक गण हैं। नंदी ने ही धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना की थी।
 
उसी प्रकार शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नाग कुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। भगवान शिव के नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से स्पष्ट है कि नागों के ईश्वर होने के कारण शिव का नाग या सर्प से अटूट संबंध है। भारत में नागपंचमी पर नागों की पूजा की परंपरा है। विरोधी भावों में सामंजस्य स्थापित करने वाले शिव नाग या सर्प जैसे क्रूर एवं भयानक जीव को अपने गले का हार बना लेते हैं। लिपटा हुआ नाग या सर्प जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है।

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