बचपन में मां-बाप मर गए तो सांईं और उनके भाई अनाथ हो गए। फिर सांईं को एक वली फकीर ले गए। बाद में वे जब अपने घर पुन: लौटे तो उनकी पड़ोसन चांद बी ने उन्हें भोजन दिया और वे उन्हें लेकर वैंकुशा के आश्रम ले गईं और वहीं छोड़ आईं।
बाबा के पास उनका खुद का कुछ भी नहीं था। न सटका, न कफनी, न कुर्ता, न ईंट, न भिक्षा पात्र, न मस्जिद और न रुपए-पैसे। बाबा के पास जो भी था वह सब दूसरों का दिया हुआ था। दूसरों के दिए हुए को वे वहीं दान भी कर देते थे। वे जो भिक्षा मांगकर लाते थे वह अपने कुत्ते और पक्षियों के लिए लाते थे। बाबा ने जीवनभर एक ही कुर्ता या कहें कि चोगा पहनकर रखा, जो दो जगहों से फट गया था। उसे आज भी आप शिर्डी में देख सकते हैं।
साईं का सटका : कहते हैं कि बाबा को यह सटका तब मिला था जबकि वे अयोध्या में थे। अयोध्या पहुंचने पर नाथ पंथ के एक बड़े पहुंचे हुए संत ने उन्हें गौर से देखा और कुछ देर तक देखते ही रहे। बाद में वे बाबा को सरयू ले गए और वहां स्नान कराया और उनको एक चिमटा (सटाका) भेंट किया। यह नाथ संप्रदाय का हर योगी अपने पास रखता है। फिर नाथ संत प्रमुख ने उनके कपाल पर चंदन का तिलक लगाकर कहा कि 'बेटा, तू इसे हर समय अपने कपाल पर धारण करके रखना। जीवनपर्यंत बाबा ने तिलक धारण करके रखा लेकिन सटाका उन्होंने मरने से पहले हाजी बाबा को भेंट कर दिया था।'
साईं की ईंट और कफनी : बाबा के गुरु वैकुंशा उनको अपनी संपूर्ण शक्ति देने के लिए एक दिन जंगल ले गए जहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोग हरिबाबू (सांईं बाबा) पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे।
हरिबाबू मतलब बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया। वैंकुशा ने वही कपड़ा बाबा के सिर पर 3 लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये 3 लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया।...इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा। जब बाबा के भक्त माधव फासले से यह ईंट टूट गई थी तो बाबा ने कहा था कि बस अब मेरा अंतिम वक्त आ गया है।