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पूजा-आरती से बढ़कर संध्या वंदन क्यों?

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प्राचीनकाल से ही संध्या वंदन का प्रचलन रहा है। संधिकाल में ही संध्या वंदन की जाती है, लेकिन वर्तमान में इसका प्रचलन कम हो गया है या सिर्फ वेदपाठी लोग ही करते हैं। अब मंदिरों में पूजा आरती का प्रचलन ही ज्यादा बढ़ गया है। प्राचीन काल में 8 में से 5 वक्त की संधि को करना अनिवार्य है, जबकि आम लोगों के लिए दो वक्त की संधि अनिवार्य कही गई है।
 
संध्या वंदन में क्या करते हैं?
संधिकाल में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। वर्तमान में लोग पूजा-आरती, कीर्तन, यज्ञ को महत्व देते हैं। संधिकाल में ध्यान या प्रार्थना को भी महत्व दिया जाता है। अब यह जानना जरूरी है कि यह उचित है या नहीं। अत: हिन्दू धर्म में संधिकाल में संध्या वंदन करने का बड़ा महत्व है।
 
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संधि के आठ प्रहर:-
संधि 8 प्रहर की होती है। पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकाल, प्रदोष, निशीथ, त्रियामा एवं उषा। दिन के चार प्रहर- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह और सायंकाल।  रात के चार प्रहर- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। पूर्वान्ह और संध्‍याकाल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है।
 
संधिवंदन क्यों जरूरी?
संधिकाल में अनिष्ट शक्तियां सक्रिय होने के कारण इस काल में निम्नलिखित बातें निषिद्ध बताई गई हैं। संधिकाल में भोजन, संभोग, जल, निद्रा, शौच, वार्ता, विचार, यात्रा, क्रोध, शाप, शपथ, लेन-देन, रोना, शुभ कार्य, चौखट पर खड़े होना आदि निषेध माने गए हैं।
 
क्या होगा संध्या वंदन से?
जिस तरह प्रत्येक धर्म में प्रार्थना का अलग अलग तरीके बताए गए हैं उसी तरह हिन्दू धर्म में संध्या वंदन कही गई है। मुस्लिम नमाज पढ़ते हैं, ईसाई प्रार्थना करते हैं उसी तरह हिन्दू संध्या वंदन करते हैं। संध्या वंदन का एक ही तरीका होता है। संध्या वंदन से सभी तरह के रोग और शोक मिट जाते हैं। सुबह और शाम को संध्या वंदन करने से मन और हृदय निर्मल हो जाता है। सकारात्मक भावना का जन्म होता है जो कि हमारे अच्छे भविष्य के निर्माण के लिए जरूरी है।

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