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संत सेन जी महाराज की जयंती पर जानिए रोचक गाथा

अनिरुद्ध जोशी
भक्तमाल के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्रियदास के अनुसार संत शिरोमणि सेन महाराज का जन्म विक्रम संवत 1557 में वैशाख कृष्ण-12 (द्वादशी), दिन रविवार को वृत योग तुला लग्न पूर्व भाद्रपक्ष को चन्दन्यायी के घर में हुआ था। बचपन में इनका नाम नंदा रखा गया।
 
 
वह क्षेत्र जहां सेन महाराज रहते थे सेनपुरा के नाम से जाना जाता है। यह स्थान बघेलखण्‍ड के बांधवगढ़ के अंतर्गत आता है। बिलासपुर-कटनी रेल लाइन पर जिला उमरिया से 32 किलोमीटर की दूरी पर बांधवगढ़ स्थित है। तत्कालीन रीवा नरेश वीरसिंह जूदेव के राज्य काल में बांधवगढ़ का बड़ा नाम था।
 
 
सेन कथा : सेन महाराज नाई थे और कहते हैं कि वे एक राजा के पास काम करते थे। उनका काम राजा वीरसिंह की मालिश करना, बाल और नाखून काटना था। उस दौरान भक्तों की एक मं‍डली थी। सेन महाराज उस मंडली में शामिल हो गए और भक्ति में इतने लीन हो गए कि एक बार राजा के पास जाना ही भूल गए। कहते हैं कि उनकी जगह स्वयं भगवान ही राजा के पास पहुंच गए। भगवान ने राजा की इस तरह से सेवा की कि राजा बहुत ही प्रसन्न हो गए और राजा की इस प्रसन्नता और इसके कारण की चर्चा नगर में फैल गई।
 
बाद में जब सेन महाराज को होश आया तो उन्हें पता चला कि अरे! मैं तो आज राजा के पास गया ही नहीं। आज तो बहुत देर हो गई। वे डरते हुए राजा के पास पहुंचे। सोचने लगे कि देर से आने पर राजा उन्हें डांटेंगे। 
 
वे डरते हुए राजपथ पर बढ़ ही रहे थे कि एक साधारण सैनिक ने उन्हें रोक दिया और पूछा क्या राजमहल में कुछ भूल आये हो?
 
सेना महाराज ने कहा, नहीं तो, अभी तो मैं राजमहल गया ही नहीं। 
 
सैनिक ने कहा, आपको कुछ हो तो नहीं गया है, दिमाग तो सही है?
 
सेन महाराज ने कहा, भैया अब और मुझे बनाने का यत्न न करो। मैं तो अभी ही राजमहल जा रहा हूं।
 
सैनिक ने कहा, आप सचमुच भगवान के भक्त हो। भक्त ही इतने सीधे सादे होते हैं। इसका पता तो आज ही चला। क्या आपको नहीं पता कि आज राजा आपकी सेवा से इतने अधिक प्रसन्‍न हैं कि इसकी चर्चा सारे नगर में फैल रही है।
 
सेन महाराज यह सुनकर आश्चर्यचकीत रह गए और कुछ समझ नहीं पाए, लेकिन एक बात उनके समझ में आ गई की प्रभु को मेरी अनुपस्थिति में नाई का रूप धारण करना पड़ा। उन्‍होंने भगवान के चरण-कमल का ध्‍यान किया, मन-ही-मन प्रभु से क्षमा मांगी।
 
फिर भी वे राजमहल गए। उनके राजमहल में पहुंचते ही राजा वीरसिंह बड़े प्रेम और विनय तथा स्‍वागत-सत्‍कार से मिले। भक्त सेन ने बड़े संकोच से विलम्‍ब के लिए क्षमा मांगी और संतों के अचानक मिल जाने की बात कही। साथ ही यह भी उजागर किया कि मैं नहीं आया था। यह सुनकर राजा ने सेन के चरण पकड़ लिए। वीरसिंह ने कहा, 'राज परिवार जन्‍म-जन्‍म तक आपका और आपके वंशजों का आभार मानता रहेगा। भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के लिए मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्‍य पाप-तापों का अन्‍त किया है।' यह सुनकर दोनों ने एक-दूसरे का जी भर आलिंगन किया।
 
उल्लेखनीय है कि भक्त सेन महाराज नित्‍य प्रात: काल स्‍नान, ध्‍यान और भगवान के स्‍मरण-पूजन और भजन के बाद ही राजसेवा के लिये घर से निकल पड़ते थे और दोपहर को लौट आते थे। 
 
व्यक्तित्व : संत सेन महाराज बचपन से ही विनम्र, दयालु और ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे। सेन महाराज ने गृहस्थ जीवन के साथ-साथ भक्ति के मार्ग पर चलकर भारतीय संस्कृति के अनुरूप जनमानस को शिक्षा और उपदेश के माध्यम से एकरूपता में पिरोया। सेन महाराज प्रत्येक जीव में ईश्वर का दर्शन करते और सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का संदेश जीवन पर्यन्त देते रहे। सेन महाराज का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली हो गया था कि जनसमुदाय स्वतः ही उनकी ओर खिंचा चला आता था। 
 
वृद्धावस्था में सेन महाराज काशी चले गए और वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे और लोगों को उपदेश देते रहे।

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