छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में गिद्धराज जटायु का मंदिर है। यह वह स्थान है जब सीता का अपहरण कर रावण पुष्पक विमान से लंका जा रहा था, तो सबसे पहले जटायु ने ही रावण को रोका था। राम की राह में जटायु पहले शहीद थे।
बागली में जटायु का जटा शंकर
स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में सिर्फ यही जटायु का एकमात्र मंदिर है।
इन सब चीजों के ऐतिहासिक साक्ष्य भी है, लेकिन आस्था और भक्ति को शायद किसी साक्ष्य की जरूरत नहीं पड़ती। दुनिया के इकलौते जटायु मंदिर को देखना काफी दिलचस्प अनुभव है। जटायु की राम से पहली मुलाकाता पंचवटी (नासिक के पास) हुई थी जहां वे रहते थे। लेकिन उनकी मृत्यु दंडकारण्य में हुई।
उल्लेखनीय है कि रामायण में सम्पाति और जटायु को किसी पक्षी की तरह चित्रित नहीं किया गया है, लेकिन रामचरित मानस में यह भिन्न है। रामायण अनुसार जटायु गृध्रराज थे और वे ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे। गृध्रराज एक गिद्ध जैसे आकार का पर्वत था।
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प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरुड़ और अरुण। अरुण जी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी।
सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए, किन्तु सम्पाती उड़ते ही गए। सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतना शून्य हो गए। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्रीसीताजी की खोज करने वाले बन्दरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।
जैन धर्म अनुसार राम, सीता तथा लक्ष्मण दंडकारण्य में थे। उन्होंने देखा- कुछ मुनि आकाश से नीचे उतरे। उन तीनों ने मुनियों को प्रणाम किया तथा उनका आतिथ्य किया। वहां पर बैठा हुआ एक गिद्ध उनके चरणोदक में गिर पड़ा। साधुओं ने बताया कि पूर्वकाल में दंडक नामक एक राजा था किसी मुनि के संसर्ग से उसके मन में संन्यासी भाव उदित हुआ। उसके राज्य में एक परिव्राजक था। एक बार वह अंत:पुर में रानी से बातचीत कर रहा था राजा ने उसे देखा तो दुश्चरित्र जानकर उसके दोष से सभी श्रमणों को मरवा डाला।
एक श्रमण बाहर गया हुआ था। लौटने पर समाचार ज्ञात हुआ तो उसके शरीर से ऐसी क्रोधाग्नि निकली कि जिससे समस्त स्थान भस्म हो गया। राजा के नामानुसार इस स्थान का नाम दंडकारगय रखा गया। मुनियों ने उस दिव्य 'गिद्ध' की सुरक्षा का भार सीता और राम को सौंप दिया। उसके पूर्व जन्म के विषय में बताकर उसे धर्मोपदेश भी दिया। रत्नाभ जटाएं हो जाने के कारण वह 'जटायु' नाम से विख्यात हुआ।
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जब जटायु नासिक के पंचवटी में रहते थे तब एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से उनकी मुलाकाता हुई और तभी से वे और दशरथ मित्र बन गए। वनवास के समय जब भगवान श्रीराम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब पहली बार जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्रीराम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे।
रावण जब सीताजी का हरण कर लेकर गया तब सीताजी का विलाप सुनकर जटायु ने रावण को रोकने का प्रयास किया लेकिन अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीताजी को लेकर लंका की ओर चला गया।
सीता की खोज करते हुए राम जब रास्ते से गुजर रहे थे तो उन्हें घायल अवस्था में जटायु मिले। जटायु मरणासन्न थे। जटायु ने राम को पूरी कहानी सुनाई और यह भी बताया कि रावण किस दिशा में गया है। जटायु के मरने के बाद राम ने उसका वहीं अंतिम संस्कार और पिंडदान किया।