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क्या हिन्दू धर्म अहिंसक है? यदि हां तो फिर पुराण, महाभारत और रामायण में खून-खराबा क्यों है?

अनिरुद्ध जोशी
क्या हिन्दू धर्म अहिंसक है? यदि हां तो फिर पुराण, महाभारत और रामायण में खून-खराबा क्यों है?

उत्तर : उपरोक्त सवाल अधिकतर वे लोग पूछते हैं जिनका हिन्दू धर्म के संबंध में ज्ञान शून्य है। 2 प्रकार के हिंसक लोग होते हैं- परपीड़क और स्वपीड़क। अपनी बातों को किसी के ऊपर जबरन थोपना या उसके शरीर के साथ छेड़छाड़ करना परपीड़क और खुद को त्रास देकर किसी बात को मनवाने वाला स्वपीड़क होता है। ये दोनों ही प्रकार की 2 अतियां हैं। हिंसा का विपरीतार्थी शब्द है- करुणा या दया, अहिंसा नहीं। अहिंसा का बहुत व्यापक अर्थ है। अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं। वीर लोगों के मन में ही अहिंसा का भाव उत्पन्न होता है, क्रूर लोगों के मन में नहीं।
धर्म के बताए गए लक्षणों में एक है अहिंसा। अहिंसा का सबसे पहला उल्लेख वेद और उपनिषदों में हुआ, फिर जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ने इस शब्द की संवेदना को समझाया, फिर महात्मा बुद्ध ने इसके अर्थ को और व्यापक किया और अंत में पतंजलि ने इसे एक ऐसा अर्थ दिया, जो योग के मार्ग पर चलने वालों के लिए उचित है। दरअसल अहिंसा का सिद्धांत मूल रूप से जैन धर्म की देन है। राजा जनक के पूर्वज 21वें तीर्थंकर नमि (नेमिनाथ नहीं) ने सर्वप्रथम अहिंसा की प्रतिष्ठापना की थी। फिर तर्थंकर नेमिनाथ से इसका व्यापक प्रचार हुआ।

'न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं...सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो।'- श्रीकृष्ण  
 
योग के प्रथम अंग का प्रथम सूत्र है- अहिंसा। अहिंसा से ही योग की शुरुआत है। अहिंसा का भाव नहीं, तो योग में आगे बढ़ना भी मुश्किल है। दरअसल, यह विषय उन लोगों के लिए है जिन्हें मोक्ष की कामना है। भगवान महावीर, भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी की अहिंसा की धारणाएं अलग-अलग थीं। फिर भी महावीर और बुद्ध की अहिंसा से महात्मा गांधी प्रेरित थे। उक्त सभी ने प्राचीन योगशास्त्र के अहिंसा के सूत्र को विस्तृत और गूढ़ आयाम दिया।
 
पतंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि- 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैर त्याग:' अर्थात अहिंसा की साधना से बैरभाव निकल जाता है। बैरभाव के जाने से काम, क्रोध आदि वृत्तियों का निरोध होता है। वृत्तियों के निरोध से शरीर निरोगी बनता है। मन में शांति और आनंद का अनुभव होता है। सभी को मित्रवत् समझने की दृष्टि बढ़ती है। सही और गलत में भेद करने की ताकत आती है। ...लेकिन सवाल यह है कि क्या हिन्दू धर्म अहिंसक है? यदि हां, तो फिर पुराण, महाभारत और रामायण में खून-खराबा क्यों है?
 
पहली बात यह कि अहिंसा उन लोगों का मार्ग है जिनको मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण या बुद्धत्व को प्राप्त करना है। मोक्ष या बुद्धत्व के मार्ग पर कायर लोग नहीं चल सकते। इस मार्ग पर वही लोग चल सकते हैं जिन्होंने मरने की ठान रखी है। इसे सरल शब्द में कहें तो मोक्ष के मार्ग में मर जाना, किसी धर्म, संप्रदाय या मत के मार्ग में नहीं। शास्त्रों में कहा गया है कि धर्मपथ अग्निपथ है। योग या ध्यान में एक ऐसी अवस्था आती है जबकि लगाता है कि अब मर जाएंगे। बस छोड़ दो... जिसने छोड़ा वह फिर कम से कम इस जन्म में तो पुन: उस अवस्था तक नहीं पहुंच पाता है। ...तो यह मार्ग मोक्ष का है, सांसारिक जीवन का नहीं।
 
दूसरी बात, क्या आपको पता है कि हिन्दुओं की इस अहिंसा और सहिष्णुता के कारण ही आज देश में भांति-भांति के लोग हो गए हैं जिनमें से अधिकतर अपने ही देश के इतिहास से अनभिज्ञ हैं। वे वही जानते हैं, जो गुलामी के काल में लिखा गया। यदि हिन्दू अहिंसक नहीं होता तो इस देश में सिर्फ हिन्दू ही होता? और यदि हिन्दू हिंसक नहीं होता तो अब तक मिट गया होता? आप किस प्रश्न की ओर जाना चाहेंगे? दरअसल, अहिंसा का सबसे कड़ा संदेश दो ही धर्मों ने दिया है, वे हैं- जैन और बौद्ध। बौद्ध राष्ट्र कितने अहिंसक हैं? अहिंसा का अर्थ यदि आप हिंसा के विपरीत अर्थों में लेते हैं तो आप गलत हैं।
 
सवाल का जवाब : इतिहास गवाह है कि हिन्दुओं ने कभी अकारण हिंसा नहीं की। कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। हां, अन्याय के विरुद्ध अवश्य हिंसा या युद्ध किया है। आप जो भी ग्रंथ देखेंगे उसमें अन्याय के विरुद्ध ही लड़ने की बातें हैं, किसी संप्रदाय या मजहब के लिए नहीं। यदि किसी संत, देवी या देवता ने युद्ध किया है तो उस सोच और उस व्यक्ति के खिलाफ जिसके कारण जनता त्रस्त भी। उन्होंने अपना राज्य स्थापित करने के लिए युद्ध नहीं लड़ा। उन्होंने अपनी विचारधारा को स्थापित करने के लिए युद्ध नहीं लड़ा।
 
जब सत्य की रक्षा और न्याय को कायम करने की बात आती है और सामने कोई आततायी, शैतान या राक्षस है तब करुणा व दया का भाव दिखाना कायरता ही होगी। तब सहिष्णु बन जाना कायरता ही होगी? सभी जानते हैं कि महाभारत और रामायण का युद्ध क्यों हुआ था? लेकिन कितने हैं जिन्होंने रामायण या महाभारत पढ़ी होगी? सिर्फ युद्ध के कारण ही उन्हें जाना जाता है। लेकिन जिन्होंने ये दोनों ग्रंथ पढ़े हैं, वे जानते हैं कि इसमें युद्ध के कहीं ज्यादा धर्म है। इसी तरह पुराणों में दशावतार की कथाओं के अलावा भी बहुत कुछ है, जो हमें धर्म के मर्म को समझाता है। युद्ध का हिस्सा तो इनमें मात्र 10 प्रतिशत ही होगा। इस 10 प्रतिशत के आधार पर यह कहना कि रामायण, महाभारत और पुराणों में तो खून-खराब ही भरा है, कहां तक उचित होगा? महाभारत में गीता है, विदुर नीति है, भीष्म नीति है और तमाम तरह का वह ज्ञान है जो हमारे जीवन से संबंधित है।
 
हालांकि युद्ध एक ऐसा कर्म है जिसकी हर काल में जरूरत रही है। जिस कौम ने युद्ध करना छोड़ दिया, उसका अस्तित्व भी धीरे-धीरे दूसरी कौम ने मिटा दिया है। युद्ध में ही चेतना का विकास होता है। युद्ध के मार्ग पर चलकर ही अहिंसक हुआ जा सकता है। लादी गई या संस्कारजन्य अहिंसा कायरता है।
 
महाभारत में तो एक से एक योद्धा थे, जैसे द्रोण, कर्ण, अर्जुन, भीष्म, प्रद्युम्न, कृपाचार्य, बलराम आदि और मायावी में बर्बरिक, घटोत्कच आदि। रामायण काल में भी कई सुर और असुर योद्धा था, जैसे रावण, मेघनाद आदि और मायावी में कुंभकर्ण, मारीच आदि। प्राचीनकाल से ही युद्ध और शांति चली आ रही है। 
 
प्राचीनकाल में भी युद्ध एक मजबूरी थी और आज भी, लेकिन कोई भी धर्मयुद्ध का समर्थन नहीं करता। हिन्दुओं के जितने भी शास्त्र हैं, उनमें युद्ध का वर्णन तो मिलता है लेकिन वह आटे में नमक के समान ही है बाकी तो विज्ञान, धर्म, दर्शन और अध्यात्म की ही बातें भरी पड़ी हैं।
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