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गणतंत्र में ‘गण’ कहां गायब हो गया?

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
अंग्रेजों से स्वतंत्रता और देश के विभाजन के पश्चात राजनीति में सक्रिय चुनिंदा लोगों एवं रियासतों के प्रमुखों ने संविधान सभा की विस्तृत चर्चाओं के संविधान बनाकर देश को ‘गणतंत्र’ के रूप में घोषित कर दिया।

लेकिन क्या ‘गणतंत्र’ के ‘गण’ अर्थात् भारतीय जनता से पूछा गया कि आपको क्या स्वीकार है?  तात्कालीन समय में सम्पूर्ण विश्व की परिस्थितियों और वहां के नियम कायदों का अध्ययन कर सभी को सम्मिलित करते हुए भारत वर्ष को संचालित करने के नियम और नीतियां प्रभावी की गई।

देश के संविधान में अब तक लगभग 126 संशोधन हो चुके हैं, और आमूलचूल परिवर्तन एवं नियम सत्तासीन सरकारों की नीतियों के आधार पर समय-समय पर जोड़े-हटाए जाते रहे हैं, लेकिन आम जनजीवन हमेशा पिसता ही क्यों रह गया?

इसी क्रम में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आपातकाल के दौर में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा- समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं अखंडता शब्द जोड़ दिए।

क्या कभी भारतीय जनमानस से पूछा गया कि इन शब्दों को जोड़ने का औचित्य है या नहीं? आपातकाल की त्रासदी और  सांसदों की मौन स्वीकृति से कितना आसानी से सबकुछ बदल दिया गया।

सांसदों को उनके संसदीय क्षेत्र की जनता ने क्या इसलिए चुना था कि आप सभी हमारे प्रति नहीं बल्कि अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा रखिए?

अखण्डता शब्द का औचित्य बनता है ,किन्तु ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द क्यों और किस विवशता में जोड़े गए?

जब देश का विभाजन ही धर्म के आधार पर हुआ और संविधान में मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत  अल्पसंख्यक अधिकारों एवं धार्मिक स्वतंत्रता को सम्मिलित किया गया। संविधान में कहीं भी ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द कहीं भी स्पष्ट तौर पर उल्लेखित नहीं किया गया, ऐसे में प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ जोड़कर क्या दर्शाया गया?

ऐसे ही जब संविधान की मूलभावना में गांधीवादी समाजवाद जो लोककल्याणकारी है के तत्व  विद्यमान हैं तो ऐसे में पृथक से  ‘समाजवादी’ शब्द को जोड़ने की क्या विवशता थी? क्या यह सब हमारे संविधान वेत्ताओं की नजरों में नहीं थे?

इन दोनों शब्दों ने देश को पीछे धकेलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उस हिन्दुस्तान के स्वरूप पर कुठाराघात किया है जो भारतभूमि के अस्तित्व की बुनियाद थी।

अगर प्रस्तावना में ऐसे किसी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती तो देश की तात्कालीन सरकार  में विधि मंत्री रहते हुए डॉ. अम्बेडकर इस पर अपने विचार न व्यक्त करते? या कि प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, सरदार पटेल इत्यादि नेताओं को इसकी आवश्यकता न महसूस होती?

कभी किसी ने सोचा कि भारत की चेतना का मूल स्वर क्या है? जबकि अपने-अपने हिसाब से सबने हस्तक्षेप किए।

देश के गणतंत्र को आवश्यकता थी  और अब भी है कि संविधान में ‘राईट टू रि-कॉल’ अर्थात् चुने हुए जनप्रतिनिधियों को जवाबदेही तय न करने पर इस्तीफा देकर वापस बुलाने के अधिकार है। लेकिन देश की सत्ता में विराजमान मूर्धन्यों ने नहीं किया।

इसका कारण साफ और स्पष्ट है, वे नहीं चाहते कि देश के गणतंत्र में गण का शासन हो, क्योंकि इससे उनकी निरंकुश शासन करने की शैली नष्ट हो जाएगी। दावे में कहे जाने वाले ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ का तमगा साकार हो जाएगा और सचमुच के गणतंत्र की स्थापना संभव हो सकेगी।

आखिर ऐसा क्यों होता कि देश की जनता का मतदान करने के बाद मूल्य अगले चुनाव तक शून्य हो जाता है?
जनप्रतिनिधि बनते ही आम से खास बनने का सफर इतना बड़ा प्रोटोकॉल क्यों हो जाता है कि जनता को अपने जनप्रतिनिधियों की चौखटों तक पहुंचते हुए उनकी चप्पलें घिस जाती हैं?

कहां मर जाती है लोकतंत्र के मंदिर की आत्मा जब देश की जनता मूलभूत सुविधाओं की मोहताज रोती- बिलखती, चीत्कार करती हुई संत्रास झेलती है।

हर साल गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस की झांकियों और प्रधानमंत्री के लालकिले से भाषण में अंतिम पायदान का वह ‘जन’ जिसके लिए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अन्त्योदय अर्थात् अंतिम पायदान के व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का दृढ़ संकल्प दिया था। वह मूलस्वर देश के जनप्रतिनिधियों की जुबां में क्यों नहीं आ पाता?

वह पीड़ा और कराह जो महात्मा गांधी के गांवों में बसती है व शहरों की अट्टालिकाओं के बाहर फुटपाथ में सोती मिल जाती है, उसकी वेदना राजनैतिक जमात के चमचमाते चेहरों में कहां गुम हो जाती है?

लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद के सदनों एवं राज्यों की विधानसभाओं में पहुंचते ही आखिर ऐसा कौन सा जादू होता है कि हमारे माननीय धनकुबेर हो जाते हैं? वहीं इस देश की ‘जनता’ जिनके कल्याण के लिए ही उन्हें चुना गया है के चेहरे केवल उम्मीद लगाए हुए अपने फटेहाल पर जीने के लिए मजबूर होते हैं।

सफेदपोश नेताओं और राजनैतिक दलों के लग्जरी परिवेश तथा प्रशासनिक जुगलबंदी में आम जनमानस की अनुभूति कहां खो जाती है?

स्वतंत्रता के समय से ही जनहित के लिए नीतियां बनती आ रही हैं लेकिन जमीनी परिणाम आज भी यथावत क्यों हैं? कौन पूछेगा प्रश्न और कब गणतंत्र के ‘गण’ के चेहरे खिलेंगे?

संसद और विधानसभा चल रही हैं राजनैतिक दलों की सत्ता क्रमशः विभिन्न अंतरालों में आती-जाती रहती हैं तथा उनके नुमाइंदों के बारी-बारी से राजमहल तन जाते हैं।

किन्तु उस जनता की हालत जस की तस क्यों बनी रहती है? देश का तंत्र कब असल में ‘जन’ के लिए कार्य करेगा? समय की गति बढ़ रही है, तरीके बदल रहे हैं। चुनौतियों के प्रकारों में बदलाव आ रहे हैं तथा देश में समस्याएं द्रुत गति से बढ़ रही हैं जबकि उन पर नियंत्रण और समाधान की रफ्तार बस किसी तरह रेंग रही है।

स्वतंत्रता के उन नारों का क्या अर्थ? जब वे राजनीति की कालकोठरी में जाकर कैद हो चुके हैं, जिसमें बसती थी भारतवासियों की अन्तरात्मा और मुखरित होती थी उनकी आवाज?

आखिर क्यों और कैसे ‘गणतंत्र’ में से ‘तंत्र’ तो सर चढ़कर बोल रहा लेकिन इससे ‘गण’ को योजनाबद्ध तरीके से कहां गायब कर दिया गया है?

संविधान में संशोधन होंगे, नीतियां बनेंगी, उनका प्रचार-प्रसार होगा तथा कार्यान्वयन के लिए देश की मशीनरी में ईंधन डाल दिया जाएगा लेकिन जब परिणाम ही नहीं दिखेगा तब कैसे कहा जा सकता है कि लोकतंत्र में ‘लोक’ प्रगति कर रहा है?

इस देश के जनमानस को किस चीज की जरूरत है तथा वह क्या चाहता है, इसे उस जनमानस से क्यों नहीं पूछा जा रहा है? राजनीति के व्यवसाय और देश में बाजारीकरण के शोर में लगातार देश की वेदना का स्वर दबता चला जा रहा है।

पता नहीं भारतमाता के शरीर में लगे हुए घावों का उपचार कब होगा? यह कब मुमकिन होगा कि देश में चहुंओर खुशहाली एवं देश के प्राण ‘रामराज्य’ की परिकल्पना मूर्त रूप लेगी, जिससे भारतभूमि का वैभव पुनश्च लौटेगा!!

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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