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जगन्नाथ रथयात्रा की परंपरा कैसे हुई प्रारंभ, जानिए 4 कथाएं

अनिरुद्ध जोशी
प्रभु जनन्नाथ स्वामी की रथ यात्रा कब से और किस कारण से प्रारंभ हुई इस संबंध में हमें कई तरह की कथाएं मिलती है। उन्हीं कथाओं में से चार कथा आप यहां संक्षिप्त में पढ़ें। इसके अलावा नीचे दी गई लिंक पर क्लि करके मूर्ति स्थापना और मंदिर संबंधि अन्य कथाएं भी पढ़ें। आओ जानते हैं कि जगन्नाथ रथ यात्रा की प्रामाणिक कथा।
 
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1.पहली कथा : जब राजा इंद्रद्युम ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां बनवाई तो रानी गुंडिचा ने मूर्तियां बनाते हुए मूर्तिकार विश्वकर्मा और मूर्तियों को देख लिया जिसके चलते मूर्तियां अधूरी ही रह गई तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। इसके बाद राजा ने इन्हीं अधूरी मूर्तियों को मंदिर में स्थापित कर दिया। उस वक्त भी आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार अपनी जन्मभूमि मथुरा जरूर आएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है।
 

 
2.दूसरी कथा : एक दूसरी कथा भी जिसके अनुसार सुभद्रा के द्वारिका दर्शन की इच्छा पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथों में बैठकर यात्रा की थी। सुभद्रा की नगर यात्रा की स्मृति में ही यह रथयात्रा पुरी में हर साल होती है। इस रथयात्रा के बारे में स्‍कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है।
 
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3.तीसरी कथा : एक बार राधा रानी कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण से मिलने पहुंची और वहां उन्होंने श्रीकृष्ण से वृंदावन आने का निवेदन किया। राधारानी के निेवेदन को स्वीकार करके एक दिन श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ वृंदावन के द्वार पहुंचे तो राधारानी, गोपियों और वृंदावनवासियों को इतनी खुशी हुई कि उन्होंने तीनों को रथ पर विराजमान करके उसके घोड़ों को हटाकर उस रथ को खुद की अपने हाथों से खींचकर नगर का भ्रमण कराया। इसके अलावा वृंदावनवासियों ने जग के नाथ अर्थात उन्हें जगन्नाथ कहकर उनकी जय-जयकार की। तभी यह यह परंपरा वृंदावन के अलावा जगन्नाथ में भी प्रारंभ हो गई।
 
 
3.चौथी कथा : चारण परम्परा के अनुसार भगवान द्वारिकाधीशजी के साथ, बलराम और सुभद्राजी का समुद्र के किनारे अग्निदाह किया गया था। कहते हैं कि उस वक्त समुद्र के किनारे तूफान आ गया और द्वारिकाधीशजी के अधजले शव पुरी के समुद्र के तट पर बहते हुए पहुंच गए। पुरी के राजा ने तीनों शवों को अलग-अलग रथ में विराजित करवाया और पुरे नगर में लोगों ने खुद रथों को खींचकर घुमाया और अंत में जो दारु का लकड़ी शवों के साथ तैर कर आई थी उसीसे पेटी बनवा कर उन शवों को उनमें रखकर उसे भूमि में समर्पित कर दिया। इस घटना की स्मृति में ही आज भी इस परंपरा को निभाया जाता है। चारणों की पुस्तकों में इसका उल्लेख मिलता।

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