इस मौसम में तीज व्रत मनाने का अवसर तीन बार आता है। सुहागिनों का सौंधा-सा पर्व सातुड़ी तीज रक्षाबंधन पर्व के तीसरे दिन आता है। हरियाली तीज, सातुड़ी तीज व हरतालिका तीज धूमधाम से मनाई जाती है। सातुड़ी तीज को कजली तीज और बड़ी तीज भी कहते है। सातुड़ी तीज की पूजा करते है। सातुड़ी तीज की कथा, नीमड़ी माता की कथा, गणेश जी की कथा और लपसी तपसी की रोचक कहानी सुनते हैं। इस पर्व पर सत्तू के बने विशेष व्यंजनों का आदान प्रदान होता है। आइए पढ़ें सातुड़ी तीज पौराणिक व्रत कथा...
1. कथा-
कजली तीज की पौराणिक व्रत कथा के अनुसार एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। भाद्रपद महीने की कजली तीज आई। ब्राह्मणी ने तीज माता का व्रत रखा। ब्राह्मण से कहा आज मेरा तीज माता का व्रत है। कही से चने का सातु लेकर आओ। ब्राह्मण बोला, सातु कहां से लाऊं। तो ब्राह्मणी ने कहा कि चाहे चोरी करो चाहे डाका डालो। लेकिन मेरे लिए सातु लेकर आओ।
रात का समय था। ब्राह्मण घर से निकला और साहूकार की दुकान में घुस गया। उसने वहां पर चने की दाल, घी, शक्कर लेकर सवा किलो तोलकर सातु बना लिया और जाने लगा। आवाज सुनकर दुकान के नौकर जाग गए और चोर-चोर चिल्लाने लगे।
साहूकार आया और ब्राह्मण को पकड़ लिया। ब्राह्मण बोला मैं चोर नहीं हूं। मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। मेरी पत्नी का आज तीज माता का व्रत है इसलिए मैं सिर्फ यह सवा किलो का सातु बना कर ले जा रहा था। साहूकार ने उसकी तलाशी ली। उसके पास सातु के अलावा कुछ नहीं मिला।
चांद निकल आया था ब्राह्मणी इंतजार ही कर रही थी। साहूकार ने कहा कि आज से तुम्हारी पत्नी को मैं अपनी धर्म बहन मानूंगा। उसने ब्राह्मण को सातु, गहने, रुपए, मेहंदी, लच्छा और बहुत सारा धन देकर ठाठ से विदा किया। सबने मिलकर कजली माता की पूजा की। जिस तरह ब्राह्मण के दिन फिरे वैसे सबके दिन फिरे... कजली माता की कृपा सब पर हो।
2. कथा
सातुड़ी तीज, कजरी तीज, कजली तीज, बड़ी तीज के दिन जरूर पढ़ें यह पौराणिक व्रतकथा। एक साहूकार था उसके सात बेटे थे। उसका सबसे छोटा बेटा अपाहिज था। वह रोजाना एक वेश्या के पास जाता था। उसकी पत्नी बहुत पतिव्रता थी। खुद उसे कंधे पर बैठा कर वेश्या के यहां ले जाती थी। बहुत गरीब थी। जेठानियों के पास काम करके अपना गुजारा करती थी।
भाद्रपद के महीने में कजली तीज के दिन सभी ने तीज माता के व्रत और पूजा के लिए सातु बनाए। छोटी बहु गरीब थी उसकी सास ने उसके लिए भी एक सातु का छोटा पिंडा बनाया। शाम को पूजा करके जैसे ही वो सत्तू पासने लगी उसका पति बोला मुझे वेश्या के यहां छोड़ कर आ।
हर दिन की तरह उस दिन भी वह पति को कंधे पैर बैठा कर छोड़ने गई, लेकिन वो बोलना भूल गया, 'तुम जाओ।' वह बाहर ही उसका इंतजार करने लगी इतने में जोर से वर्षा आने लगी और बरसाती नदी में पानी बहने लगा। कुछ देर बाद नदी से आवाज आई... आवतारी जावतारी दोना खोल के पी, पिया प्यारी होय..., आवाज़ सुनकर उसने नदी की तरफ देखा तो दूध का दोना नदी में तैरता हुआ आता दिखाई दिया। उसने दोना उठाया और सात बार उसे पी कर दोने के चार टुकड़े किए और चारों दिशाओं में फेंक दिए।
उधर तीज माता की कृपा से वेश्या अपना सारा धन उसके पति को वापस देकर सदा के लिए वहां से चली गई। पति ने सारा धन लेकर घर आकर पत्नी को आवाज दी- दरवाज़ा खोल..., तो उसकी पत्नी ने कहा मैं दरवाज़ा नहीं खोलूंगी। तब उसने कहा कि अब मैं वापस नहीं जाऊंगा। दोनों मिलकर सातु पासेगें।
लेकिन उसकी पत्नी को विश्वास नहीं हुआ, उसने कहा मुझे वचन दो वापस वेश्या के पास नहीं जाओगे। पति ने पत्नी को वचन दिया तो उसने दरवाजा खोला और देखा उसका पति गहनों और धन माल सहित खड़ा था। उसने सारे गहने कपड़े अपनी पत्नी को दे दिए। फिर दोनों ने बैठकर सातु पासा।
सुबह जब जेठानी के यहां काम करने नहीं गई तो बच्चे बुलाने आए, काकी चलो सारा काम पड़ा है। उसने कहा अब तो मुझ पर तीज माता की पूरी कृपा है अब मैं काम करने नहीं आऊंगी। बच्चों ने जाकर मां को बताया, आज से काकी काम करने नहीं आएगी उन पर तीज माता की कृपा हुई है, वह नए-नए कपड़े गहने पहन कर बैठी हैं और काका जी भी घर पर बैठे हैं। सभी लोग बहुत खुश हुए। हे तीज माता !!! जैसे आप उस पर प्रसन्न हुई वैसे ही सब पर प्रसन्न होना, सब के दुःख दूर करना।
3. कथा-
हर व्रत कथा के साथ पढ़ी और सुनी जाती है यह एक पौराणिक लोककथा- इस कथा के अनुसार एक लपसी था, एक तपसी था। तपसी हमेशा भगवान की तपस्या में लीन रहता था। लपसी रोजाना सवा सेर की लापसी बनाकर भगवान का भोग लगा कर जीम लेता था।
एक दिन दोनों लड़ने लगे। तपसी बोला मैं रोज भगवान की तपस्या करता हूं इसलिए मै बड़ा हूं। लपसी बोला मैं रोज भगवान को सवा सेर लापसी का भोग लगाता हूं इसलिए मैं बड़ा। नारद जी वहां से गुजर रहे थे। दोनों को लड़ता देखकर उनसे पूछा कि तुम क्यों लड़ रहे हो? तपसी ने खुद के बड़ा होने का कारण बताया और लपसी ने अपना कारण बताया।
नारद जी बोले तुम्हारा फैसला मैं कर दूंगा। दूसरे दिन लपसी और तपसी नहा कर अपनी रोज की भक्ति करने आए तो नारद जी ने छुप कर सवा करोड़ की एक-एक अंगूठी उन दोनों के आगे रख दी। तपसी की नजर जब अंगूठी पर पड़ी तो उसने चुपचाप अंगूठी उठा कर अपने नीचे दबा ली। लपसी की नजर अंगूठी पर पड़ी लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया भगवान को भोग लगाकर लापसी खाने लगा।
नारद जी सामने आए तो दोनों ने पूछा कि कौन बड़ा? तो नारद जी ने तपसी से खड़ा होने को कहा। वो खड़ा हुआ तो उसके नीचे दबी अंगूठी दिखाई पड़ी। नारद जी ने तपसी से कहा, तपस्या करने के बाद भी तुम्हारी चोरी करने की आदत नहीं गई। इसलिए लपसी बड़ा है। और तुम्हें तुम्हारी तपस्या का कोई फल भी नहीं मिलेगा। तपसी शर्मिंदा होकर माफी मांगने लगा।
उसने नारद जी से पूछा मुझे मेरी तपस्या का फल कैसे मिलेगा? नारद जी ने कहा यदि कोई गाय और कुत्ते की रोटी नहीं बनाएगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई ब्राह्मण को भोजन करवा कर दक्षिणा नहीं देगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई साड़ी के साथ ब्लाउज नहीं देगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई दीये से दीया जलाएगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई सारी कहानी सुने लेकिन तुम्हारी कहानी नहीं सुने तो फल तुझे मिलेगा। उसी दिन से हर व्रत कथा कहानी के साथ लपसी तपसी की कहानी भी सुनी और कही जाती है।