श्रीनगर। किसी भी गांव या कस्बे में जाने पर यह हैरानगी का सबब ही हो सकता है कि वहां दिखाई देने वालों में अधिकतर बुजुर्ग तथा महिलाएं ही होंगी। युवा नहीं दिखेंगे। कारण स्पष्ट है कि आतंकवाद युवाओं पर भारी पड़ रहा है। कहीं युवा आतंकवाद की राह पर चल निकले हैं तो कहीं युवा पढ़ाई पूरी करने देश के अन्य भागों में पलायन कर चुके हैं और एक अच्छी-खासी युवकों की संख्या विदेशों में नौकरी में जुटी है।
यह कथा या दृश्य किसी एक गांव का नहीं है बल्कि आतंकवादग्रस्त प्रत्येक गांव या कस्बा ऐसी कहानी सुनाता है और दृश्य पेश करता है। यह सब आतंकवाद के कारण हुआ है। आतंकवाद के शुरुआती दौर में कस्बों तथा गांवों से युवाओं के लापता होने की संख्या अचानक बढ़ गई थी। लापता होने वाले युवक आतंकवाद का प्रशिक्षण प्राप्त करने सीमापार पहुंच चुके थे।
आतंकवाद अचानक बढ़ गया तो अभिभावकों ने जवानी की दहलीज पर कदम रखने वाले अपने युवा बेटों को आतंकवाद की आंच से बचाने की खातिर उन्हें घर से दूर देश के अन्य भागों में भिजवा दिया ताकि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें जबकि बचे-खुचे विदेशों में नौकरी की तलाश में निकल पड़े।
आतंकवाद के कारण जो सिलसिले जम्मू-कश्मीर के आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों में आरंभ हुए थे, वे अनवरत रूप से जारी हैं। नतीजतन इन क्षेत्रों में युवाओं को देखा जाना आज दुर्लभ माना जाता है। ऐसे गांवों या कस्बों में बुजुर्गों तथा महिलाओं के अतिरिक्त सिर्फ बच्चों को ही देखा जा सकता है।
कितने युवा अपने घरों से लापता हैं या फिर कितने घरों से बाहर हैं, कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है। हालांकि घरबार छोड़ पढ़ाई करने तथा विदेशों में नौकरी करने के लिए जाने वालों की तो आसानी से गिनती की जा सकती है, मगर सीमा को लांघ पाकिस्तान जाने वालों की गिनती आसान नहीं है। सीमापार जाने वालों की गिनती इन युवकों की मुठभेड़ों में होने वाली मौतों के उपरांत ही हो पाती है।
असल में जब बड़ी संख्या में युवक पाकिस्तानी एजेंटों के सब्जबागों में बहकर सीमापार चले गए तो ही उनके अभिभावकों की नींद खुली थी। अपने अन्य बच्चों के भविष्य की खातिर फिर उन्होंने हाथ-पांव मारने आरंभ कर दिए। बड़े बेटों को तो कहीं भिजवा दिया गया लेकिन छोटे बच्चों के लिए कुछ नहीं हो पाया तो उन्हें अपने साथ रखने की मजबूरी सहन करनी पड़ी। हालांकि अपने बच्चों के भविष्य की खातिर तो सैकड़ों परिवारों ने पलायन का रास्ता भी अपनाया है।
वैसे जिन गांवों तथा कस्बों में आतंकवाद ने ताजा-ताजा पांव फैलाए हैं, वहां के लोगों को संभलने में देर लगी है। उन्हें तभी चौंक जाना पड़ा, जब उनके बच्चों को सेना ने आतंकवादियों के कब्जे से छुड़वाया जिन्हें जबरदस्ती सीमापार आतंकवाद के प्रशिक्षण के लिए ले जाया जा रहा था। जम्मू तथा कश्मीर मंडलों के कई गांवों से ऐसे करीब 490 बच्चों को आतंकवादियों तथा पाक एजेंटों के कब्जे से पिछले 5 साल के दौरान रिहा करवाया गया है जिन्हें जवान होने से पूर्व ही आतंकवादी बनाने की मुहिम चलाई गई थी।
नतीजतन आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों की यह बदकिस्मती ही कही जा सकती है कि अधिकतर में आज युवा नहीं मिलते। विशेषकर संपन्न परिवारों के तो सभी बच्चे अपने गांव को छोड़ सुरक्षित शहरों में शरण लिए हुए हैं, तो अन्य परिवारों के 14 साल के ऊपर बेटे कहीं ओर हैं। हालांकि इतना अवश्य है कि 14 वर्ष से कम की आयु के बेटों की चिंता इन परिवारों को अवश्य सताती रहती है।
यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि आतंकवादग्रस्त क्षेत्रों की कि वहां के अधिकतर युवक मौत के घाट उतर चुके हैं। जो आतंकवादी बन गए उन्हें सुरक्षाबलों ने मार गिराया और जिन्होंने आतंकवाद का विरोध किया, उन्हें आतंकवादियों ने मार डाला अर्थात दोनों ओर से जम्मू-कश्मीर के युवक ही आतंकवाद की चक्की में पीसे गए हैं।