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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कैसे हुई ओशो की मौत, जहर से या...

कैसे हुई ओशो की मौत, जहर से या...
, गुरुवार, 19 जनवरी 2017 (16:10 IST)
कैसे हुई ओशो की मृत्यु? यह सवाल आज भी महत्वपूर्ण है। ओशो रजनीश को अमेरिका की सरकार ने जहर दिया था या कि उनके ही संन्यासियों ने विरासत के लिये या किसी अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत मार दिया था? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है, लेकिन हम आपको बताएंगे जलता हुआ सच...

ओशो जैसी चेतना का जन्म सैकड़ों वर्षों के बाद होता है। बुद्ध के बाद ओशो ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने चेतना के गौरीशंकर को छू लिया है। पूरे ढाई हजार वर्षों बाद कोई ऐसा व्यक्ति हुआ, जिसे बुद्ध के समकक्ष रखा जा सकता है, लेकिन फिर भी ओशो में बुद्ध से कुछ अलग ही था। ओशो में ओशोपन था, जो उन्हें दुनिया के तमाम बुद्ध पुरुषों से अलग करता है। मनुष्य जाति के चित्त में यह बात न जाने कैसे बैठ गई कि जब भी कोई बुद्ध चेतना आए तो सो जाना या फिर उसे पत्थर मारकर जंगल में ही रहने के लिए मजबूर कर देना। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के साथ भी यही हुआ। भगवान महावीर को भी पत्थर मारे जाते थे। बुद्ध के सामने पागल हाथी छोड़े गए। ईसा मसीह को सूली पर लटका दिया गया।
 
सुकरात को जहर क्यों दिया गया? क्योंकि वह विश्वास की जगह संदेह सिखाता था। स्वाभाविक है कि कोई आपकी नींद तोड़ेगा तो आपको गुस्सा आएगा ही। ओशो भी सोए हुए मनुष्य की नींद तोड़ने ही आए थे, लेकिन इस बार भी हम चूक गए। थेलीसियम जहर देकर समयपूर्व ही उनके शरीर को मार दिया गया।
 
क्यों मार दिया ओशो को? क्योंकि ओशो ने अमेरिका में जाकर ईसाइयत के पाखंड को उजागर किया, धर्म और साम्यवाद के शोषण को उजागर किया। क्योंकि उन्होंने आपको झकझोरा। आपकी राजनीति के प्रति, आपके धर्म के प्रति और आपके तमाम तरह के पाखंड के प्रति आपको जगाने का प्रयास किया। क्योंकि ओशो कहते हैं कि पंडित, पुरोहित, मुल्ला, फादर और राजनेता यह सभी मानव और मानवता के शोषक और हत्यारे हैं। मानवता के इन हत्यारों के प्रति जल्द ही जाग्रत होना जरूरी है, अन्यथा ये मूढ़ सामूहिक आत्महत्या के लिए मजबूर कर देंगे। ओशो कहते हैं कि मनुष्य को धर्म और राजनीति ने मार डाला है आज हमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई और अन्य कोई नजर आते हैं, लेकिन मनुष्य नहीं। कुछ लोगों को हिम्मत करना होगी अपने 'आदमी' होने की वरना मानवता महाविनाश के दलदल में धंसती जाएगी। घोषणा कर दें की मैं सिर्फ 'आदमी' हूं...फकत आदमी।
 
ओशो की विश्वस्त और विवादास्पद शिष्या रह चुकीं आनंद शीला (शीला पटेल) ने अपनी किताब 'डोंट किल हिम' में ओशो की संदिग्ध मृत्यु को लेकर कई सवाल उठाए थे। (उन्हें 1984 में रजनीशपुरम के बायोटेरर अटैक का दोषी ठहराया गया था और अमेरिका की एक संघीय जेल में उन्होंने 20 साल की सजा काटी थी)। हालांकि शीला का खुद का व्यक्तित्व की संदिग्ध रहा है। अमेरिका की सॉलिसिटर और महान लेखिका सू एपलटन के एक किताब लिखी थी जिका नाम है' दिया अमृत और पाया जहर'...तो क्या ओशो को जहर देकर मार दिया था। मार था तो किसने...जानिये इस सच को...
 
ओशो की मौत का पहला रहस्य....
 

ओशो को मार दिया था उनके ही अनुयायियों ने?
पूणे आश्रम सहित विश्वभर में ओशो के कई आश्रम के अलावा 99 रोड्स रॉयल्स कारें और इतनी ही अन्य कारें भी थी। ओरेगान अमेरिका के ओशो आश्रम से बेदखल होने के बाद ओशो ने अपने ठिकाना पुना को बनाया था जहां एक नए आश्रम और वैश्विक आंदोलन की नींव रखी गई थी। धीरे धीरे यह आश्रम विश्व के सबसे धनाड्य लोगों का आश्रम ही नहीं बल्कि ध्यान करने वाले लोगों का आश्रम भी बन गया था। ओशो आश्रम की पुणे में जो प्रॉपर्टी है, उन्हीं की कीमत 1,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है। भारत के बाहर जो प्रॉपर्टी है वह इससे कई गुना जाता है।
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विरासत : माना जाता है कि ओशो ने अपने अंतिम वक्त तक अपनी विरासत को किसी ने नाम नहीं लिखा था लेकिन उन्होंने 21 लोगों का एक इनर सर्कल बनाया था जिन्हें यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वे ध्यान के इस आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे। कथित तौर इन 21 लोगों में माइकल ओ'बायर्न (उर्फ स्वामी जयेश) और अमृतो एक ऐसा नाम है जिसने ओशो के मरने के बाद ओशो की संपूर्ण वसीयत पर कब्जा कर लिया। ऐसा मानना है ओशो के दूसरे गुट का। ऐसे में सवाल उठाये जाते हैं कि क्या ओशो के इनर सर्कल के इन सदस्यों में से कुछ ने किसी साजिश के तहत ओशो को जहर देकर मार दिया या कि कुछ और ही कारण था। उनकी मृत्यु के बाद ओशो संन्यासियों द्वारा आयोजित एक संवादताता सम्मेलन में बताया गया था कि ओशो ने उनके उत्तराधिकारी का कोई जिक्र नहीं किया है। 
 
ओशो की मृत्यु के 23 वर्ष बाद जब ओशो की वसीयत को लेकर विवाद उठा तो कथित तौर पर ओशो द्वारा लिखी गई एक 'वसीयत' सामने आई।  हालांकि ओशो के समर्थकों के एक वर्ग का मानना है कि ये वसीयत पूरी तरह से जाली दस्तावेज है क्योंकि ओशो की मृत्यु के बाद उनकी वसीयत का कोई उल्लेख नहीं हुआ था। ये वसीयत 16 जून 1989 को स्टांप पेपर पर तैयार की गई थी जिसमें ओशो का मूल नाम चंद्रमोहन जैन और उनके हस्ताक्षर हैं। 'वसीयत' अनुसार विदेशी हाथों में चले जाएंगे ओशो के प्रवचन और पुणे की प्राइम लोकेशन पर मौजूद उनका आश्रम।
 
जिस कागजात को ओशो की आखिरी वसीयत कहा जा रहा है और इसने ओशो के साम्राज्य को लेकर चल रही मालिकाना हक की लड़ाई को नया मोड़ दे दिया है। ओशो के साम्राज्य में उनका पुणे की प्राइम लोकेशन पर 10 एकड़ में फैला विशाल आश्रम और उनके प्रवचनों के प्रकाशन से हो रही करोड़ों की आय शामिल है। ये वसीयत ओशो की संपत्ति और प्रकाशन के सारे अधिकार 'नियो संन्यास इंटरनेशनल' को ट्रांसफर करती है। ये संस्था वर्तमान में 'ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन' के नाम से भी जानी जाती है जो कि स्विस बेस्ड ट्रस्ट है। इसे ओशो के पुराने समर्थक माइकल ओ ब्रायन संचालित करते हैं। ओशो की मृत्यु के बाद ओशो आश्रम को यही ट्रस्ट चलाता है। ये वसीयत ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन ने ही स्पेन में ट्रेडमार्क के विवाद के चलते पेश की जबकि ओशो फ्रेंड्स फाउंडेशन नाम के एक समूह ने पुणे में इसे व्यर्थ घोषित कर निरस्त करने की मांग को लेकर जनहित याचिका दायर की हुई है।
 
16 जून 1989 को ओशो की हस्ता‍क्षरित वसीयत में सभी संपत्ति, उनके नाम और प्रकाशन का स्वामित्व और अधिकार एक स्विस धर्मार्थ ट्रस्ट के लिए नियो संन्यासी इंटरनेशनल फाउंडेशन के पास सुरक्षित है। 10 रुपए के स्टाम्प पर हस्ताक्षरित इस वसीयत के मालिक माइकल ओ'बायर्न (उर्फ स्वामी जयेश) हैं, जो वर्तमान में ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। गवाहों के रूप में जॉन एंड्रयूज (उर्फ स्वामी अमृतो) फिलिप टोयक्स (उर्फ स्वामी प्रेम निरेन) हैं।
 
ओशो की वसीयत कहे जा रहे कागजात के एक टुकड़े में में लिखा है, 'मैं, ओशो, जन्म का नाम चंद्रमोहन जैन, आमतौर पर भगवान श्रीरजनीश के नाम से जाना जाता हूं और अपनी पूरी संपत्ति व सारे प्रकाशन अधिकार नियो संन्यास इंटरनेशनल फाउंडेशन को दान करता हूं।' हालांकि इस कागज पर भरोसा किया जाना मुश्किल है।
 
ओशो मित्र फाउंडेशन के योगेश ठक्कर उर्फ स्वामी प्रेमगीत और किशोर रावल उर्फ स्वामी प्रेम अनाड़ी ने इस वसीयतनामे को एक याचिका दायर कर चुनौती दी है। उन्होंने इसमें माइकल ओ'बायर्न, जॉन एंड्रयूज और फिलिप द्वारा प्रस्तुत इन दस्तावेजों को अमान्य घोषित करने की मांग की। उन्होंने ओशो की अचल और चल संपत्तियों और ओशो की बौद्धिक संपदा को सुरक्षित रखने के लिए अदालत से स्थायी रूप से एक प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति की मांग की है। Firstpost.com से बात करते हुए ठक्कर ने कहा कि यदि इस वसीयत की प्रामाणिकता को चुनौती नहीं दिए जाने की अनुमति दी जाती है तो इसका मतलब यह होगा कि ओशो से संबंधित बौद्धिक अधिकार को भारत से बाहर ले जाना। ठक्कर और उनके सहयोगी याचिकाकर्ताओं के पहले ही दो केस मुंबई हाई कोर्ट में लंबित हैं जिसमें नियो संन्यासी फाउंडेशन के प्रशासक, एका रजनी‍श फाउंडेशन और ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन के खिलाफ 300 करोड़ रुपए के हेरफेर के मामले दर्ज हैं।
 
योगेश ठक्कर अपने शपथ-पत्र में दावा करते हैं कि 1989 में बनी ओशो की वसीयत के बारे में आश्रम में किसी को भी पता नहीं था। इसे पहली बार 2013 में अमेरिका की एक अदालत में एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान पेश किया गया। ठक्कर का दावा है कि यह वसीयत ओशो की मृत्यु के बाद तैयार की गई। यह वसीयत उसी समय सामने आई, जब इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स का सवाल उठाया गया। इस वसीयत से ओशो की सभी चीजें ओशो इटंरनेशनल फाउंडेशन के ट्रस्टी जयेश के पास चली गईं।
 
योगेश ठक्कर बाताते हैं कि ओशो आश्रम की पुणे में जो प्रॉपर्टी है, उन्हीं की कीमत 1,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है। भारत के बाहर ओशो की जो संपत्तियां हैं, उनके बारे में मुझे जानकारी नहीं है। हर साल इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स से ट्रस्ट को 100 करोड़ रुपये की कमाई होती है। जब मैंने उनसे वसीयत के बारे में पूछा तो उन्होंने मेरा पुणे आश्रम में प्रवेश बंद करवा दिया। उन्होंने यूरोप में 20 अन्य कंपनियां बनाई हैं और इसमें चुपचाप अब तक कम से कम 800 करोड़ रुपये ट्रांसफर कर दिए हैं।
 
ये है ओशो की विरासत : याचिकाकर्ता के अनुसार ओशो अपने पीछे हिंदी और अंग्रेजी में दिए 9000 घंटे के प्रवचन छोड़ कर गए है जो आडियो और वीडियों के रूप में संग्रहित है, जिसमें 1870 घंटे के वीडियो प्रवचन है। हिंदी और अंग्रेजी की मिलाकर 650 बुक है जिनका दुनिया की 65 भाषाओं में अनुवा‍द हो चुका है। ओशो द्वारा बनाई गई 800 पेंटिंग है। उनकी पर्सनल लाइब्रेरी में 80 हजार किताबें है जो पुणे के कोरेंगांव कम्युन में सुरक्षित रखी है। इसके अलावा पुणे स्थित ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन की कोरेगांव पार्क इलाके की करीब एक हजार करोड़ की 35 एकड़ जमीन।
 
डॉक्टरों का बयान : ओशो की मृत्यु के बाद एक डॉक्टर को सत्यापन के लिये बुलाया गया था। इनका नाम  डॉ. गोकानी है। उन्होंने अपने बनया में कहा कि डॉ. गोकानी अपने शपथपत्र में लिखते हैं कि उन्हें ओशो के कमरे में शाम 5 बजे जाने की अनुमति मिली। कमरे में ओशो का शरीर था और अमृतो और जयेश (माइकल ओ ब्रायन) वहां मौजूद थे। डॉ. गोकुल गोकानी कहते हैं, 'उन्होंने ओशो को अंतिम सांस लेते नहीं देखा। इसलिए उन्होंने जयेश और अमृतो से उनकी मृत्यु की वजह पूछी। उन्होंने गोकानी से सर्टिफिकेट में दिल से संबंधित बीमारी के बारे में लिखने को कहा ताकि ओशो के शव का पोस्टमार्टम न हो सके।' अगर गोकानी का विश्वास किया जाए तो ओशो की मौत की असली वजह अब तक नामालूम है।...अगर ओशो मृत्यु से पहले उल्टियां कर रहे थे, तो इसकी वजह क्या थी। डॉ. गोकानी ने इसके बारे में क्यों नहीं पूछा।
 
शक की सुई अमृतो और जयेश पर : अमृतो और जयेश अमृतो और जयेश ने कहा कि ओशो अपने '21 सदस्यों' के इनर सर्किल के बीच अपना अंतिम संस्कार चाहता था। वो चाहते थे कि तुरंत उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाए। दोनों ने किसी को भी उनके नजदीक से दर्शन करने की इजाजत नहीं दी। क्यों? क्या उनके शरीर में किसी प्रकार की चोट थी। उनकी हत्या की गई थी? इनर सर्किल के सदस्यों को ओशो की मृत्यु के बारे में बात करने से कड़ाई से मना कर दिया गया। ओशो की मृत्यु की छोटी सी सार्वजनिक सूचना देने के 1 घंटे के भीतर उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनके अंतिम संस्कार में इतनी हड़बड़ी को लेकर आज भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
 
ओशो की सेक्रेट्री नीलम से कहा गया कि वे उनकी मां को इस मृत्यु की सूचना दे दें। ओशो की मां आश्रम में ही थीं। ओशो अगर मृत्यु की ओर बढ़ रहे थे, तो उनकी मां को दोपहर एक बजे ही यह सूचना क्यों नहीं दी गई?
 

ओशो के ही अनुयायी ओशो के विचार नष्ट करना चाहते हैं?
आरोप है कि ओशो रजनीश के अमेरिका स्थित ऑरेगान कम्यून को षड़यंत्र के तहत नष्ट कर देने के बाद पुणे के कम्यून को नष्ट करने की साजिश चल रही है। जिन लोगों ने ओशो रजनीश के जाने के बाद जबरन पुणे के कोरेगांव कम्यून पर कब्जा कर लिया था वे ही लोग अब यहां की सारी संपत्तियों को प्राइवेट कंपनियों के हाथों सौंपकर विदेश भागने की तैयारी कर रहे हैं।
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जिन लोगों का पुणे के कम्यून पर अधिकार है जरा उनके नाम भी जान लें- कनाडा मूल के स्वामी जयेश (माइकल ओबिरीन), स्वामी योगेन्द्र (डार्सी ओबिरिन) एवं इंग्लैण्ड से आए स्वामी अमृतो (जार्ज मेरेडिथ)। आश्रम के लोग इनको आश्रम का तानाशाह मानते हैं। इन्होंने भारतीयों को लगभग हाशिये पर धकेल दिया है। इनकी नितियों और कार्यों के चलते ही आश्रम में दो फाड़ हो गए। इन तीनों न्यासियों के मनमानी के तौर-तरीके और ओशो के विचारों और संपत्तियों के साथ हेरा-फेरी और छेड़खानी करने के आरोप लगते रहे हैं।
 
इन्होंने ही प्लानिंग के तहत सबसे पहले ओशो कम्यून की सभी जगह से ओशों के चित्र हटा दिए। फिर उसकी प्रतिक्रिया जानने के बाद कुछ दिनों बाद ओशो कम्यून आश्रम को रिसोर्ट में बदल दिया। उसे उन्होंने नाम दिया 'ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिसोर्ट'। आश्रम जाने पर अब नहीं लगता है कि वह ओशो का आश्रम है।
 
रजनीश आश्रम के कुछ प्रमुख कर्ता-धर्ता आश्रम से संबद्ध सारी बातों में बदलाव कर रहे हैं, लेकिन भारतीय संन्यासी इस बदलाव के पक्ष में नहीं है। आश्रम के पूर्व प्रवक्ता तथा आचार्य रजनीश के निकटतम शिष्यों में से एक चैतन्य कीर्ति इन परिवर्तनों का विरोध करते रहे हैं। विरोध के बावजूद कुछ चुनिंदा लोगों की मनमानी जारी है। मनमानी करने वालों में मुख्य रूप से विदेश से आए शिष्य हैं।
 
सवाल उठता है कि क्या अब इन विदेशियों में अपने क्रिश्चियन भाव जाग्रत हो गए हैं या कि किसी अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत ऐसा किया जा रहा है? जैसे कि पूर्व में पहले भी अमेरिकी और कट्टर ईसाई राष्ट्र करते रहे हैं।
 
इन न्यासियों द्वारा 'रजनीश आश्रम' के कारोबार एवं चंदे की राशि में भी हेराफेरी करने की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। इन न्यासियों पर आरोप है कि उन्होंने रजनीश आश्रम की राशि अपने निजी खातों में जमा कराई है।
 
स्वामी जयेश, स्वामी योगेन्द्र तथा स्वामी अमृतो ने ओशो आश्रम के तहत ओशो मल्टीमीडिया एण्ड रिसोर्टस् प्रा. लिमिटेड नामक निजी कंपनी का गठन कर घोटाला किया है। ओशो के नाम से निजी कंपनी का गठन व संचालन करने के कारण मूल 'ओशो न्यास' को मिलने वाले लाभ अब कम हो गए हैं। इस कारण आश्रम को आर्थिक तौर पर नुकसान उठाना पड़ रहा है और आश्रम से संबद्ध सभी लोगों में असंतोष है। दूसरी ओर ओशो मल्टीमीडिया एण्ड रिसोर्ट की पूंजी तथा मुनाफे में बढ़ोतरी हो रही है।
 
इन सारी अनियमितताओं के कारण आचार्य रजनीश के आश्रम में आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या में भी अत्याधिक कमी आई है। आश्रम से जुड़े सूत्रों के अनुसार पहले रजनीश आश्रम में आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या प्रतिदिन 1200 से 1500 हुआ करती थी, वह अब मात्र 150 के आसपास तक ही सीमित हो गई। उक्त संन्यासियों पर आरोप हैं कि यह धीरे-धीरे ओशो के आडीयो, वीडियो और किताबों के अधिकार प्राप्त कर ओशो के विचारों को फैलने से रोकेंगे और अंतत: ओशो लुप्त हो जाएंगे। ओशो का लुप्त हो जाना ही ईसाई विचारधारा के हित में हैं।

ओशो और अमेरिका : 'कम्यून (रजनीशपुरम) को नष्ट कर देने से पहले उनको कुछ भी न रोक पाता। सर्वोपरि रूप से, वे ओशो रजनीश को नष्ट करना चाहते थे- यह गैर-ईसाई, गैर-यहूदी, गैर-रैंचर, जो रॉल्स रॉयस में घूमता था और अजीब से कपड़े पहनता था। उन्होंने उसे मृत देखना पसंद किया होता। और वे उसमें सफल भी हो जाते यदि समय रहते उसके शिष्यगण उसे छुड़ा लाने के लिए बीच में न कूद पड़ते।'... यदि हम तथ्‍यों की मानें तो ओशो रजनीश को जहर देने में जब शीला असफल रही तो उसने अमेरिकी सरकार के साथ मिलकर ओशो के खिलाफ षड्‍यंत्र रचा और फिर अमेरिकी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जहर देकर मरने के लिए छोड़ दिया।
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ओशो की प्रेमिकाएं तो बहुत थीं लेकिन कथित रूप से 'विश्वासघात' सिर्फ एक ही ने किया और उसका नाम है शीला, जो पहले कभी मां आनंद शीला थी। उसका असली नाम है- शीला अंबालाल पटेल। वर्ष 1949 में बड़ौदा के एक गुजराती परिवार में जन्मीं शीला को सिर्फ पैसों से प्यार है। वह अपने एक साक्षात्कार में कहती है- 'मैं आज भी ओशो की प्रेमिका हूं।' सही है शीलाजी ओशो की प्रेमिका बने रहने में ही लाभ है।
 
बहुत सालों बाद शीला ने अपनी किताब को हिंदी में लिखने का इसलिए मन बनाया, क्योंकि हिंदी का बाजार भी अब समृद्ध हो चला है और ओशो के संन्यासियों की संख्या भी पहले से 10 गुना ज्यादा हो गई है। यदि 20 प्रतिशत संन्यासी ही यह किताब खरीद लेते हैं तो काम बन जाएगा। आखिर शीला उसी समाज का हिस्सा है, जो धन के अलावा कुछ सोचता ही नहीं। यह आधुनिक युग है। यहां प्रेम का अर्थ और महत्व समझना मुश्किल है। शीला ने अपनी किताब में खुद लिखा है कि उनकी (शीला की) दिलचस्पी आध्यात्मिक ज्ञान में नहीं थी, वह तो रजनीश से प्यार करने लगी थी। शीला कहती है कि वह आज भी रजनीश की प्रेमिका है।
 
रजनीश उन लोगों से कतई मतलब नहीं रखते थे जिनकी रुचि ध्यान और अध्यात्म में नहीं होती थी। वे बहुत जल्द ही ऐसे लोगों को चलता कर देते थे। दूसरी बात यह कि आप आज भी उन्हें अपना प्रेमी क्यों मानती हैं? जब आपको रजनीश ढोंगी, सेक्सी, नशेड़ी और गैर-आध्यात्मिक व्यक्ति लगते हैं तो उनकी प्रेमिका कहलाने में आपको तो शर्म महसूस होना चाहिए?
 
यह वह वक्त था जबकि दुनियाभर के धार्मिक संगठनों के नेता और अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार ओशो के धर्म और राजनीति विरोधी विचार के कारण उनकी जान के दुश्मन बन बैठे थे। एफबीआई और सीआईए ओशो के साम्राज्य को ध्वस्त करने के लिए योजना बनाने लगे थे।
 
वे लगातार इस मामले में जर्मन और ब्रिटेन की सरकार के संपर्क के अलावा ओशो के ओरेगान कम्यून के संन्यासियों के संपर्क में थे। उन्होंने बहुत से ऐसे लोगों को भेजा, जो ओशो के संन्यासी बनकर कम्यून की गतिविधियों की जानकारी अमेरिकी खुफिया विभाग को देते थे। आखिकार उन्होंने 'शीला' सहित कम्यून के और भी लोगों को अपना एजेंट बना ही लिया।
 
विद्या और शीला के माध्यम से अमेरिकी सरकार ने जहां ओशो को मारने की साजिश रची वहीं उन्होंने उनके वैभवपूर्ण साम्राज्य को ध्वस्त करने और दुनियाभर में उनकी छवि बिगाड़ने के लिए लाखों-करोड़ों खर्च किए। 
 
इस बारे में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ऑफ विक्टोरिया (ऑस्ट्रेलिया), सुप्रीम कोर्ट ऑफ ओरेगान, दि यूएस फेडरल डिस्ट्रिक्ट ऑफ ओरेगान तथा नाइन्थ सर्किट यूएस कोर्ट ऑफ अपील्स में वकालत करने के लिए मान्यता प्राप्त अटर्नी और अमेरिकन बार एसोसिएशन तथा एसोसिएशन ऑफ ट्रायल लायर्स की सदस्या 'सू एपलटन' ने एक विश्वप्रसिद्ध किताब लिखी है जिसमें इस बारे में खुलासा किया गया है।
 
उन्होंने अपनी किताब में अमेरिकी सरकार और उसकी खुफिया एजेंसी के वे सारे दस्तावेज उपलब्ध कराए हैं जिसमें रोनाल्ड रीगन सरकार की साजिश और शीला के अमेरिकी एजेंट होने का खुलासा होता है।
 
सू एपलटन अनुसार शीला ने खुद के चरित्र को सरकारी अधिकारियों के विरोधी के रूप में चित्रित किया ताकि कोई उन पर संदेह न कर सके। लेकिन अमेरिकी फ्रीडम ऑफ इन्‍फर्मेशन एक्ट से प्राप्त जानकारी के आधार पर पता चला कि मां योग विद्या और अन्य फेडरल सरकार को सूचनाएं देती रही थीं। यह अमेरिकी खुफिया विभाग में एक एजेंट के रूप में कोड थी यानी ओशो कम्यून में शीला ही नहीं और भी कई संन्यासी थे, जो अमेरिकी एजेंट थे?

ओरेगॉन आश्रम को अमेरिका ने कैसे नष्ट किया?
रजनीश के शिष्यों ने अपने कम्यून की स्थापना के लिए 1981 में ओरेगॉन के अधिकारियों के पास अर्जी दी। जरूरी कागजात और खानापूर्ति करने के बाद उन्हें ओरेगॉन में आश्रम बनाने की अनुमति मिल गई। धीरे धीरे आश्रम में हजारों सन्यासी जुटने लगे और एक नया शहरी ही बसा डाला। 10 हजार से ज्यादा सन्यासी वहां एक साथ ध्यान करते थे। अमेरिकी अधिकारियों को रजनीश के शिष्यों की बढ़ती तादाद ने चौंका दिया था। रोल्स रॉयल्स गाड़ियां के काफिले को देखकर वे चौंक गए थे। रोनाल्ड रीगन से कहीं ज्यादा भव्य तरीके से ओशो ओरेगॉन की सड़कों पर निकलते थे।
 
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रजनीश के सन्यासियों की संख्या बस बढ़ती ही गई, यह तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। अमेरिका के कोने-कोने से लोग आ रहे थे। कई उद्योग‍पति, सिनेटर, अटार्नी जनरल, साहित्यकार, फिल्मकार आदि सभी उनके आश्रम में पहुंचने लगे थे। इस भव्य आश्रम क्षेत्र में खुद के खेत, अस्पताल, आश्रम, डेयरी फार्म, शॉपिंग मॉल, झील, पहाड़, सड़के और जीवन से जुड़ी तमाम सुविधाएं उपलब्ध थी तो 1982 में इस क्षेत्र को संन्यासियोंने रजनीशपुरम नामक शहर का पंजीकरण कराना चाहा। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया और विवाद शुरू हो गया। इस विवाद के बाद सीआईए और एफबीआई के कान खड़े हो गए। रोनाल्ड रीगन की सरकार और खुफिया एजेंसी अब इस सब पर लगाम लगाना चाहती थी। ओशो संन्यासियों को धीरे धीरे महसूस होने लगा की अब हम दुश्मनों से घिर गए हैं। सन्यासियों पर तरह तरह के आरोप लगने शुरू हो गए और अंतत: आश्रम पर जांच बिठा दी गई। 
 
सितंबर 1985 में सैकड़ों लोग कम्यून छोड़ कर यूरोप चले गए। कुछ दिनों के बाद ओशो रजनीश को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके शिष्यों पर टेलीफोन टैप करने, आगजनी और सामूहिक तौर पर लोगों को जहर देने के आरोप लगाए, लेकिन ओशो ने इस सबसे इनकार किया। अंतत: उन्हें एक संक्रमित आदमी के साथ जेल में कई दोनों तक बंद रखा। सन्यासियों के प्रयास से उन्हें उस जेल से निकालकर दूसरी जेल में डाला गया जहां उन्हें थेलिसिमियान नामक धीमा जहर दे दिया। इस जहर का असर छह माह बाद होता है। 
 
इस बारे में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ऑफ विक्टोरिया (ऑस्ट्रेलिया), सुप्रीम कोर्ट ऑफ ओरेगान, दि यूएस फेडरल डिस्ट्रिक्ट ऑफ ओरेगान तथा नाइन्थ सर्किट यूएस कोर्ट ऑफ अपील्स में वकालत करने के लिए मान्यता प्राप्त अटर्नी और अमेरिकन बार एसोसिएशन तथा एसोसिएशन ऑफ ट्रायल लायर्स की सदस्या 'सू एपलटन' ने एक विश्वप्रसिद्ध किताब लिखी है जिसमें ओशो रजनीश को किसी तरह अमेरिका की सरकार ने जहर दिया, इसका खुलासा किया गया है।

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