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क्‍या एकनाथ शिंदे महाराष्‍ट्र के सचिन पायलट बनकर रह जाएंगे?

नवीन रांगियाल
महाराष्‍ट्र की शिवसेना में फिलहाल जो घट रहा है, वो देश की राजनीति के लिए कोई नया घटनाक्रम नहीं है। बगावत के बाद कई राज्‍यों में तख्‍तापलट की स्‍थिति बनी है। इसके पहले मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान और कर्नाटक में ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम सामने आ चुके हैं।

महाराष्‍ट्र के नेता एकनाथ शिंदे ने अब अपनी पार्टी शिवसेना और उद्धव ठाकरे को चुनोती दी है। दो दिनों से चल रही इस उठापटक के बीच कहा जा रहा है कि कहीं एकनाथ शिंदे राजस्‍थान के ‘सचिन पायलट मोमेंट’ बनकर न रह जाए। यानि राजस्‍थान में जब सचिन पायलट मुख्‍यमंत्री अशोक गेहलोत के खिलाफ हुए तो काफी उठापटक के बाद उन्‍हें गेहलोत के सामने घुटने टेकने पड़े थे। अंतत: अशोक गेहलोत मुख्‍यमंत्री बने रहे।

अब अगर यहां महाराष्‍ट्र के एकनाथ शिंदे की राजस्‍थान के सचिन पायलट के घटनाक्रम से तुलना करें तो दोनों स्‍थितियों नजर तो एक समान आती हैं, लेकिन असल में दोनों में बहुत फर्क है।

दरअसल, सबसे पहले तो एकनाथ शिंदे पार्टी के कद्दावर नेता हैं, तो दूसरी तरफ सचिन पायलट राजनीतिक रूप से महत्‍वकांक्षी तो हैं, लेकिन साथ ही एक सौम्‍य चेहरा हैं। वे ज्‍यादातर विवादों से दूर ही रहते हैं। जहां तक राजस्‍थान के मुख्‍यमंत्री अशोक गेहलोत से उनकी बगावत का सवाल है तो कहीं न कहीं यह ज्‍योतिरार्दित्‍य सिंधिया का इम्‍प्रेशन नजर आता है। सिंधिया ने कमलनाथ से बगावत कर मध्‍यप्रदेश की सत्‍ता में परिवर्तन कर दिया था। अपने विधायकों के साथ भाजपा से मिले और शिवराज सिंह फिर से सीएम बन गए। इसके ठीक बाद सचिन पायलट ने भी कुछ ऐसी ही चाल चलने की कोशिश की। वे जुलाई 2020 में 25 विधायकों के गुट के साथ दिल्ली पहुंच गए, लेकिन अशोक गेहलोत की रणनीति के सामने विफल हो गए। अतंत: बुझे मन से पार्टी में ही रहना पड़ा।

ठीक इसी जगह पर अगर महाराष्‍ट्र शिवसेना के एकनाथ शिंदे की बात करें तो वे अपने साथ 49 विधायकों के होने का दावा कर रहे हैं, यानी सचिन पायलट से कहीं ज्‍यादा विधायकों का समर्थन शिंदे के पास है। शिंदे के पास दूसरा फायदा यह है कि उन्‍हें चुनौती देने के लिए अशोक गेहलोत जैसा धुरंधर नेता नहीं है। हालांकि यहां उनके सामने शरद पवार जैसा चतुर और अनुभवी नेता हैं, लेकिन सीधे तौर पर नहीं है। शिंदे और पवार के बीच प्रत्‍यक्ष टकराव नहीं है। यानी शरद पवार चाहे तो भी शिंदे के खिलाफ कोई चाल आजमा नहीं सकते। फिर शिंदे ने सीधे शरद पवार को चुनौती नहीं दी है, जिससे कि पवार का ईगो हर्ट हो और वे शिंदे के खिलाफ कोई चाल चले।

दरअसल, ये लड़ाई शिवसेना के भीतर की है और एकनाथ शिंदे बनाम उद्धव ठाकरे है। इसलिए शरद पवार इस चुनौती को खत्‍म करने के लिए वैसा एफर्ट नहीं लेंगे, जैसी ताकत और रणनीति वे अपने ऊपर आई विपदा के समय लेते रहे हैं। इस स्‍थिति में शिंदे की राह आसान हो जाती है।

कुल जमा, एकनाथ शिंदे के साथ सचिन पायलट मोमेंट की संभावना नहीं है, सचिन के पास संख्या बल इतना नहीं था। उद्धव ठाकरे की बात करें तो ऐसा लगता है कि ठाकरे भी इस्तीफे देने के लिए तैयार ही बैठे थे, क्योंकि उन्होंने सूटकेस समेट कर सीएम आवास से निजी आवास मातोश्री का रुख कर लिया है। हालांकि यह उनका इमोशनल एंगल था, लेकिन फिर भी उनका ये जेस्चर गिव अप वाला ही है। संजय राउत की बयानबाजी भी गड़बड़ा रही है। कभी वे कहते हैं ज्‍यादा से ज्‍यादा क्‍या होगा, सत्‍ता जाएगी। तो कभी वे कहते हैं बागी विधायक मुंबई लौटे तो गठबंधन छोड़ने के लिए तैयार हैं।

ऐसे में महाराष्‍ट्र की राजनीति और सत्‍ता किस करवट बैठेगी, इसका फैसला अब पूरी तरह से एकनाथ शिंदे के हाथ में है। क्‍योंकि उन्‍होंने हिंदुत्‍व कार्ड, बाला साहेब ठाकरे का सच्‍चा शिवसेना भक्‍त और विधायकों के साथ ही अपनी ताकत दिखाकर बची हुई शिवसेना और उद्धव ठाकरे को बैकफुट पर तो ला ही दिया है।

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