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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी ट्रांसजेंडरों की समस्याएं जस की तस

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गुरुवार, 31 मई 2018 (21:21 IST)
नई दिल्ली। मूल रूप से लखनऊ की रहने वाली कृतिका ट्रांसजेंडर हैं। वे शरीर से लड़का पैदा हुई थीं, लेकिन उन्हें बचपन से ही लगता रहा कि वे एक लड़की हैं। शरीर और मन के इस द्वंद्व के कारण कई परेशानियां सामने आईं। पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कई कोशिशों के बाद जब नौकरी मिली तो वह भी छोड़नी पड़ी और अब जब वे सर्जरी कराकर शरीर से भी महिला बन चुकी हैं तो दस्तावेजों में उसके अनुरूप नाम और लिंग बदलने की जद्दोजहद जारी है।
 
 
दिल्ली की तक्ष को परिवार का समर्थन मिला इसलिए उसका संघर्ष कुछ कम रहा। परिवार ने पूरा साथ दिया, लेकिन स्कूल और कॉलेज में उन्हें भी दोस्तों के ताने सहने पड़े। 2 बार कॉलेज की पढ़ाई शुरू की, लेकिन छोड़नी पड़ी। फरवरी में वे भी सर्जरी करवाकर पुरुष से महिला बन चुकी हैं। उसके माता-पिता दोनों डॉक्टर हैं इसलिए वे उसकी समस्या को बेहतर समझ सके। पिता मार्च में एयर कोमोडोर के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। बड़े अधिकारी होने के कारण उन्हें दस्तावेजों में बेटी का लिंग बदलवाने में कुछ कम परेशानी हुई।
 
पिछले साल अक्टूबर में सर्जरी कराने वाली कृतिका ने बताया कि काफी जद्दोजहद और मंत्रालयों के चक्कर लगाने के बाद उसका नाम तथा लिंग बदलने के संबंधी गजट अधिसूचना पिछले साल मई में जारी हो गई, लेकिन 1 साल से स्कूल के मार्कशीट में अपना नाम और लिंग बदलवाने की उसकी कोशिश अब तक नाकाम रही है। कृतिका ऐसी पहली ट्रांसजेंडर हैं, जो उच्चतम न्यायालय के 4 साल पुराने आदेश को आधार बनाकर सर्जरी से पहले ही गजट अधिसूचना के जरिए अपना नाम और लिंग बदलवाने में कामयाब रहीं।
 
उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय वैधानिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) बनाम भारत सरकार के मामले में अप्रैल 2014 में फैसला दिया था कि कोई भी ट्रांसजेंडर अपना लिंग स्वघोषणा द्वारा तय कर सकता है। बिना परिवार के समर्थन के कृतिका अपनी आजीविका भी खुद ही चला रही हैं और सर्जरी के बावजूद तमाम शारीरिक और मानसिक परेशानियों से भी अकेली ही जूझ रही हैं। उत्तरप्रदेश शिक्षा बोर्ड की 10वीं के मार्कशीट में नाम और लिंग बदलवाने के असफल प्रयास के बाद उसने अब उच्च न्यायालय जाने का फैसला किया है।
 
तक्ष और कृतिका की लिंग परिवर्तन सर्जरी करने वाले फोर्टिस अस्पताल, शाहदरा के डॉ. ऋचि गुप्ता ने बताया कि विभिन्न शोधों के अनुसार दुनिया में हर 500 व्यक्ति में 1 ट्रांसजेंडर हो सकता है। हमारे समाज में ट्रांसजेंडर होने को कलंक माना जाता है और इसलिए पहले ज्यादातर लोग इस तरह की सर्जरी के लिए सामने नहीं आते थे।
 
उन्होंने कहा कि समाज की सोच बदलनी होगी। लोगों को समझना होगा कि 'सेक्स' और 'जेंडर' दो अलग-अगल चीजें हैं। 'जेंडर' दिमागी होता है- व्यक्ति जो सोचता है कि वह पुरुष है या महिला। इसे बदला नहीं जा सकता। यह न्यूरॉनों के समूह बीएसटीसी से तय होता है। 'सेक्स' शारीरिक है। इसे सर्जरी द्वारा बदला जा सकता है। 'जेंडर' और 'सेक्स' अलग-अलग होने पर व्यक्ति को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है इसलिए सर्जरी कराना ही उस मानसिक पीड़ा से निजात पाने का एकमात्र उपाय है।
 
22 साल की कृतिका ने बताया कि बचपन से उसकी हरकतें लड़कियों जैसी थीं। लड़कियों के कपड़े पहनती थीं तो परिवार और रिश्तेदार के लोग मजाक भी उड़ाते थे। स्कूल में गई तो लोग समलैंगिक समझते थे। माता-पिता उसे लेकर काफी रक्षात्मक हो गए। उसे घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहते थे। उसने खुद को मजबूत करने के लिए घर से दूर रहकर ग्रेटर नोएडा से इंजीनियरिंग करने की ठानी। वह लड़कों के होस्टल में रहती थी। पहले साल की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी, लेकिन एक दिन जब 4-5 लड़कों ने रात में बलात्कार की कोशिश की तो वह वहां से भाग गई। पढ़ाई छोड़ दी। 1 साल जैसे-तैसे निकाला। इसी दौरान 20-30 हजार रुपए बचाकर फोर्टिस अस्पताल में सलाह ली।
 
आजीविका के लिए उसने कॉल सेंटर में काम करना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ दिन बाद वह नौकरी भी छोड़नी पड़ी। कोई किराए पर मकान देना भी नहीं चाहता था। अंत में उच्चतम न्यायालय के फैसले को आधार बनाकर उसने विभिन्न मंत्रालयों को लिखा। इसके बाद उसने खुद जाकर अधिकारियों को अपनी व्यथा समझाई और तब जाकर गजट अधिसूचना जारी कराने में सफल रही।
 
23 साल की तक्ष के पिता डॉ. संजय शर्मा ने बताया कि वह बचपन में गुड़ियों से खेलती थी, लेकिन स्वयं डॉक्टर होने के बावजूद शर्मा अपने 'बेटे' की समस्या को समझ नहीं सके। 8वीं-9वीं कक्षा में जाकर तक्ष ने एक दिन अपनी मां से कहा कि वह 'गे' है जबकि 2015 में जाकर उसे यह लगा कि वह 'गे' नहीं, लड़की है। इस बीच एक बार वह दिल्ली में कॉलेज की पढ़ाई छोड़ चुकी थी और इसके बाद उसने मुंबई में मीडिया की पढ़ाई भी छोड़ दी। अब वह एक फैशन स्टाइलिस्ट बनना चाहती है।
 
डॉ. शर्मा ने कहा कि एमबीबीएस की पढ़ाई में भी ट्रांसजेंडरों पर कोई नोट तक नहीं होता। इस विषय को एमबीबीएस पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि कम उम्र में इसकी पहचान हो सके। साथ ही लोगों और नियोक्ताओं को भी इसके प्रति संवेदनशील बनाने की जरूरत है ताकि ट्रांसजेंडर समाज में इज्जत से जी सकें और आत्मनिर्भर बन सकें। (वार्ता)

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