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कहानी पेरिस के Eiffel टॉवर की, 6 माह में ही वसूल हो गई थी लागत

राम यादव
Eiffel Tower Story: इंग्लिश में 'आइफ़ल' और फ्रेंच भाषा में 'इफ़ेल' (Eiffel) कहलाने वाला पेरिस का जगप्रसिद्ध टॉवर, 235 वर्ष पूर्व की दुनिया में बना सबसे ऊंचा टॉवर और उस समय की इंजीनियरिंग का एक बेजोड़ नमूना है। इस वर्ष 26 जुलाई से 11 अगस्त तक पेरिस में जब तीसरी बार ओलंपिक खेलों का महामेला लगेगा, तब आइफ़ल टॉवर भी दुनिया भर से आए खिलाड़ियों और दर्शकों के आकर्षण का सबसे प्रमुख आकर्षण बनेगा, भले ही इसराइली-फ़िलस्तीनी युद्ध के कारण इस्लामी जिहादियों ने उसे बम से उड़ा देने की धमकी दे रखी है।
 
इस अनोखे टॉवर के बनने की कहानी भी कुछ कम अनोखी नहीं है। यह भी हो सकता था कि गुस्ताव इफ़ेल नाम के फ्रांस के एक इंजीनियर द्वारा बनाया गया, हज़ारों टन भारी लोहे का यह टॉवर, कभी बना ही नहीं होता। उसकी जगह खड़ा होता, तराशे हुए ग्रेनाइट पत्थरों का बना एक ऐसा विशाल टॉवर, जिसके शिखर पर जगमग करता एक भव्य प्रकाश स्तंभ होता। फ्रांस के ही एक प्रसिद्ध आर्किटेक्ट, ज्युल बुर्दे ने उन्हीं दिनों ग्रेनाइट पत्थरों के बने ऐसे ही ऊंचे, किंतु एक अलग किस्म के टॉवर का ख़ाका तैयार कर रखा था। इन दोनों महारथियों के बीच तत्कालीन सरकार से अपनी बात मनवाने की एक लंबी खींच-तान चली थी। 
 
फ्रांसीसी क्रांति की सौवीं जयंती : दोनों की होड़ के बीच 31 मई, 1884 के दिन समाचार आया कि फ्रांस की सरकार 1789 की फ्रांसीसी क्रांति की सौवीं जयंती मनाने के लिए, 1889 में पेरिस में एक भव्य विश्व-प्रदर्शनी आयोजित करेगी। इस प्रदर्शनी द्वारा फ्रांस दुनिया को दिखाना चाहता था कि 18 वर्ष पूर्व, 1871 में जर्मनी के पूर्वगामी प्रशिया के हाथों नेपोलियन की हार के बाद इस बीच वह आर्थिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टि से किस अपूर्व उंचाई पर पहुंच चुका है। ALSO READ: 'ला नीन्या' आ रही है, मौसम बदलेगा करवट, कहीं आग तो कहीं बाढ़ का टूटेगा कहर
 
विश्व प्रदर्शनियां (Expo) किसी देश द्वारा अपनी प्रगति दिखाने वाली झांकियां हुआ करती थीं। 1851 में इंग्लैंड में हुई पहली विश्व प्रदर्शनी में अंग्रेज़ों ने लंदन में अपने 'क्रिस्टल पैलेस' द्वारा धूम मचाई थी। वह शीशे और लोहे सहित कई धातुओं का बना, 92 हज़ार वर्गमीटर बड़ा एक विशाल शीशमहल था। 1853 में न्यूयॉर्क की विश्व प्रदर्शनी में दुनिया की पहली लिफ्ट ने सबका ध्यान खींचा था। 1876 की फ़िलाडेल्फ़िया की प्रदर्शनी में ग्रैहम बेल ने पहला टेलीफ़ोन दिखाया था। 1889 की पेरिस विश्व प्रदर्शनी के बहाने से फ्रांस दुनिया का पहला 300 मीटर ऊंचा टॉवर बनाकर अपने कौशल का सिक्का जमाना चाहता था।  
 
औद्योगिक युग शुरू हो चुका था : लोहे को बड़े पैमाने पर गलाने और उसे मनचाहे आकारों में ढालने का औद्योगिक युग तब तक शुरू हो चुका था। आर्किटेक्ट ज्युल बुर्दे, तब भी लोहे के बदले ग्रेनाइट पत्थरों के बने एक टॉवर द्वारा पेरिस की विश्व प्रदर्शनी की शोभा बढ़ाने को आतुर था। दूसरी ओर गुस्ताव इफ़ेल, 25 वर्ष की आयु में ही, एक नदी पर लोहे का ही 510 मीटर लंबा यूरोप का सबसे बड़ा पुल बना कर दिखा चुका था। इसलिए वह पेरिस की विश्व प्रदर्शनी को लोहे के बने 300 मीटर ऊंचे एक टॉवर के द्वारा चिरकालिक यादगार बना देना चाहता था। ALSO READ: चुनाव के बाद फ्रांस भारी असमंजस में, यदि वामपंथी सरकार बनी तो भारत पर भी असर
 
इस प्रदर्शनी की घोषणा के समय गुस्ताव इफ़ेल हालांकि दो बहुत ही चुनौती भरे कार्यों को लेकर व्यस्त था। एक था, फ्रांस की रेलवे के लिए एक घाटी के ऊपर दुनिया के सबसे ऊंचे लौह-पुल का निर्माण, जो 122 मीटर ऊंचा होता। दूसरा था, फ्रांस में बनी और 1886 से न्यूयॉर्क के लिबर्टी आइलैंड पर खड़ी, 'स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी' नाम की उस जगप्रसिद्ध मूर्ति को टूटने-फूटने से बचाने के लिए लोहे का एक ऐसा सुरक्षा-कवच बनाना, जिसमें रखकर उसे जहाज़ द्वारा न्यूयॉर्क पहुंचाया जाना था। एक फ्रांसीसी मूर्तिकार की बनाई रोमन स्वतंत्रता देवी की 46 मीटर ऊंची यह मूर्ति, फ्रांस की ओर से अमेरिका के लिए एक भेंट थी, जो शुरू से ही न्यूयॉर्क शहर का एक सबसे दर्शनीय आकर्षण बन गई है।   
 
टॉवर का पहला ख़ाका : 7 जून, 1884 के दिन इफ़ेल के दो इंजिनियरों ने उसे किसी पुल को संभालने वाले स्तंभों-जैसे एक ऊंचे  टॉवर का ख़ाका दिखाया। वह नीचे चौड़ा और ऊपर की ओर निरंतर संकरा होते जाते एक ऐसे टॉवर का ख़ाका था, जो 300 मीटर ऊंचा होता। दोनों इंजीनियरों ने टॉवर के वज़न का और उस पर तेज़ हवा के दबाव का भी हिसाब लगाया था। इफ़ेल ने किंतु उनके प्रयास की सराहना करने के बदले मीनमेख निकलकर उन्हें ठंडा कर दिया। कहा, थोड़ी और मेहनत कीजिए। दोनों इंजिनियरों ने एक जाने-माने आर्किटेक्ट से बात की और उसकी सहायता से कुछ परिवर्तनों के साथ एक नया ख़ाका तैयार किया।  ALSO READ: हिटलर का डिप्टी हिमलर योग के द्वारा जर्मनों को बनाना चाहता था भारत के क्षत्रियों जैसी योद्धा जाति
 
नए ख़ाके में टॉवर को इस तरह डिज़ाइन किया गया था कि लोग उस पर चढ़ सकें। उस की पहली और दूसरी मंजिल पर कुछ समय ठहर कर पेरिस के चतुर्दिक परिदृश्य का भरपूर आनन्द ले सकें। टॉवर की वर्गाकार नींव पर रखे उसके चारों पैरों के बीच की जगहों को आकर्षक बनाने के लिए, उन्हें अर्धचंद्राकार तोरणों जैसा आकार दिया गया था। टॉवर के संकरे होते ऊपरी हिस्सों को भी सजाया गया था। इन परिवर्तनों से गुस्ताव इफ़ेल का टॉवर लोगों के लिए चर्चा और आकर्षण का केंद्र बनना सुनिश्चित था। 
 
संशोधित नया प्रारूप : गुस्ताव इफ़ेल के दोनों युवा इंजीनियरों ने प्रस्तावित टॉवर का जब यह संशोधित नया प्रारूप उसके सामने पेश किया, तो इस बार वह ना-नुकुर नहीं कर सका। इस बार उसने दोनों की पीठ थपथपाई और तय कर लिया कि अपने प्रतिस्पर्धी, प्रसिद्ध आर्किटेक्ट ज्युल बुर्दे को वह इसी डिज़ाइन द्वारा मात देगा। बुर्दे भी पिछले दो वर्षों से ग्रेनाइट पत्थरों वाली अपनी वास्तुशिल्पी डिज़ाइन पर काम कर रहा था। उसे पछाड़ना आसान नहीं था। इसलिए इफ़ेल ने अपने टॉवर के प्रचार के लिए प्रेस का सहारा लिया। ALSO READ: थाईलैंड के मनमौजी और अय्याश राजा की कहानी, 5 पत्‍नियां, कई रखैल और 13 बच्‍चे
 
22 अक्टूबर, 1884 को पेरिस के एक अख़बार ने लिखा कि आगामी विश्व प्रदर्शनी के एक बड़े आकर्षण के तौर पर 300 मीटर ऊंचे लोहे के बने एक अद्भुत टॉवर के निर्माण की योजना है। एक महीने बाद, विज्ञान पत्रिका 'ला नत्युअर' में भावी टॉवर के रेखाचित्र के साथ-साथ एक लंबा लेख प्रकाशित हुआ। लेख में कहा गया था कि पूरा टॉवर लोहे का बना होगा। मिस्री पिरामिडों जैसे दुनिया के दूसरे ऊंचे-ऊंचे स्मारक उसके आगे बौने नज़र आएंगे। तेज़ हवा उसे हिला नहीं पाएगी। सबसे ऊपर एक बहुत बड़ी बत्ती होगी, जिसकी चमक सब का मन मोह लेगी।  
 
प्रतिस्पर्धी का टॉवर : कुछ ही दिन बाद गुस्ताव इफ़ेल के प्रतिस्पर्धी, ज्युल बुर्दे के ग्रेनाइट पत्थरों वाले टॉवर का गुणगान करता एक सचित्र लेख भी प्रकाशित हुआ। उसके टॉवर के भीतर लिफ्टें होतीं। टॉवर के शिखर पर दूर-दूर तक देखने के लिए एक प्लैटफ़ॉर्म होता, जिस पर 1000 तक लोगों के लिए जगह होती। रातों में वहां ऐसी तेज़ रोशनी होती कि रिफ्लेक्टरों द्वरा उस रोशनी के परावर्तन से पेरिस की सड़कें दूर-दूर तक जगमगा जातीं। बिजली के बल्ब का तब तक आविष्कार हो तो चुका था, पर सड़कों पर की बत्तियां गैस से जलती थीं और उनकी रोशनी भी बहुत कम होती थी। यही नहीं, 1884 के दिसंबर महीने में ज्युल बुर्दे ने घोषणा की कि वह अपने प्रस्तावित टॉवर की ऊंचाई बढ़ाकर 370 मीटर कर देगा।  
 
आर्किटेक्ट ज्युल बुर्दे का टॉवर वास्तुशिल्प का यदि एक अद्भुत नमूना होता, तो गुस्ताव इफ़ेल का टॉवर गणित पर आधारित इंजीनियरिंग का एक नया कीर्तिमान। पेरिस की ख्याति लेकिन उसके वास्तुशिल्पी सौंदर्य की देन रही है न कि किसी इंजीनियरिंग कौशल की। दूसरी ओर, उस समय की औद्योगिक क्रांति भी पेरिस का चेहरा बदलने लगी थी। इफ़ेल की बनाई पेरिस के 'बुडापेस्ट' रेलवे स्टेशन की इमारत बहुत सराहना बटोर रही थी। विश्व प्रदर्शनी के लिए पेरिस को किस प्रकार का टॉवर मिलना चाहिए, यह प्रश्न वास्तुकला और इंजीनियरिंग  के बीच विवाद का ही नहीं, नूतन और पुरातन के बीच टकराव का भी एक विषय बन गया। 
 
पहली बार आमना-सामना : पेरिस में विश्व प्रदर्शनी के आयोजन की घोषणा के साल भर बाद, 22 मई 1885 के दिन, बुर्दे और इफ़ेल का पहली बार आमना-सामना हुआ। पेरिस के इंजीनियर संघ ने दोनों से अनुरोध किया था कि विश्व प्रदर्शनी के लिए अपने प्रॉजेक्ट वे सार्वजनिक तौर पर प्रस्तुत करें। इसके के बाद ही सबसे उत्तम प्रस्ताव को साकार करने का निर्णय लिया जा सकता है। 
 
सबसे पहले, आर्किटेक्ट ज्युल बुर्दे ने ग्रेनाइट पत्थरों वाले अपने 'सौर-स्तंभ' (कोलोन सोलाइस) का मॉडल दिखाया। बुर्दे ने कहा कि उनका टॉवर सूर्य जैसे अपने प्रखर प्रकाश से मध्यवर्ती पेरिस की रातें दिन की तरह जगमग कर देगा। इसी प्रकार अपने लौह टॉवर का मॉडल दिखाते हुए इंजीनियर गुस्ताव इफ़ेल ने दावा किया कि लोहे की मोटी छड़ों, गर्डरों, शहतीरों आदि से बना, 10 हज़ार टन भारी उसका टॉवर तेज़ हवाओं के समय कहीं अधिक टिकाऊ और मज़बूत साबित होगा। मज़बूती और टिकाऊपन के कई आंकड़े दोनों तरफ से उछाले गए। यह बहस क़रीब साल भर चली, पर कोई भी पक्ष अपनी बात मनवा नहीं सका। 
 
कोई खेला करना होगा : 1885 की गर्मियों में फ्रांस में संसदीय चुनाव हुए। नई सरकार के प्रमुख और ज्युल बुर्दे एक-दूसरे से भलीभांति परिचित थे। गुस्ताव इफ़ेल का माथा ठनका कि अब कोई न कोई खेल करना होगा, वर्ना बुर्दे बाज़ी मार ले जाएगा!  इफ़ेल ने उस समय के नए वाणिज्य मंत्री एदुआर्द लोक्वो से मिलना तय किया। लोक्वो ही पेरिस की विश्व प्रदर्शनी के आयोजन का मुख्य प्रभारी था। इफ़ेल ने लोक्वो को आश्वस्त किया कि उसे, यदि अगले 10 वर्षों तक के लिए, भावी टॉवर अपनी देख-रेख में चलाने का अधिकार दे दिया जाए, तो उसके निर्माण के लिए सरकार को एक दमड़ी तक नहीं देनी पड़ेगी। निर्माण कार्य का सारा ख़र्च प्रवेश टिकट से होने वाली आय के बल पर वह स्वयं उठाएगा। 10 वर्षों में सारा पैसा वसूल हो जाएगा। 
 
वाणिज्य मंत्री लोक्वो के किसी निर्णय पर पहुंचने तक अलग-अलग लोगों की ओर से 107 नए ख़ाके पेश किए गए। वे कुछ बदलावों के साथ अधिकतर इफ़ेल के प्रस्तावित टॉवर की ही नकलें थे। अंतिम निर्णय लेने वाले ज्यूरी-मंडल ने, 28 मई 1889 के दिन घोषित किया कि गुस्ताव इफ़ेल के टॉवर का प्रारूप सारी शर्तें पूरी करता है। पेरिस की विश्व प्रदर्शनी के लिए दुनिया का सबसे ऊंचा टॉवर इफ़ेल ही बनाएंगे। यह प्रदर्शनी तीन वर्ष से भी कुछ कम समय में शुरू होने वाली थी। अब प्रश्न यह था कि गुस्ताव इफ़ेल क्या इतने कम समय में 300 मीटर ऊंचा अपना टॉवर बना पाएंगे?   
 
ख़र्च अनुमान से अधिक : इफ़ेल से कहा गया कि उन्हें अपना टॉवर पेरिस के बीच से बहती 'सेन' नदी के पास वाले मैदान पर बनाना होगा। इसका मतलब था कि नदी के पास की सीलन के कारण उन्हें अपने टॉवर के लिए बहुत ख़र्चीली नींव डालनी पड़ेगी। टॉवर के भीतर जो लिफ्टें लगने वाली थीं, उन्हें लंबवत नहीं, तिरछा रखना पड़ेगा, क्योंकि टॉवर नीचे तो 125x125 मीटर चौड़ा होगा, पर ऊपर की तरफ संकरा होता जाएगा। इस कारण ख़र्च उससे कहीं अधिक बढ़ रहा था, जितना इफ़ेल ने सोचा था। दूसरी ओर, 1886 के अंत तक फ्रांसीसी सरकार और इफ़ेल के बीच किसी समझौते पर हस्ताक्षर भी नहीं हो पाए थे। इफ़ेल के प्रतिस्पर्धी मन ही मन लड्डू फोड़ने लगे। 
 
लगभग 6 महीने की प्रतीक्षा के बाद, 8 जनवरी 1887 को, आइफ़ल टॉवर के निर्माण के समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इफ़ेल को उस समय की मुद्रा में 15 लाख फ्रां का एक अग्रिम भुगतान मिला और 20 वर्षों तक टॉवर के प्रवेश-टिकट बेचने का अधिकार भी। साथ ही, शर्त यह भी थी कि विश्व प्रदर्शनी शुरू होने तक टॉवर यदि बनकर तैयार नहीं हो पाया, तो सरकार उसे छीनकर अपने हाथों में ले लेगी। इस तरह, 27 जनवरी 1887 को, आइफ़ल टॉवर के निर्माण का काम शुरू हुआ। लेकिन, दो ही सप्ताह बाद फ्रांस के एक से एक धुरंधर लेखकों-साहित्यकारों, चित्रकारों-मूर्तिकारों और वास्तुकारों ने मिलकर, इस टॉवर के विरोध में, एक अख़बार में अपना एक खुला पत्र प्रकाशित करवाया।
 
निर्मण कार्य को रोकने का प्रयास : उनका कहना था कि हम अपनी अद्वितीय सुंदरता के लिए प्रसिद्ध 'पेरिस को बदसूरत बनाने वाले' इस निंदनीय निर्मणकार्य को 'बहुत बड़ा कलंक' मानते हैं। इसे तुरंत रोका जाए। गुस्ताव इफ़ेल को जैसे ही इसका पता चला, उसने भी अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए एक खुला पत्र लिखा। उसका पत्र भी उसी अख़बार में उसी दिन प्रकाशित हुआ, क्योंकि अख़बार का प्रकाशक उसका मित्र था। उसने इफ़ेल को पहले ही आगाह कर दिया था।
 
इस अप्रिय प्रकरण के बाद इफ़ेल सब कुछ भुलाकर अपने काम में पूरी तरह जुट गया। सेन नदी बहुत पास होने के कारण टॉवर की नींव के लिए सूखी ठोस ज़मीन नहीं मिल रही थी। 14 मीटर की गहराई तक खुदाई के बाद ही एक ठोस परत मिली। उसे सीमेंट-कंक्रीट से भरा गया। 1 जुलाई 1887 से नींव पर टॉवर का ढांचा खड़ा होना शुरू हुआ। टॉवर के अलग-अलग हिस्से कुछ ही किलोमीटर दूर इफ़ेल के ही एक कारख़ाने में तैयार किए जाते थे। टॉवर के निर्माण-स्थल पर लाकर उन्हें नट-बोल्ट से आपस में जोड़ा जाता था। क़रीब 25 लाख नट-बोल्ट लगे।
 
'वॉशिंगटन मॉन्युमेंट' को पीछे छोड़ा : काम शुरू होने के एक साल बाद टॉवर के चारों पैर जुड़ते ही निर्माण कार्य बहुत तेज़ी से आगे बढ़ने लगा। 1 अप्रैल 1888 को, 75 मीटर ऊंची पहली मंजिल बन कर तैयार हो चुकी थी। चार महीने बाद, 115 मीटर ऊंची दूसरी मंजिल भी बन गई। कुछ और महीने बीते और टॉवर की ऊंचाई 170 मीटर होते ही उसने उस समय तक दुनिया के सबसे ऊंचे 'वॉशिंगटन मॉन्युमेंट' कहलाने वाले अमेरिकी स्मरक को पीछे छोड़ दिया।
 
रविवार वाले छुट्टी के दिनों को पेरिस की आम जनता भी निर्माण कार्य देखने के लिए वहां जुट जाती थी। 31 मार्च 1889 तक टॉवर तो बन कर तैयार हो चुका था, लेकिन लिफ्टें तैयार नहीं हो पाई थीं। तब गुस्ताव इफ़ेल और उसके कुछ निकट सहयोगियों ने तय किया कि वे टॉवर के भीतर बनी 1792 पायदानों वाली सीढ़ी पर चढ़कर टॉवर के शिखर तक पैदल जाएंगे। ऐसा ही हुआ। कुछ समय बाद लिफ्टें भी लग गईं। 
 
सपना साकार हुआ : गुस्ताव इफ़ेल का सपना साकार हुआ। पेरिस को इंजीनियरिंग के चमत्कार वाला दुनिया का सबसे ऊंचा टॉवर मिला। 1889 के 6 मई के दिन पेरिस की विश्व प्रदर्शनी का धूमधाम से उद्घाटन हुआ। कहने की आवश्यकता नहीं कि 'आइफ़ल' टॉवर ही इस प्रदर्शनी का सबसे बड़ा आकर्षण बन गया। केवल 6 महीनों में 20 लाख दर्शक उसका टिकट लेकर उसे भीतर से देख चुके थे। उसे बनाने पर आया ख़र्च इन 6 महीनों में ही वसूल हो गया था। आजकल हर साल दुनिया भर के लगभग 70 लाख लोग उसे देखने जाते हैं।
 
पेरिस के आइफ़ल टॉवर से प्रेरित हो कर, कुछ ही वर्ष बाद ब्रिटेन और अमेरिका में उससे भी ऊंचे टॉवर बनाने के प्रयास हुए, पर वे पूरे नहीं हो सके। 'प्रेम नगरी' पेरिस का आइफ़ल टॉवर आज भी गर्व से खड़ा है और अपने ढंग का अद्वितीय टॉवर है। फ्रांस की सरकार का कहना है कि पेरिस के ओलंपिक खेलों के समय आतंकवादियों से आइफ़ल टॉवर की और ओलंपिक खेलों की सुरक्षा के लिए हर स्तर पर ऐसे विशेष प्रबंध होंगे, जैसे पहले कभी नहीं देखने में आए हैं।
 

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