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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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Special Interview : बुरी तरह गिरी है राजनीतिक लोगों की प्रतिष्ठा व साख-गोविन्दाचार्य

Special Interview : बुरी तरह गिरी है राजनीतिक लोगों की प्रतिष्ठा व साख-गोविन्दाचार्य
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पं. हेमन्त रिछारिया

नर्मदा यात्रा व अध्ययन प्रवास पर निकले देश के प्रसिद्ध चिंतक, विचारक और एक समय बीजेपी का 'थिंक टैंक' माने जाने वाले केएन गोविन्दाचार्य अपनी यात्रा प्रवास के दौरान 25 फरवरी 2021 को नर्मदापुर जिले के ग्राम-डोंगरवाड़ा नर्मदा तट पर स्थित 'नर्मदा आश्रम' पहुंचे। उनकी इस यात्रा में सहयात्री बने नर्मदापुर के ज्योतिषाचार्य पं. हेमन्त रिछारिया ने वेबदुनिया के लिए उनसे विभिन्न विषयों पर खास चर्चा की। प्रस्तुत है ज्योतिषाचार्य पं. हेमन्त रिछारिया के साथ गोविन्दाचार्य की बातचीत के प्रमुख अंश-
 
प्रश्न : आपकी नर्मदा यात्रा का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
गोविन्दाचार्य : मेरी यह यात्रा नितांत धार्मिक व आध्यात्मिक है। अपने अंदर खुद को देखने की कोशिश है और नर्मदा मैया से प्रार्थना कि वे हमें आगे की राह दिखाएं। इस यात्रा का उद्देश्य बस इतना ही है।
 
प्रश्न : हमारे देश में राजपथ है, राजभवन है, राजनीति है, नेताओं का व्यवहार राजा जैसा है। क्या हम लोकतंत्र की परिभाषा में चूक कर रहे हैं?
गोविन्दाचार्य : हम पहले से चूक गए हैं। आजादी के पहले, आजादी के बाद की संरचना के लिए गांधी जी ने तीन विषयों पर विशेष जोर दिया, एक था सम्पूर्ण गौरक्षा, सम्पूर्ण गौहत्या बंदी कानून बनना चाहिए। दूसरा था भारतीय भाषाओं को महत्व देना, अंग्रेजी जाए-अंग्रेजियत जाए। तीसरा ग्राम स्वराज्य की बात कही थी, उसके लिए पंचायतों को, ग्राम-सभाओं को मजबूत करना चाहिए, वो भी छूट गया। बहुत मुश्किल से गौहत्या बन्दी और पंचायती राज को संविधान के निदेशित सिद्धांतों में समाविष्ट किया गया है।
 
उसके बाद भी आधा-अधूरा काम हुआ जो व्यस्थित रूप से नहीं हो पाया। यहीं जो हम चूके, रास्ता भूल गए कहीं निकल गए। इसका मूल कारण मैं मानता हूं आत्मविश्वास का अभाव। आत्मविश्वास के अभाव में स्वालम्बन ना होकर परावलम्बन की नीति अपनाई। आत्मविश्वास का आधार होना चाहिए था स्वाभिमान, स्वाभिमान का आधार होना चाहिए था स्वत्व-बोध। स्वत्व-बोध में भारत की परम्परा के बारे में मन में अभिमान, वो चूक गए हम रास्ता, परानुकरण में लग गए। कभी देश को कुछ लोग रूस बनाने में लग गए, कभी चीन बनाने में लग गए, कभी अमेरिका बनाने में लग गए, आजकल कुछ लोग ब्राजील बनाने के चक्कर में हैं।
 
प्रश्न : आपने कुछ वर्ष पूर्व कहा था कि राजनीति समाजाभिमुख होना चाहिए, सत्ताभिमुख नहीं। आज की राजनीति को कैसे देखते हैं, कुछ प्रगति हुई है?
गोविन्दाचार्य : प्रगति तो समाज की ओर से हुई है मैं यह मानता हूं, राजनीतिक लोगों के द्वारा यह प्रगति नहीं हुई है। समाज जरूर मुंह फेर रहा है राजनीतिक लोगों से, राजनीतिक लोगों की प्रतिष्ठा व साख बुरी तरह गिरी है समाज की नज़रों में, यह समाज का वैशिष्ट है। राजनीति सामाजिक बदलाव का औज़ार ना रहकर सत्ता प्राप्ति का निरंकुश खेल बनकर रह गई है। इसमें येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना और उस पर टिके रहना यही मानो लक्ष्य रह गया है। इसमें जनता की ओर से ही परिवर्तन की मुहिम चलानी पड़ेगी ऐसा मुझे लगता है।
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प्रश्न : राजनीतिक लोगों की प्रामाणिकता के पतन के पीछे आम जनता का कितना दायित्व व दोष देखते हैं आप?
गोविन्दाचार्य : लोकतंत्र में तो जन ही सर्वाधिक निर्णायक व सर्वोपरि है। जन की चेतना, जन की समझ और जन की हिस्सेदारी यही लोकतांत्रिक प्रगति के रास्ते का उसूल है। इसमें समाज के स्तर पर और बहुत कुछ होना चाहिए था। राष्ट्रीय सत्ताभिमुखी ना हो समाज, समाज खुद अपना आंकलन करना सीखे। अब के वक्त का तकाज़ा है सही बात को डटकर बोले, जो जहां है वहीं से बोले, यह समाज पर ज्यादा लागू होता है बनिस्बत सत्ता के।
 
प्रश्न : लेकिन आज समाज के बीच से कोई आवाज़ उठती है तो उसे देशद्रोह मान लिया जाता है?
गोविन्दाचार्य : मानने या ना मानने का निर्णय करने वाले वे कौन होते हैं, समाज होता है। समाज आत्मविश्वास से अपने विवेक का इस्तेमाल करे और समाज में सत्ता की आपाधापी में ना लगने वाले लोग देश की आवाज़ बने यह आज देश की सबसे बड़ी ज़रूरत है। समाज के स्तर पर समझ भी है केवल किंकर्तव्यविमूढ़ता थोड़ी सी है इसलिए सिविल सोसायटी इसको कहा जाता है, सिविल सोसायटी का भारतीय संस्करण उत्पन्न होने की ज़रूरत है। इसमें मेरा कहना है कि धर्म-सत्ता, समाज-सत्ता, राज-सत्ता और अर्थ-सत्ता चारों स्तरों पर सत्ता की आपाधापी में ना उलझने वाले साखयुक्त लोगों की ताकत बननी चाहिए जिसको मैं कहता हूं सज्जन-शक्ति का आग्रह।
 
प्रश्न : आपको नहीं लगता कि आज जनप्रतिनिधियों ने लोकतंत्र को शीर्षासन करवा दिया है? जनप्रतिनिधियों का कार्य है लोक की बात संसद तक पहुंचे परन्तु वे उल्टे दल की बात लोगों तक पहुंचाने लगे हैं?
गोविन्दाचार्य : मानता हूं, मगर इसमें दोष किसका कहें जब कुएं में ही भांग पड़ी हो तो बाल्टी में निकालिए तो भी वही मिलेगा, लोटे में निकालिए तो भी वही मिलेगा इसलिए बात तो वहां है कि समाज के स्तर पर चेतना समग्र हिस्सेदारी बढ़ाने की ज़रूरत है। मैं मानता हूं कि वह निचले स्तर से ही शुरू होना पड़ेगा। उच्च-स्तर पर बदलाव का उत्तर ही है निचले स्तर से शुरुआत। समाज आगे सत्ता पीछे, तभी होगा स्वस्थ विकास।
 
प्रश्न : आप पर्यावरण प्रदूषण के लिए बौद्धिक प्रदूषण को कितना ज़िम्मेवार मानते हैं?
गोविन्दाचार्य : भारत का आधार है संयमित उपभोग, पश्चिम बाजारवाद का उसूल है पाशविक उपभोग। मूलत: उपभोग में संयम जीवनशैली का हिस्सा है। इसके लिए धर्म-सत्ता, समाज-सत्ता आगे बढ़े और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करे, यह वक्त की ज़रूरत है।
 
प्रश्न : क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने चरमोत्कर्ष के बाद अब उतार की ओर अग्रसर है?
गोविन्दाचार्य : मुझे तो यह नहीं मालूम। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सत्ता पर निर्भर नहीं है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार तो भरपूर हुआ है। दुनियाभर में सबसे बड़ा संगठन है। समाज के अराजक तत्वों पर अगर कोई सबसे बड़ा अवरोध है तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।
 
 

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