Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

वीरता की कहानी कहती है झांसी, चप्पे चप्पे पर है रानी लक्ष्मीबाई की छाप

वीरता की कहानी कहती है झांसी, चप्पे चप्पे पर है रानी लक्ष्मीबाई की छाप
झांसी , रविवार, 19 नवंबर 2017 (12:14 IST)
झांसी। उत्तर प्रदेश का झांसी एक ऐतिहासिक शहर है। इस शहर से जुड़ा है भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम जिसने महिला वीरता की एक अमर गाथा लिखी। झांसी में रानी के साथ-साथ आज से लगभग 400 साल से भी अधिक पहले बना किला भी बेहद महत्वपूर्ण है। यहां रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन के अहम वर्ष गुजारे। इस किले के चप्पे चप्पे पर रानी लक्ष्मीबाई की छाप देखी जा सकती है।
 
झांसी, यहां किला बनने और रानी लक्ष्मीबाई के आगमन के बाद इस किले में हर जगह नजर आने वाली उनकी छाप का सिलसिला कुछ इस तरह हैं। बंगरा पहाड़ी पर 15 एकड़ में बने इस विशाल किले की नींव 1602 में ओरछा नरेश वीरसिंह जूदेव  द्वारा रखी गई थी। ओरछा झांसी से मात्र 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वर्तमान में मध्यप्रदेश का एक कस्बा है। कभी यह सशक्त ओरछा राज्य था और झांसी को इस काल में बलवंतनगर के नाम से जाना जाता था। उस समय बलवंत नगर में रहने वाले किसान खेती, दूध, दही और लकड़ी बेचकर अपना गुजारा करते थे।
 
बलवंत नगर की भौगोलिक स्थिति कुछ इस प्रकार की थी कि यह स्थान बुंदेलखंड की सुरक्षा के लिए सैनिक छावनी के लिए उपयुक्त था। इसी कारण ओरछा नरेश वीरसिंह ने इस नगर की बंगरा पहाड़ी पर 1602 में किले का निर्माण शुरू कराया। किले को बनने में 11 साल का समय लगा और यह 1613 में बनकर तैयार हुआ। जब यह किला निर्माणाधीन था तब ओरछा नरेश से मिलने जैतपुर के राजा आए। जैतपुर के राजा को अपने किले की छत पर ले जाकर हाथ से इशारा करते हुए ओरछा नरेश ने पूछा 'देखिए आपको कुछ नजर आ रहा है?' इस पर राजा जैतपुर ने गहराई से देखते हुए कहा कि बलवंत नगर की पहाड़ी पर कुछ 'झांइ सी' (धुंधला सा) नजर आ रही है। ओरछा नरेश खुश होते हुए कहा कि आज से बलवंत नगर का नाम 'झांइसी' होगा। कालान्तर में इसका नाम बदलकर झांसी हो गया।
 
ओरछा नरेश द्वारा बंगरा पहाडी को काटकर बनाया गया यह किला बेहद मजबूत है इसी कारण इस दुर्ग की चर्चा पूरे संसार में होती है। किले मे 22 बुर्ज और बाहर की ओर उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम दिशा में खाई है, जो दुर्ग की ओर आक्रमणकारियों को सीधे आने से रोकती हैं। ओरछा नरेश के नियंत्रण से निकलकर बाद में झांसी मराठा पेशवाओं के आधीन आई। पेशवाओं ने सूबेदारों की मदद से यहां शासन किया। ओरछा नरेश से संबंधित गुसाईं यहां के किलेदार बने, जिन्हें बाद में पेशवा के मराठा सूबेदारों ने हटा दिया। गुसाईं और मराठा पेशवाओं ने भी किले मे कई अन्य इमारतों और स्थलों का निर्माण कराया।
 
मराठा नरेश गंगाधर राव से विवाह के बाद मणिकर्णिका झांसी आकर लक्ष्मीबाई कहलाईं। इन रानी लक्ष्मीबाई की छाप किले में हर जगह देखने को मिलती है। किले के पश्चिमी भाग पर बना वर्तमान मुख्य द्वार वास्तव में मुख्यद्वार नहीं है किले पर अंग्रेजों के अधिकार के बाद किले की दीवार को तोड़कर यह द्वार बनाया गया था। 
इसी द्वार के पास रखी है 'कड़क बिजली तोप' जो किले की सबसे भारी तोप थी। इस तोप को महारानी के विश्वासपात्र गुलाम गौस खाँ चलाते थे। 1857 में जब अंग्रजों ने झांसी पर हमला किया तो पश्चिमी हिस्से के सामने आने वाली पहाड़ी पर बने कैमासन देवी मंदिर की ओट का सहारा लेकर अंग्रेजी तोपों ने गोले बरसाए। उस समय तोप इस हिस्से में बने बुर्ज पर रखी थी लेकिन महारानी ने मंदिर होने के कारण उस ओर कड़क बिजली तोप नहीं चलाने का आदेश दिया लेकिन अंग्रेजों द्वारा उसी दिशा से बरसाये गोलों के कारण बुर्ज टूट गया और तोप नीचे मलबे में आ गिरी।
 
इस तोप को 1852 में जनरल करेप्पा ने नीचे से मलबे से निकलवाकर किले के वर्तमान मुख्य द्वार के पास लगवाया। इस तोप में गोला फंसा हुआ है जो दागने के लिए तोप में लगाया तो गया था लेकिन रानी ने गोला दागने का आदेश नही दिया था। किले में अंदर गणेश मंदिर है यूं तो राजा गंगाधर राव और महारानी लक्ष्मीबाई का विवाह किले के बाहर बने गणेश मंदिर में हुआ था लेकिन विवाह के बाद किले में पहली पूजा रानी ने इसी मंदिर में की थी इसीलिए इसे राजा ने अपने विवाहस्थल के रूप में मान्यता दी थी।
 
किले में इस मंदिर का बहुत महत्व था। रानी रोज यहां पूजा अर्चना के लिए आती थीं। किले के वास्तविक द्वार इसी गणेश मंदिर के नीचे हैं जो लकड़ी के बने हैं और आज भी किले में मौजूद हैं। इन्हीं दरवाजों से रानी का किले मे आना जाना होता था।  किले के मुख्य भाग में कारावास,काल कोठरी, शिव मंदिर, फांसी घर, पंच महल, पाताली कुंआ, गलाम गौस खाँ, मोती बाई व खुदा बख्श की समाधि स्थल और महारानी का छलांग स्थल महत्वपूर्ण जगह हैं। गंगाधर राव बेहद सख्त राजा थे और वह गद्दारों या नाफरमानी करने वालों के प्रति बहुत सख्त रवैया अपनाते थे और कहा जाता है कि छोटी गलती पर भी फांसी की सजा दे देते थे। किले के उत्तर पूर्वी किनारे पर फांसी घर बनाया गया था जहां जल्लाद फांसी देता था और नीचे गिरने वाली लाश को उसके घर वालों को दे दिया जाता था या लावारिस होने पर ओरछा में बेतवा नदी मे फिकवा दिया जाता था।
 
मात्र 13 साल की उम्र में विवाह के बाद झांसी आई महारानी लक्ष्मीबाई में इतनी ऊंचे दर्जे की प्रशासनिक समझ और मानवीयता थी कि उन्होंने राजा गंगाधर राव से कहकर छोटी सी बात पर ही फांसी देने की इस प्रथा का अंत करवाया। उन्होंने किले में एक कारावास और काल कोठरी बनवाई और राजा को समझाया कि जो कर्मचारी नाफरमानी करें उन्हें पहले कारावास में रखा जाए और इतना कम खाने को दिया जाएं कि वह सही रास्ते पर आ जाएं। गद्दारों से निपटने के लिए बनाई गई काल कोठरी ऐसी जगह है जहां जाने वाला हर कैदी हर पल अपनी मौत की दुआ मांगता था। इस बड़ी सी काल कोठरी में न तो कोई खिड़की है और न ही कोई रोशनदान। यहां बस नाममात्र के लिए बेहद छोटे रोशनदान है इस कारण इस कोठरी में सीलन और अंधेरा रहता है। इसी कारण यहां रखा जाने वाला हर कैदी हर पल अपनी मौत की दुआ मांगता था।
 
किले के मुख्य भाग में बना पंचमहल बेहद खूबसूरत इमारत है जो पांच मंजिला थी। इस पंचमहल में राजा और रानी रहते थे। इसकी सबसे ऊपरी मंजिल में बनी रसोई में राजा और रानी के लिए खाना बनाया जाता था।  सबसे ऊपरी मंजिल को बाद में अंग्रेजों ने तुड़वा दिया और सपाट कर दिया। उसके नीचे की मंजिल वर्तमान में बंद है बीच की मंजिल में रानी दोपहर में अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलती थीं। यहां चंदन की लकड़ी का झूला टंगा था,रानी अपनी सहेलियों के साथ फुर्सत के पल बिताती थीं। इससे नीचे की मंजिल में रानी व्यायाम किया करती थीं।
 
बारादरी, किले में एक ऐसी जगह जो राजा रानी के मनोरंजन के लिए इस्तेमाल होती थी। यहां गजराबाई का नृत्य उनके मनोरंजन के लिए होता था। इसी जगह पर सुरक्षा की दृष्टि से भवानी शंकर तोप रखी गई थी जिसे महिला तोपची मोतीबाई चलाती थीं।
 
किले में 1602 में बनाया गया एक पाताली कुंआ है। किले के निर्माण के दौरान सबसे पहले कुंआ और मंदिर ही बनाया गया था बाद में किले के बनने में इस्तेमाल हुआ पानी इसी कुंए से लिया गया। यह कुंआ आज भी किले में है जिसका पानी कभी नहीं सूखता। आज भी इस कुंए के पानी का इस्तेमाल साफ सफाई और हरियाली को बनाये रखने में किया जाता है।
 
किले मे मौजूद महत्वपूर्ण स्थानों मे सबसे महत्वपूर्ण है 'रानी लक्ष्मीबाई का छलांग स्थल'। यह वह जगह है जहां से महारानी ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ में बांधकर घोडे पर सवार होकर किले से बाहर छलांग लगाई थी।  जब रानी के देवर दूल्हाजी राव ने उनके साथ धोखा कर ओरछा गेट खोल दिया और अंग्रेजों को किले के अंदर प्रवेश करा दिया।

रानी और अंग्रेजों के बीच जबरदस्त लड़ाई हुई। मुंह में घोड़े की लगाम लिए, पीछे बेटे को बांधे और दोनों हाथों से तलवार चलाती रानी को युद्ध के बीच में किसी ने पीछे से बरछी मार दी, जिसमें रानी बुरी तरह घायल हो गई। रानी का बहुत खून बहने पर उनकी वफादार झलकारी बाई ने उनसे किला छोडकर जाने को कहा। झलकारी बाई की शक्ल लक्ष्मीबाई से बहुत ज्यादा मिलती थी। झलकारी बाई की बात मानकर रानी ने किले की दीवार से घोड़े पर बैठकर छलांग लगाई।
 
किले के बाहर स्थित भी कुछ इमारतें हैं जो रानी से सम्बंधित हैं। इसी ही एक इमारत है रानी महल। राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद रानी महिला सेना के साथ रहने के लिए रानी महल में रहने चलीं गईं थी। इसके अलावा लक्ष्मी तालाब के पास गंगाधर राव की समाधि है और काली जी का बड़ा मंदिर है। रानी रोज काली जी की पूजा करने आतीं थीं।
 
झांसी में कोई ऐसी जगह नहीं है जो महारानी लक्ष्मीबाई के प्रभाव से अछूती रही है। वीरता और पराक्रम की प्रतिमूर्ति रानी का प्रभाव भी किले में मौजूद हर स्थान पर साफ देखा जा सकता है। (वार्ता)

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

जानिए क्यों है समुद्र में भारतीय पनडुब्बियों की धाक...