नई दिल्ली, धात्विक एवं अधात्विक संरचनाओं का क्षरण काफी हद तक उनके आसपास के वातावरण से नियंत्रित होता है। सत्रहवीं शताब्दी में भारत के आगरा में बना ताजमहल, एक यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) विश्व धरोहर है, जो अपने रूप-सौंदर्य के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
सफेद पत्थरों से बना यह स्मारक धीरे-धीरे काला और पीला पड़ता जा रहा है, जो चिंता का विषय है। यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया, तो यह विश्व धरोहर संरचना अपनी चमक और सुंदरता खो सकती है।
उद्योगों और वाहनों के प्रदूषण के कारण होने वाली अम्लीय वर्षा को आमतौर पर ताजमहल के पीलेपन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। हालांकि, यह एक धीमी प्रक्रिया है, जिसकी निगरानी कठिन है। यदि स्मारक की सतह से प्रदूषकों का संपर्क छोटी अवधि के लिए हो, तो उससे भी कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिल पाता है।
ऐसे में, क्षरण एवं मलिन होने की इस प्रक्रिया का अध्ययन काफी चुनौतीपूर्ण होता है। भारतीय शोधकर्ताओं ने धातुओं की सतह पर क्षरण-उत्पादों की पहचान कर ताजमहल को नुकसान पहुंचाने में वायु-प्रदूषकों की भूमिका का अध्ययन किया है। उनका कहना है कि ताजमहल को नुकसान पहुंचाने में अम्लीय वर्षा के अलावा दूसरे कारण भी जिम्मेदार हो सकते हैं।
इस इमारत की खूबसूरती को बिगाड़ने वाले प्रभावों पर उपलब्ध व्यापक अध्ययनों में गंभीर रूप से प्रदूषित यमुना नदी, जो ताजमहल के बहुत करीब से होकर बहती है, से आने वाले प्रदूषकों से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु को आमतौर पर छोड़ दिया जाता है।
प्रदूषकों के इन संभावित प्रभावों का पता लगाने के लिए ताजमहल के परिसर को चार साल तक कार्बन स्टील, तांबे और जस्ता के नमूनों के संपर्क में रखा गया। ऐसा करने से शोधकर्ताओं को धातुओं की सतह के लक्षणों का अध्ययन करने से इन धातुओं से संबंधित सल्फाइड के गठन का पता चला है।
अध्ययन में इलेक्ट्रोकेमिकल प्रतिबाधा स्पेक्ट्रोस्कोपी (electrochemical impedance spectroscopy), रामन स्पेक्ट्रोस्कोपी (Raman spectroscopy), और एक्स-रे विवर्तन (X-ray diffraction) जैसी तकनीकों का उपयोग किया गया है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रदूषित यमुना नदी से हाइड्रोजन सल्फाइड का हानिकारक प्रभाव ताजमहल की सेहत पर पड़ा है। उन्होंने पाया कि ताँबे की क्षरण दर यहां 2.46 माइक्रोमीटर प्रतिवर्ष पायी गई है। इसके साथ-साथ धातु की सतह (कॉपर सल्फाइड की मजबूत चोटियों) पर बने क्षरण उत्पादों की पहचान से शोधकर्ताओं को इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैं कि प्रदूषित नदी से निकलने वाले हाइड्रोजन सल्फाइड ने धातु के क्षरण को तेज किया है।
यह अध्ययन, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद से संबद्ध राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला, जमशेदपुर, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।
अध्ययन में, प्रायोगिक धातुओं का उपयोग किया गया है, और यह जानने का प्रयास किया है कि वायु प्रदूषक क्षरण को कैसे प्रभावित करते हैं।
शोधकर्ताओं ने कार्बन स्टील, जस्ता और तांबे के नमूने लिए हैं, और उन्हें वर्ष 2006 से 2010 तक ताजमहल के वातावरण के संपर्क में रखा गया है। इस अवधि के दौरान पर्यावरण की स्थिति को ट्रैक करने के लिए, शोधकर्ताओं ने भारत मौसम विज्ञान विभाग से मौसम संबंधी डेटा और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से प्राप्त प्रदूषण संबंधी डेटा का उपयोग किया है। उन्होने पाया कि सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर वातावरण में प्रमुख प्रदूषक थे।
उम्मीद के विपरीत बारिश का पीएच 5.6 से 7.2 के बीच रहा, जो अम्लीय वर्षा की श्रेणी में नहीं आता।
वर्षा जल में सल्फेट्स और अमोनियम आयनों की उच्च सांद्रता थी, जो मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों से आते हैं। शोधकर्ताओं ने रामन स्पेक्ट्रोस्कोपी और एक्स-रे विवर्तन का उपयोग करके धातुओं पर संक्षारण उत्पादों का विश्लेषण किया है, जिसमें ऑक्साइड और सल्फाइड मुख्य घटक के रूप में पाये गए हैं। उनका कहना है कि ऑक्साइड तब बनते हैं, जब धातुएं हवा में ऑक्सीजन के संपर्क में आती हैं। जबकि, अम्लीय वर्षा के साथ प्रतिक्रिया से सल्फेट और नाइट्रेट बनते हैं, सल्फाइड नहीं।
ताँबे के क्षरण की दर जस्ता की तुलना में अधिक पायी गई। यह बात असामान्य थी, क्योंकि औद्योगिक वातावरण में जस्ता; तांबे की तुलना में तेजी से संक्षारित होता है। यदि औद्योगिक प्रदूषक नहीं हैं, तो सल्फाइड बनने के लिए जिम्मेदार धातुओं को संक्षारित करने वाला तत्व क्या हो सकता है? इसके लिए, शोधकर्ता हाइड्रोजन सल्फाइड के क्षरण और सल्फाइड के निर्माण को जिम्मेदार मानते हैं। उनका मानना है कि पास से होकर बहने वाली यमुना नदी, जो प्रदूषित है, इसका स्रोत हो सकती है। ताजमहल के बगल में नदी का प्रवाह कम है, और यह उद्योगों और सीवेज से निकलने वाले अपशिष्ट से भरी हुई है। सीवेज बैक्टीरिया द्वारा विघटित हो जाता है, जिससे हाइड्रोजन सल्फाइड निकलता है, जिसकी दुर्गंध ताजमहल तक जाती है।
राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला के शोधकर्ता जितेंद्र कुमार सिंह का तर्क है कि "प्रायोगिक धातुओं को नष्ट करने वाली गैस, अन्य निर्माण सामग्री को भी प्रभावित कर सकती है।" उनका कहना है कि ताजमहल के संगमरमर पर प्रत्यक्ष प्रभाव का अध्ययन करने के लिए कम से कम 10 वर्षों का एक्सपोजर आवश्यक है। हालांकि, अगर हाइड्रोजन सल्फाइड क्षरण के लिए जिम्मेदार है, तो नगर निगम के अधिकारियों को सीवेज डंपिंग पर नियमों की फिर से जांच करने की आवश्यकता होगी। यह अध्ययन इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायरमेंटल साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)