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किसी पर वर्चस्व नहीं चाहता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भागवत

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सोमवार, 17 सितम्बर 2018 (21:31 IST)
नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने सोमवार को कहा कि उनका संगठन किसी की रिमोट कंट्रोल वाली व्यवस्था नहीं है और न ही वह सत्ता या किसी व्यवस्था पर वर्चस्व चाहता है।
 
 
भागवत ने यहां विज्ञान भवन में 'भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' विषय पर अपनी व्याख्यानमाला के प्रथम चरण में संघ एवं हिन्दूत्व के बारे में अपने विचार रखे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन, महात्मा गांधी और राष्ट्रीय तिरंगे को लेकर संघ के विषय में प्रचलित भ्रांतियों को भी दूर करने का प्रयास किया।
 
सरसंघचालक ने कहा कि संघ का उद्देश्य सफल राष्ट्र के लिए सुयोग्य समाज का निर्माण है और समाज बनाने के लिए व्यक्ति निर्माण जरूरी है और यही कार्य संघ 1925 से करता आ रहा है। संघ की स्थापना के पहले विचार आया था कि समाज को बदले बिना स्थायी परिवर्तन नहीं आ सकता है। शासन के परिवर्तन से कुछ नहीं होता। देश के लोगों में देश के प्रति विश्वास पैदा करने की आवश्यकता है और इसके लिए लोकशक्ति का जागरण करना पड़ेगा। विविधताभरे समाज में जगह स्थानीय संस्कृति के नायक खड़े करने पड़ेंगे, जो मूल्य आधारित आचरण से लोगों को प्रेरित करें।
 
उन्होंने कहा कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने इसी विचार को रखकर 7-8 साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल के नाम से विभिन्न प्रयोग करने के बाद हिन्दू शक्ति और समाज को संगठित करने के लिए संघ का बीजारोपण किया था। डॉ. हेडगेवार की स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका थी। क्रांतिकारियों के साथ संबंधों के बावजूद उनका नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, पं. जवाहरलाल नेहरू आदि नेताओं से भी संपर्क था। उन्होंने गांधीजी के बारे में कहा था कि बापू के उच्च कोटि के त्याग और देश के प्रति उनकी सेवा का अनुकरण करे बिना काम नहीं चलेगा।
 
भागवत ने कहा कि संघ ने जिस हिन्दू समाज को संगठित करने की बात की, वह विविधता और मिल-जुलकर साथ रहने वाला, संयम, त्याग एवं कृतज्ञता के मूल्यों पर चलने वाला समाज है, जो शास्त्रार्थ और खंडन-मंडन से आगे बढ़ता है। वह किसी की समाप्ति नहीं चाहता बल्कि आचरण से 'जीयो एवं जीने दो' के मंत्र पर चलता है।
 
उन्होंने कहा कि हिन्दू के लिए 'परहित सरीखा श्रेष्ठ धर्म नहीं है और परपीड़ा समान कोई पाप नहीं है।' चित्त से शुद्ध और विकार से मुक्त सबका रक्षण करने वाला और संतोष, स्वाध्याय एवं ईश साधना में रत रहता है। इन मूल्यों को प्रतिध्वनित करने के लिए 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग संघ करता है और मानता है कि बाहर से आए धर्म इस्लाम एवं ईसाइयत को मानने वाले लोगों में भी यही मूल्य दिखाई देते हैं। देश का पराभव दरअसल इन मूल्यों को भूलकर आचरण करने के कारण हुआ है।
 
उन्होंने कहा कि संघ का हिन्दू समाज को संगठित करने का संकल्प किसी मत का विरोध करना नहीं था बल्कि वह मानता है कि भेदरहित, स्वार्थमुक्त समाज ही स्वतंत्रता और स्वतंत्र राष्ट्र के परम वैभव की गारंटी है। ईमानदारी और अनुशासन से सभ्य जीवन राष्ट्र के लिए जीना आना चाहिए। देश के लिए मरने वाले लोग भी उसी समाज से आएंगे जिसे देश के लिए जीना आता हो।
 
सरसंघचालक ने कहा कि संघ को हर गांव व हर गली में अच्छे आचरण वाले विश्वासप्रद स्वयंसेवक एवं ऐसे स्वयंसेवकों की टोलियां खड़ा करने के अलावा कुछ नहीं करना है जिन्हें समाज का विश्वास अर्जित हो। यह किसी वर्ग विशेष का संगठन नहीं है। संगठित और मूल्यों पर दृढ़ समाज जो भी करना चाहे, करे। उस पर संघ को कुछ नहीं करना है। संघ एक मुक्त संगठन है, जहां प्रत्येक स्वयंसेवक को अपने मत रखने का अधिकार है जिस पर सभी स्तरों पर विचार किया जाता है। ऐसे ही विचार-विमर्श से अखिल भारतीय कार्यक्रम भी बनते हैं।
 
उन्होंने कहा कि संघ एक स्वावलंबी संगठन है और यह केवल साल में एक बार गुरु दक्षिणा के रूप में आने वाले धन से चलता है, पर यह किसी से चंदा नहीं लेता। हर वर्ष मार्च से जुलाई तक खर्च चलाने में दिक्कत आती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संघ भगवा ध्वज को गुरु मानता है लेकिन राष्ट्रध्वज के रूप में तिरंगे को चुने जाने के बाद संघ से उसे भी आरंभ से पूरा सम्मान दिया।

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